हडपक्या गणेश के गम्मत से लेकर रायपुर के विवाद तक, कैसे बदल रहा है गणेशोत्सव का स्वरूप?
गणेश पक्ष आते ही देश में चारो तरफ उत्साह और उमंग का वातावरण छा जाता है.
हर कोई लंबोदर की भक्ति में लीन हो जाता है. हर-गली मोहल्ले में गजानन की भव्य प्रतिमाएं विराजमान रहती है. भक्त अपने आराध्य को उनके कई मनमोहक स्वरूपों में प्रतिमा के रूप में बिठाते हैं मनमोहक. लेकिन कुछ सालों से प्रतिमाओं की आकृति को लेकर विरोध के स्वर भी उठने लगे है.
राजधानी रायपुर में बाल गणेश की प्रतिमाओं के स्वरूप को लेकर विरोध सामने आया है. सोशल मीडिया से लेकर हर जगह लोग इसका विरोध कर रहे हैं. इतना ही नही प्रतिमाओं के स्वरूप में बदलाव के विरोध में बीते सोमवार को बड़ी संख्या में संगठन के प्रतिनिधि रायपुर एसएसपी कार्यालय पहुंचे। उन्होंने पुलिस को ज्ञापन सौंपकर दोषियों पर कड़ी कार्रवाई की मांग की है.

इतिहास से लेकर वर्तमान तक गणेशोत्सव का स्वरूप तेजी से बदला है. कार्टून, बेबी डॉल और ऑफ-शोल्डर जैसे आधुनिक रूप वाले गणेश प्रतिमाओं को स्थापित किया गया है. जिसे हिंदू संगठनों और संत समाज ने आस्था के साथ खिलवाड़ बताया.

ऐतिहासिक पृष्ठभूमि – हडपक्या (गम्मत) गणेश
• महाराष्ट्र में गणेशोत्सव पहले घरगुती (घरेलू) उत्सव के रूप में सीमित था।
• लोकमान्य तिलक (1893) ने इसे सार्वजनिक उत्सव के रूप में पुनर्जीवित किया, ताकि ब्रिटिश शासन के समय समाज में एकता और संगठन खड़ा हो।
• परंपरा यह थी कि गणेशोत्सव भाद्रपद शुक्ल चतुर्थी से शुरू होकर अनंत चतुर्दशी तक चलता है और फिर मूर्ति विसर्जन के साथ उत्सव समाप्त हो जाता है।
• उसके तुरंत बाद ही पितृपक्ष (श्राद्ध पक्ष) आता है, जिसमें धार्मिक रूप से कोई नया उत्सव, विवाह या मांगलिक कार्य नहीं होता।
• यही “खालीपन” ग्रामीण समाज ने हडपक्या/गम्मत गणेश की परंपरा से भरा।
• यानी विसर्जन के बाद छोटे-छोटे, मज़ाकिया, व्यंग्यपूर्ण और सामूहिक आयोजन हुए—ताकि उत्सव की गति बनी रहे।
2. समाजशास्त्रीय विश्लेषण – “फेस्टिव गैप” और गम्मत परंपरा
(क) फेस्टिव गैप की भरपाई
• भारत में हर उत्सव के पीछे धार्मिक, मौसमी और सामुदायिक कारण होते हैं।
• श्राद्ध पक्ष को “गंभीर और निषिद्ध काल” माना जाता है, लेकिन सामाजिक जीवन में अचानक आई यह शांति लोगों को भारी पड़ती थी।
• गम्मत गणेश इसी रिक्तता (festival gap) को भरने के लिए उभरा।
(ख) हास्य और व्यंग्य का लोक मंच
• समाजशास्त्र में कहा जाता है कि हर संस्कृति को अपने तनाव निकालने के लिए “सुरक्षा वाल्व” चाहिए।
• गम्मत गणेश उसी का रूप है: यहाँ लोग हँसी-मज़ाक, व्यंग्य, नकल, लोकगीत और नाट्यरूपांतरण करते हैं।
• यह “फोक थिएटर” की तरह है, जहाँ राजनीतिक नेताओं, गाँव की समस्याओं या सामाजिक विसंगतियों पर हँसी-मज़ाक में तीखा व्यंग्य होता है।
