Editor-in-Chief सुभाष मिश्र की कलम से – चुनाव : मुद्दों पर मैनेजमेंट भारी !

Editor-in-Chief सुभाष मिश्र
 -सुभाष मिश्र

लोकतंत्र में पांच साल के अंतराल में जनता की बारी आती है और वो अपने अधिकार का उपयोग कर किसी को सत्ता के शीर्ष पर बैठाती है तो किसी को वहां से नीचे गिरा देती है। कई मिले जुले कारकों से मिलकर आता है जनादेश। पिछले कुछ सालों में इन कारकों को अपने पक्ष में करने के लिए राजनीतिक दल कई तरह के उद्यम रच रहे हैं। वे पार्टी के हार्डकोर कार्यकर्ताओं से ज्यादा पॉलटिकल मैनेजमेंट कंपनियों पर निर्भर होते जा रहे हैं। अब इन कंपनियों के एक्जिक्यूटिव और पॉलटिकल इंटिलेंजेस के लोग नरेटिव सेट कर पार्टी कार्यकर्ताओं और वॉर रूम में बैठे डिजिटल मीडिया संभाल रहे लोगों को देते हैं और इन्हीं नरेटिव के इर्दगिर्द चुनाव लड़ा जाता है।  आज घोषणा पत्र बनाने से लेकर भाषण लिखने तक का सारा काम इन्हीं एजेंसियों द्वारा किया जा रहा है। कहां किस मुद्दे को उठाना है, विरोधी नेता के किस बात का जवाब देना है, ये सब कुछ आज नेताओं को पका पकाया मिल रहा है। इसके लिए रिसर्च करने वालों की, स्थानीय मामलों के जानकारों की मीडिया कॉर्डिनेट करने वालों की पूरी टीम तैयार है। इन बातों का सार ये है कि चुनाव में धनबल की महत्ता बढ़ रही है, क्योंकि इतना तामझाम कोई आम राजनेता नहीं उठा सकता। इसके कारण कई बार सादगी पंसद कई नेता चुनावी मैदान में पिछड़ जाते हैं। क्योंकि वे आधुनिक तरिकों से उतने कम्फर्टेबल नहीं हो पाए हैं। वे आज भी मीडिया के पारंपरिक तरीकों को ही जानते हैं।  चुनाव और राजनीति में आए बड़े बदलाव का एक कारण ये भी है कि आज के इस दौर में निस्वार्थ कार्यकर्ताओं की कमी। आज के तेज रफ्तार से चल रही लाइफ स्टाइल के चलते पूर्ण कालिक समर्पित कार्यकर्ताओं की कमी है। ज्यादातर नेता स्वार्थी और चमचों से घिरे हुए हैं। इसके चलते भी चुनाव के वक्त प्रत्याशियों और पार्टियों को पॉलटिकल मैनेजमेंट कंपनियों का सहारा लेना पड़ता है।  चुनाव के बाद एक्जिट पोल जारी करने का चलन भी पिछले कुछ सालों में बढ़ा है। गुरुवार को छत्तीसगढ़-मध्यप्रदेश समेत देश के 5 राज्यों में हो रहे चुनाव के नतीजों को लेकर अलग-अलग कई आंकलन पेश किए गए। इनमें से किस आंकलन में दम है। ये तो वक्तही बताएगा। इसी आंकलन पर एक वीडियो वायरल हो रहा है जिसमें एक अग्रणी राष्ट्रीय न्यूज चैनल के संपादक और सर्वे करने वाली कंपनी के सीईओ के बीच बातचीत में इन आंकलन को लेकर सवाल खड़े किए जा रहे हैं।  आकलन की अपनी सीमा होती है वो सच और कल्पना को कितना करीब ला सकते हैं यही उनकी बाजीगिरी होती है। पहले भी कई बार ये फेल हो चुके हैं। लेकिन आज बाजारवाद के दौर में इनकी अपनी अहमियत बन गई है।  