-सुभाष मिश्र
ये हमेशा उलझन में डालने वाला सवाल होगा कि संगठन बड़ा या उससे जुड़े व्यक्ति और सीधे शब्दों में कहें तो राजनीतिक दल बड़े हैं या फिर उसका झंडा उठाने वाला नेता। इतिहास में जब-जब कोई संगठन या दल किसी एक नाम के भरोसे होता है तब उसे हो सकता है तात्कालिक लाभ हो। लेकिन कलांतर में उसे बड़े नुकसान का सामना करना पड़ता है। इस तरह का नुकसान भाजपा झेल चुकी है जब अटल जी के रिटायरमेंट के बाद लगभग दो दशक तक पार्टी केन्द्र और कई राज्यों की सत्ता से दूर हो गई थी। हालांकि गौर से देखें तो आज भाजपा एक बार फिर पीएम मोदी के चेहरे पर पूरी तरह निर्भर नजर आ रही है। यहां तक नगरीय निकाय चुनावों में लोग मोदी की गारंटी की बात कह रहे हैं। प्रधानमंत्री मोदी ने कई बार पार्टी की तुलना मां से की थी, लेकिन आज उनका खुद का प्रमोशन इतना ज्यादा हो गया है कि भाजपा कहां गुम सी हो गई है। सिर्फ मोदी ही मोदी की बात हो रही है। अगर बारिकी से विश्लेषण करें तो अब भाजपा अटल और आडवाणी वाले दौर की कहां रह गई। आज कांग्रेस, बसपा, सपा समेत कई पार्टियों के नेता रोज भाजपा में प्रवेश कर रहे हैं तो अब विचारधारा गौण है किसी एक चेहरे के प्रति समर्पण ज्यादा महत्वपूर्ण है। हम इस चर्चा को भाजपा तक सीमित न कर पूरे राजनीतिक परिदृश्य पर नजर डालें तो कई नेता ऐसे हैं जो अपनी पार्टी के लिए सब कुछ हैं। वहां लीडरशिप का कोई समानंतर नाम नहीं है। मसलन टीएमसी यानी ममता बनर्जी, बीजेडी यानि नवीन पटनायक, जेडीयू यानि नितिश कुमार, बसपा यानि मायावती। इसी तरह आम आदमी पार्टी यानि अरविंद केजरीवाल हो गए हैं। केजरीवाल तो जेल में रहते हुए भी सत्ता का मोह नहीं छोड़ पा रहे हैं। दिल्ली जैसे पढ़े लिखे और शहरी इलाके के मतदाता खुद को ठगा हुआ महसूस कर रहे हैं, उन पर भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप हैं। इसी तरह झारखंड के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन को इसी तरह के आरोप में गिरफ्तार किया गया तो पहले उन्होंने पद से इस्तीफा दे दिया था, लेकिन केजरीवाल अपनी पार्टी के किसी दूसरे नेता पर भरोसा नहीं जता पा रहे हैं।
अगर हम व्यक्तिवादी राजनीति के इतर देखें तो ज्यादातर पार्टियां परिवारवाद की गिरफ्त में नजर आती हैं। भले ही परिवारवाद का नाम लेते ही गांधी परिवार और कांग्रेस का नाम जेहन में आता है, लेकिन कांग्रेस के अलावा आरजेडी, सपा, डीएमके जैसी पार्टियां भी आज परिवारवाद की गिरफ्त में हैं। इतिहास गवाह है कि कांग्रेस को पहले जहां व्यक्तिवादी होने यानि इंदिरा गांधी के दौर के बाद खामियाजा भुगतना पड़ा तो अब उसे परिवारवाद के चलते भी भारी नुकसान हो रहा है। पार्टी से कई बड़े नेता इसी का आरोप लगाकर किनारा कर चुके हैं।
लोकतांत्रिक व्यवस्था में राजनीतिक दलों का निर्माण वैचारिक आधार पर होता रहा है। आजादी के पहले और बाद के कुछ समय तक देश में राजनीतिक दलों की पहचान विचारधारा के आधार पर थी। परंतु आपातकाल के बाद और फिर 90 के दशक के बाद तो विचारधारा का स्थान सत्ता प्राप्ति की होड़ ने ले लिया। आज देश में विचारधारा की राजनीति हाशिए पर खड़ी है, क्योंकि सबको सत्ता चाहिए। कल तक जो विचारधारा के आधार पर एक दूसरे की आलोचना करते थे, वे कुछ ही समय के बाद एक-दूसरे के साथ खड़े दिखाई पड़ते हैं।
दरअसल, राजनीतिक दलों का आंतरिक लोकतंत्र खत्म हो चुका है। यह लोकतांत्रिक संसदीय व्यवस्था के लिए बड़ा खतरा है। क्षेत्रीय दलों में तो एक ही व्यक्ति दल का जीवनपर्यंत अध्यक्ष होता है। कुछ में चुनाव की औपचारिकता भी होती है, किंतु पुराने अध्यक्ष को दोबारा निर्विरोध निर्वाचित किया जाता है।
देश का लोकतंत्र पार्टियों के आंतरिक लोकतंत्र से प्रभावित होता है। जनता विकल्पहीनता के कारण परेशान है। व्यक्तिवाद की लोकतंत्र में कोई जगह नहीं है। तानाशाह भी दो तरह के होते हैं। एक वर्ग वैसे नेताओं का है जो राष्ट्रीय हित में अपने विचार दूसरों की परवाह किए बिना सब पर थोप देते हैं, परंतु उनका कोई निजी स्वार्थ नहीं होता। इस श्रेणी में महात्मा गांधी तथा लोकनायक जयप्रकाश नारायण जैसे नेता होते हैं। महात्मा गांधी के बारे में स्वयं जवाहरलाल नेहरू ने आत्मकथा में लिखा है कि बैठकों में गांधीजी तानाशाह की तरह व्यवहार करते थे। जेपी के बारे में भी उनके सहयोगी कहते हैं कि जयप्रकाश आंदोलन के दौरान सुनते तो थे सबकी बात, लेकिन अंतिम निर्णय उन्हीं का होता था और सेना के जनरल की तरह निर्देश देते थे। बहरहाल, आज सोशल मीडिया भी व्यक्तिवाद को बढ़ाने में बड़ा कारक साबित हो रहा है। इसके बढ़ते प्रभाव के चलते दुनियाभर की राजनीति इससे ग्रसित हो रही है।