(ग) सामूहिकता और मेलजोल
• विसर्जन के बाद भी समाज का सामूहिक जुड़ाव बना रहे, यही इसका मुख्य उद्देश्य है।
• गम्मत गणेश में सभी वर्ग, जाति और उम्र के लोग एकत्र आते हैं।
• श्राद्ध पक्ष में धार्मिक रूप से कोई नया उत्सव नहीं, लेकिन सामाजिक जीवन ठप न हो—इसलिए गम्मत की परंपरा जीवित रही।
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3. आधुनिक भारत में गणेशोत्सव का विस्तार – प्रभाव और कारण
(क) गणेशोत्सव का विस्तार
• पहले महाराष्ट्र तक सीमित रहा, अब देशभर और प्रवासी भारतीय समुदायों तक फैल गया है।
• पुणे, मुंबई, नागपुर, सातारा जैसे शहरों से होते हुए यह आज दिल्ली, कोलकाता, बेंगलुरु, हैदराबाद और उत्तर भारत तक पहुँच गया है।
• विदेशों में—यूएसए, कनाडा, यूके, ऑस्ट्रेलिया, खाड़ी देशों में बसे भारतीय भी सामूहिक रूप से गणेशोत्सव मनाते हैं।
(ख) विस्तार के कारण
1. सांस्कृतिक एकता और पहचान – लोकमान्य तिलक की रणनीति से जन्मा उत्सव आज भी समाज को जोड़ने का काम करता है।
2. शहरीकरण – महानगरों में गणेशोत्सव ने मोहल्लों को जोड़ने वाला community festival का रूप लिया।
3. आर्थिक आयाम – मूर्तिकार, सजावटकर्मी, बैंड, मंडप, रोशनी, मिठाई आदि से बड़ा फेस्टिवल इकोनॉमी खड़ा हुआ।
4. राजनीतिक उपयोग – कई स्थानों पर स्थानीय नेता और संगठन गणेश मंडलों से जनसंपर्क बनाते हैं।
5. मीडिया और प्रवासी भारतीय – टीवी, सोशल मीडिया और एनआरआई समुदायों ने इसे ग्लोबल फेस्टिवल बना दिया है।
(ग) सामाजिक और सांस्कृतिक प्रभाव
• सकारात्मक
• सामूहिकता और समाजिक जुड़ाव को मज़बूत किया।
• कला, शिल्प और लोककला को मंच दिया।
• सामाजिक संदेश (स्वच्छता, पर्यावरण, रक्तदान) देने का मंच बना।
• नकारात्मक
• भव्यता और प्रतिस्पर्धा के कारण खर्च और दिखावा बढ़ा।
• प्लास्टर ऑफ पेरिस मूर्तियाँ और रसायनिक रंग से पर्यावरण पर गंभीर असर।
• राजनीतिक हस्तक्षेप और व्यावसायीकरण ने धार्मिक भाव की सरलता को प्रभावित किया।
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निष्कर्ष
• हडपक्या (गम्मत) गणेश महाराष्ट्र की लोकसंस्कृति का वह अनोखा अध्याय है, जिसने विसर्जन और पितृपक्ष के बीच के “फेस्टिव गैप” को हास्य और सामूहिकता से भरा।
• समाजशास्त्रीय दृष्टि से यह परंपरा एक “सांस्कृतिक सुरक्षा वाल्व” की तरह है, जो समाज के तनाव को हास्य और व्यंग्य में बदल देती है।
• वहीं दूसरी ओर, गणेशोत्सव आज भारत का सबसे बड़ा सार्वजनिक उत्सव बन गया है, जिसके पीछे सांस्कृतिक पहचान, आर्थिक गतिविधि, राजनीतिक प्रयोग और वैश्विक प्रसार जैसे कारण हैं।
• भविष्य की चुनौती यही है कि इसे व्यावसायीकरण और पर्यावरणीय संकट से बचाते हुए इसकी लोकनिष्ठा और सांस्कृतिक आत्मा को जीवित रखा जाए।