चुनाव अब कार्यकर्ताओं की सलाह और सिफारिशों की जगह चुनावी मनोविज्ञान को समझने वाली एजेंसियों और विशेषज्ञों की राय-मशविरे से लड़ा जाना लगा है। ऐसे में जमीन से जुड़े कार्यकर्ता अप्रसांगिक होकर गौण हो गए और प्रशांत किशोर और सुनील कानूगोलु जैसे चुनावी रणनीतिकार महत्वपूर्ण भूमिका में आ गए। हाल यह है कि राजनीतिक दल नींव को छोड़ कंगूरे पर भरोसा करने लगे हैं। ये राजनीतिक रणनीतिकार चुनावी चर्चा के उत्तम हिस्से हो गए हैं। यही कारण है कि जनता के साथ सुख-दुख का साथी कार्यकर्ता और नेता हाशिए पर ढकेल दिए गए। चुनाव के समय पार्टियां अपने-अपने वार रूम बनाती हैं, उस समय दलों के धरती पुत्रों की जगह वर्चुअल दुनिया से वास्ता रखने वाले लोग वार के रूम के योद्धा होते हैं। यदि हम छत्तीसगढ़ की बात करें तो भाजपा की पूरी रणनीति बाहर से आए विशेषज्ञों के हवाले थी। यही हाल कांग्रेस का भी रहा। दोनों ने एनालिस्ट द्वारा उपलब्ध कराए गए डेटा और अनुशंसा के आधार पर टिकटों का वितरण किया। कहने को तो कांग्रेस ने ब्लाक स्तर से लेकर जिले स्तर तक के चुनाव लडऩे के इच्छुक कार्यकर्ताओं और नेताओं से आवेदन मंगाकर अनुशंसा की, लेकिन बाद में सर्वे के आधार पर नए नामों पर विचार किया गया।  इस चुनावी रणनीतिकारों और विशेषज्ञों की भूमिका का अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि भाजपा और कांग्रेस नामांकन की तिथि तक उम्मीदवार तय करने के मामले में दुविधा में रहे। दोनों ही दलों को घोषित प्रत्याशियों में बदलाव तक करना पड़ा। कई जगह तो वर्तमान विधायक को टिकट देना पार्टी का भारी पड़ता दिख रहा है। चुनावी एग्जिट पोल या विश्लेषण की बात करें तो टीवी पर 1994-95 में प्रणव राय, विनोद दुआ जैसे विश्वसनीय पत्रकार इसका विश्लेषण करते थे और उनका आंकलन सटिक हुआ करता था। 2003 में एवीपी का सर्वे सबसे सटिक रहा। मगर 2009 आते-आते परिस्थितियां बदल गईं। 2010 में यही एग्जिट पोल और सर्वे मेनुपुलेशन यानी राजनीतिक दलों की इच्छा के आधार पर आंकड़ों में फेरबदल और संशोधन किए जाने लगे। इसके साथ ही एग्जिट पोल और सर्वे की विश्वसनीयता गिरने लगी।  इस बार चुनाव में भाजपा और कांग्रेस समेत सभी दलों ने जमकर रेवडिय़ां बांटी। चाहे किसानों की कर्जमाफी हो या लाडली बहना योजना या फिर महतारी बंदन के बहाने महिलाओं को 12 हजार सलाना देने की बात हो या पीजी तक मुफ्त शिक्षा का झुनझूना सभी देने की बात कही हो, लेकिन किसी ने यह नहीं बताया कि इसके लिए पैसा कहां से आएगा? सरकार किस हद तक कर्ज लेगी। इस रेवड़ी वितरण का असर भी दिखा। सभी ने अपने-अपने हित पूर्ति के आधार पर मतदान किया।  इस चुनाव में अलग-अलग क्षेत्रों में अलग-अलग फैक्टर ने काम किया। इसी आधार वोटिंग का भी ट्रेंड रहा। आज राजनीतिक दल और उनके रणनीतिकार दावे भले ही कर लें, लेकिन सटिक जानकारी किसी के पास नहीं है।

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