Editor-in-Chief सुभाष मिश्र की कलम से – त्योहार आया, नफरत लाया

-सुभाष मिश्र

दिवाली रोशनी, सौहाद्र्र और उत्सव का प्रतीक माना जाता है। यह वह समय है जब लोग एक-दूसरे के घर जाते हैं, मिठाइयाँ बाँटते हैं और बुराई पर अच्छाई का विजय का उत्सव मनाते हैं परंतु इस बार त्यौहार के साथ नफरत का धुआं भी घुलता दिखाई दे रहा है।
एक ओर जब देश की छोटी-बड़ी दुकानें डिजिटल प्रतिस्पर्धा के कारण बंद हो रही हैं और उनकी जगह ब्लिंकिट जैसी घर पहुँच सेवाएँ तथा डी-मार्ट जैसे सुपर बाजार ले रहे हैं, वहीं दूसरी ओर कुछ लोग धर्म और व्यापार को एक-दूसरे से जोडऩे में लगे हैं। दिवाली जैसे पावन पर्व पर कुछ तथाकथित धार्मिक संगठन और संत-साधु यह नारा दे रहे हैं कि ‘सनातनी भाई अपने पूजा-पाठ, प्रसाद, फल और मिठाई केवल सनातनी व्यापारियों से ही खरीदें, किसी जिहादी से नहीं।
यह नारा जितना हास्यास्पद है, उतना ही विभाजनकारी भी। इनका तर्क है कि जो लोग ‘सनातन में विश्वास नहीं करते, वे शुद्धता या पवित्रता का ध्यान नहीं रख सकते। वे कहते हैं कि ऐसे लोगों से भगवान की मूर्तियां भी नहीं बनवानी चाहिए, क्योंकि ‘अगर उन्हें ईश्वर बनाना है तो अल्लाह की मूर्ति बनाएं। यह तर्क न केवल धार्मिक असहिष्णुता का परिचायक है, बल्कि अज्ञान का भी प्रमाण है। इस देश में और दुनिया में बहुत से धार्मिक लोग निराकार ईश्वर में विश्वास रखते हैं—वे मूर्तिपूजक नहीं हैं। ऐसे में इस तरह की अपीलें समाज में भेदभाव को ही गहरा करती हैं।
अब सवाल यह उठता है कि क्या केवल धर्म विशेष से जुड़ा होना ही शुचिता की गारंटी है? यदि ऐसा होता तो जिन नदियों को हम माता का दर्जा देते हैं—गंगा, नर्मदा, गोदावरी—वे इतनी प्रदूषित क्यों होतीं? गंगा को साफ करने के लिए सरकार को मंत्रालय और परियोजनाएँ बनानी पड़ती हैं। अस्थि विसर्जन, मूर्ति विसर्जन और धार्मिक कचरा फेंकने से नदियां गंदी होती हैं। क्या यह किसी और धर्म के लोग कर रहे हैं? मुसलमान तो मुर्दे को दफनाते हैं, ईसाई कब्रिस्तान में अंतिम संस्कार करते हैं। फिर हमारी नदियाँ कौन गंदी कर रहा है? हम ही, जो उन्हें माता कहते हैं और रोज़ आरती करते हैं।
दूसरी ओर उपभोक्ता का संबंध धर्म से नहीं, भरोसे और सुविधा से होता है। वह वहीं से सामान खरीदेगा जहाँ उसे गुणवत्ता और उचित मूल्य मिलेगा। आज छोटे व्यापारियों की स्थिति पहले से ही कठिन है। बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ और कॉर्पोरेट श्रृंखलाएं सब्जी से लेकर साबुन तक सब कुछ घर तक पहुँचा रही हैं। ऐसे में छोटे दुकानदारों के खिलाफ धार्मिक नफरत का माहौल बनाना उन्हें और कमजोर करेगा।
त्यौहारों को हिंदू-मुस्लिम रंग देना न केवल दुर्भाग्यपूर्ण है बल्कि राष्ट्रहित के विरुद्ध भी है। हाल के दिनों में कुछ स्वयंभू शंकराचार्य, महामंडलेश्वर और साधु-संत इस तरह के बयान दे रहे हैं। कोई कहता है ‘सामग्री केवल फलाहारी से लो, कोई कहता है ‘अन्य जातियों से प्रसाद न लो।Ó यह एक चिंताजनक प्रवृत्ति है जो समाज को बाँटने की कोशिश करती है।
कांग्रेस से भाजपा में आए आचार्य प्रमोद कृष्ण जैसे कुछ लोग इस पर संतुलित दृष्टिकोण रखते हैं। उनका कहना है कि ‘जो निराकार ईश्वर में विश्वास रखता है, वही सच्चा सनातनी है। आदमी जहाँ सस्ता और अच्छा सामान पाएगा, वहीं से खरीदेगा। यह दृष्टिकोण अधिक तार्किक और भारतीयता की भावना के अनुरूप है।
हालांकि इस पूरे विवाद को लेकर राजनीति भी गरम है। विपक्ष का आरोप है कि त्योहारों के मौसम में भाजपा अपने ‘हिंदुत्व कार्ड के लिए कुछ साधु-संतों को आगे करके नफरत का बाजार गर्म करती है। भाजपा की ओर से कहा जा रहा है कि इन बयानों से पार्टी का कोई संबंध नहीं, यह सब व्यक्तियों की निजी राय है। पर जो भी हो, इससे सामाजिक वातावरण दूषित होता है। दिवाली का पर्व जो खुशियों और एकता का प्रतीक है, उसे घृणा और बहिष्कार के हथियार में बदल देना एक गंभीर सामाजिक अपराध जैसा है। यह वही पर्व है जब राम ने रावण पर विजय प्राप्त कर अयोध्या लौटे थे—यह बुराई पर अच्छाई की जीत का पर्व है। मगर आज जब हम अपने घरों का कचरा निकालकर उन्हें साफ कर रहे हैं, उसी समय हमारे मन और समाज में नफरत का कचरा डाला जा रहा है।
त्योहारों के बहाने यह ‘मानसिक कचराÓ धीरे-धीरे हमारे भीतर फैलाया जा रहा है। जो धर्म के नाम पर राजनीति का खाद बन रहा है। यह प्रवृत्ति न केवल त्योहारों की आत्मा को कलंकित करती है बल्कि समाज की जड़ों को भी खोखला करती है।
इस प्रसंग में गजानन माधव मुक्तिबोध की कविता ‘मैं तुम लोगों से दूर हूँ का एक अंश अत्यंत सटीक प्रतीत होता है—
मैं तुम लोगों से इतना दूर हूँ
तुम्हारी प्रेरणाओं से मेरी प्रेरणा इतनी भिन्न है
कि जो तुम्हारे लिए विष है, मेरे लिए अन्न है।
पूरी दुनिया साफ करने के लिए मेहतर चाहिए,
वह मेहतर मैं हो नहीं पाता,
पर रोज़ कोई भीतर चिल्लाता है—
कि कोई काम बुरा नहीं,
बशर्ते कि आदमी खरा हो।
त्योहार का सार यही है—आदमी खरा हो। दीपक केवल घरों को नहीं, मनों को भी उजाले से भर दे। पर इसके लिए पहले हमें अपने भीतर की कालिख साफ करनी होगी।

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