Editor-in-Chief सुभाष मिश्र की कलम से- जाति के जाल से मुक्त नहीं होगा चुनाव

Editor-in-Chief सुभाष मिश्र

-सुभाष मिश्र

देश आम चुनाव की दहलीज पर है तमाम बड़े नेता वादों दावों की झड़ी लगाते नजर आ रहे हैं। वहीं जाति और क्षेत्रवाद का जाल भी बढ़ते जा रहा है। इस जाल से कौन से दल को कितना वोट फंसाने में कामयाबी मिलती है, ये देखने वाली बात होगी लेकिन कोशिश तो हर तरफ से हो रही है। पिछले साल हुए विधानसभा चुनावों के वक्त से ही राहुल गांधी समेत कुछ कांग्रेस के नेता ओबीसी वोट बैंक पर नजर रखते हुए इस वर्ग को लेकर कई बयान दिए। हाल ही में राहुल गांधी ने जाति जनगणना का मुद्दा उठाते हुए कहा कि नरेंद्र मोदी जन्म से ओबीसी नहीं हैं, उन्हें ओबीसी गुजरात की भाजपा सरकार ने बनाया है वह कभी पिछड़ों के हक़ और हिस्सेदारी के साथ न्याय नहीं कर सकते। इससे पहले राहुल गांधी केन्द्र सरकार में कितने ओबीसी सचिव कार्यरत होने को लेकर सवाल उठाया था। इसके जवाब में किरेन रिजिजू ने कहा कि वर्तमान में भारत सरकार में कार्यरत सचिवों के बैच ने अपनी यात्रा 1992 में शुरू की। इस अवधि के दौरान अधिकांश समय कांग्रेस पार्टी सत्ता पर काबिज रही ऐसे में इन्होंने ओबीसी प्रतिनिधित्व पर ध्यान क्यों नहीं दिया? उन्होंने कहा कि कांग्रेस के इतिहास में कोई ओबीसी प्रधानमंत्री नहीं हैं। कांग्रेस ने चरण सिंह और देवेगौड़ा जैसे ओबीसी नेताओं का विरोध किया है।
नीतीश कुमार भाजपा के साथ आने से पहले पिछले साल 2 अक्टूबर को जाति आधारित सर्वे के आंकड़े पेश किए थे। इसके बाद छत्तीसगढ़ राजस्थान समेत कुछ और राज्यों ने इस तरह की गणना कराने की बात कही थी। विधानसभा चुनाव के दौरान राहुल और प्रियंका गांधी ने कई सभाओं से इस संबंध में दावा किया था। गौरतलब है कि बीजेपी को ओबीसी समुदाय से बड़ा वोट मिलता है, देशभर में इनकी आबादी 52 प्रतिशत के आसपास अनुमानित है। इसका विरोध करने से ओबीसी समुदाय के ऐसे वोटर भी नाराज़ हो सकते हैं जो जातिगत सर्वे को लेकर तटस्थ हैं।
देश की मौजूदा राजनीतिक स्थिति 90 के दशक के शुरुआती दिनों की तरह यानी मंडल बनाम कमंडल की तरह नजऱ आ रही है। हालांकि इंडिया गठबंधन की कमर टूट गई है, लेकिन जब इसके घटक एक साथ आने की कोशिश कर रहे थे तो वहां भी जातिगत जनगणना की बात जोर पर थी। जातिगत गणना मॅहगाईऔर बेरोजगारी से भी बड़ा मुद्दा है।
ऐसा नहीं है कि जाति की बात सिर्फ कांग्रेस और कुछ स्थानीय पार्टियां ही करती हैं, बीजेपी भी इस मामले में पीछे नहीं है। भाजपा प्रधानमंत्री की भी जाति बताने की कोशिश करती है। जाति की राजनीति के लिए बीजेपी ने पसमांदा मुसलमानों के मुद्दे को उठाने की भी बहुत कोशिश की। साल 2022 में हैदराबाद और जनवरी 2023 में दिल्ली में हुई बीजेपी की दो कार्यकारिणियों में नरेंद्र मोदी ने ख़ासतौर पर पसमांदा मुसलमानों का जि़क्र किया था।
