-सुभाष मिश्र
बस्तर एक बार फिर लहूलुहान है। कांकेर जिले में हुई मुठभेड़ में बीएसएफ और डीआरजी के जवानों ने ज्वाइंट ऑपरेशन करते हुए 29 नक्सलियों को मार गिराया। इसे नक्सलियों के खिलाफ बड़ी कामयाबी की तरह देखा जा रहा है। पिछले दो दशकों से बस्तर इस तरह के कई एनकाउंटर का गवाह रहा है। कई बार हमने जवानों को खोया है तो कई बार नक्सलवाद से प्रभावित आदिवासी युवाओं के मारे जाने की खबर आती है। एक तरफ हमारा देश दुनिया में महाशक्ति बनने की राह पर आगे बढ़ रहा है तो दूसरी तरफ देश के मध्य में इस तरह का तनाव व्याप्त है। भारत में नक्सली हिंसा की शुरुआत 1967 में पश्चिम बंगाल में दार्जिलिंग जि़ले के नक्सलबाड़ी नामक गाँव से हुई और इसी वज़ह से इस उग्रपंथी आंदोलन को यह नाम मिला। ज़मींदारों द्वारा किये जा रहे छोटे किसानों के उत्पीडऩ पर अंकुश लगाने को लेकर सत्ता के खिलाफ भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के नेता चारू मजूमदार, कानू सान्याल और कन्हाई चटर्जी द्वारा शुरू किये गए इस सशस्त्र आंदोलन को नक्सलवाद का नाम दिया गया। यह आंदोलन चीन के कम्युनिस्ट नेता माओत्से तुंग की नीतियों का अनुगामी था। आंदोलनकारियों का मानना था कि भारतीय मज़दूरों और किसानों की दुर्दशा के लिए सरकारी नीतियां जिम्मेदार है।
नक्सल मामलों के जानकारों का मानना है कि बस्तर में नक्सलवाद 80 के दशक में आंध्र प्रदेश के रास्ते प्रवेश करता है। शुरुआत में इस दुर्गम इलाके को नक्सली अपने छुपने की जगह के तौर पर इस्तेमाल करते हैं। बाद में धीरे-धीरे ये नक्सली नेता यहां फैली सरकारी उपेक्षा, प्रशासनिक तानाशाही को मुद्दा बनाकर लोगों को अपने साथ कर लिया। इसके बाद बस्तर, राजनांदगांव, गरियाबंद, धमतरी जिले के कुछ हिस्सा, उत्तर में सरगुजा का बड़ा इलाका नक्सलियों का प्रभाव क्षेत्र बन गया। पिछले कुछ सालों में सुरक्षा बलों ने अपनी मौजूदगी मजबूती से दर्ज कराई है। इसके चलते बहुत बड़े इलाके में अब नक्सली हलचल खत्म हो गई है लेकिन क्या इस तरह बंदूक के दम पर इस समस्या को खत्म किया जा सकता है।
दरअसल, बस्तर में चलाए जा रहे एंटी नक्सल ऑपरेशन में अब सुरक्षा बल नक्सलियों के कोर इलाके में घुस रही है, जिसके चलते नक्सली काफी कमजोर हो गए है। बस्तर आईजी सुंदरराज पी. ने दावा किया है कि अब नक्सलियों से जो लड़ाई हो रही है वह लगभग अंतिम लड़ाई है। आईजी ने कहा कि नक्सलियों के बड़े लीडरों की मौत के बाद संगठन पूरी तरह से बिखरा हुआ है और दंडकारण्य क्षेत्र में कुछ बचे कुछे लीडर ही नक्सली संगठन को संभाल रहे हैं। सालभर में ही 10 से ज्यादा नक्सली कमांडर अलग-अलग पुलिस नक्सली मुठभेड़ में मारे गए हैं तो नक्सली संगठन में सेंट्रल कमेटी मेम्बर रहे रामकृष्ण, हरिभूषण राव जैसे नक्सली लीडरों की अलग-अलग बीमारी से मौत हो गई है जिससे संगठन कमजोर हो गया है। नक्सल मामलों के जानकारों का मानना है कि इसमें बातचीत का भी रास्ता सुझाया जा रहा है इसके जरिए नक्सल समस्या को हल करने की दिशा में गंभीर प्रयास जरूरी है, नहीं तो नक्सल नेतृत्व के द्वारा तैयार लड़ाके आपस में गैंगवार में तब्दील हो सकते हैं। सुरक्षा बलों के साथ नक्सलियों के मुठभेड़ को लेकर पहले भी सवाल उठते रहे हैं। ऐसे कई मामले अदालत तक भी पहुंचे हैं। इस बार भी एनकाउंटर के बाद सियासी बयान सामने आ रहे हैं लेकिन अभी इस मुद्दे को उस तरह छेडऩा ठीक नहीं है। आज हम विकसित राष्ट्र बनने का सपना देख रहे हैं। ऐसा दावा किया जा रहा है कि कई वैश्विक समस्य़ा या विवाद को सुलझाने में हमारी सरकार की कूटनीतिक पहल की भूमिका है। ऐसे में कम से कम रक्तपात किए इस समस्या को अगर हल कर लिया जा सकता है तो हमारी साख अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर तो बढ़ेगी ही, हमारे समाज के बेहतरी के लिए भी बड़ी बात होगी।
माओवादी हिंसा से प्रभावी ढंग से निपटने के लिए राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक क्षेत्र में सुधार करने के साथ ही इस पर नियंत्रण के लिए स्थायी तंत्र स्थापित किया जाना चाहिये। प्रभावित क्षेत्रों में आम लोगों के संरक्षण के लिये महत्वपूर्ण कदम उठाने के साथ ही शांति योजनाएं चलाने पर ध्यान दिया जाना चाहिये। साथ ही हाल ही में नक्सलियों में आ रहे बिखराव के बीच काफी सतर्कता के साथ कदम उठाने होंगे, ताकि फिर बस्तर के दामन में खून के धब्बे न पड़े।