साल 2023 में जहां विपक्ष की ओर से जाति कार्ड खेलने की भरसक कोशिश हुई इस कार्ड के जरिए भाजपा के ओबीसी वोटबैंक पर सेंधमारी की। ये कोशिश 2024 के शुरुआत में कमजोर नजर आने लगी। जब इंडिया के घटक आपस में टकरा गए। जब नीतीश कुमार एक बार फिर एनडीए के घोड़े पर सवार हो गए और रही सही कसर केन्द्र सरकार ने भारत रत्न सम्मान के जरिए भी पूरा कर दिया है। इसी कड़ी में सबसे पहले बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री कपूर्री ठाकुर का नाम शामिल है। माना जाता है कि इससे भाजपा ने बड़ा दांव चला है फिर चौधरी चरण सिंह को सम्मानित कर जाट और किसानों को साधने की कोशिश हुई है। किसान आंदोलन के बाद नाराज जाट समाज फिर भाजपा की ओर झुक सकता है। हरियाणा के खाप नेताओं ने चौधरी चरण सिंह को भारत रत्न देने की घोषणा का स्वागत किया है। चुनावी साल में चौधरी चरण सिंह को भारत रत्न दिए जाने के गहरे राजनीति मायने हैं। पश्चिमी उत्तर प्रदेश के हापुड़ से आने वाले चौधरी चरण सिंह को जाट समाज के सर्वमान्य नेता के रूप में मान्यता मिली है। पश्चिमी यूपी के साथ-साथ हरियाणा, पंजाब, दिल्ली और राजस्थान के जाट समाज के लोग उनसे भावनात्मक रूप से जुड़े हैं।
2014 के चुनाव में भाजपा को जाट मतदाताओं का खासा वोट मिला था लेकिन मोदी सरकार के दूसरे कार्यकाल में तीन कृषि कानूनों को लाने के बाद से केंद्र और राज्य सरकार जाट समाज व किसानों की नाराजगी झेल रही है। वर्तमान में भी हरियाणा और पंजाब के किसान एमएसपी को लेकर कानून बनाने समेत 12 मांगों को लेकर आंदोलित हैं। कहीं न कहीं चौधरी चरण सिंह को मिले से सम्मान के बाद सरकार प्रति इनके रुख में बदलाव आ सकता है। इसी तरह पूर्व प्रधानमंत्री पीवी नरसिम्हा राव को सम्मानित कर जहां दक्षिण के राज्य को साधने की कोशिश हुई है वहीं कांग्रेस को परिवारवाद के नाम पर घेरने की कोशिश हुई है।
दरअसल, भारतीय समाज का तानाबाना जाति आधारित है इसलिए आज हम भले ही चांद के दक्षिण ध्रुव पर पहुंचने के मामले में नंबर वन हों, आर्थिक मोर्चे पर हम कहां पहुंच गए कहां पहुंचने के लिए संघर्ष कर रहे हैं ये चुनाव में उतना मायने नहीं रखता जितना जातिगत और स्थानीय समीकरण करते हैं। हरम आने वाले सालों में देश को विकसित राष्ट्र के तौर पर स्थापित करना चाहते हैं लेकिन अभी भी हम जातिगत ताने-बाने में जकड़े हुए हैं ये विरोधाभास न जाने कब खत्म होगा।
हमारे कई नशे हैं भ्रम का नशा, संप्रदाय का जाति का नशा और सबसे बड़ा नशा अपने आप को पवित्र मानने का। नागरिक संशोधन अधिनियम की अधिसूचना चुनाव के पहले जारी हो जाएगी। यह किसी भारतीय की नागरिकता छिनने के लिए नहीं है। धर्मनिरपेक्ष देश में धर्म आधारित नागरिक संहिता नहीं हो सकती।

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