:राजकुमार मल:
भाटापारा- नाम नहीं, नंबर से होती है पहचान काम और गुणवत्ता की, और तय होते हैं दाम। कड़ी प्रतिस्पर्धा के बीच कुछ ऐसे नंबर हैं, जिनके दम पर शहर का पोहा देश में धाक जमा चुका है।
बेहद दिलचस्प है पोहा की पहचान नंबरों से होना। ब्रांडिंग जैसे तौर-तरीकों के प्रचलन के बीच पोहा उत्पादन करने वाली ईकाइयों की यह कोशिश न केवल सफल हो चुकी है बल्कि उपभोक्ता राज्यों में उच्च गुणवत्ता की पहचान बन चुकी है। नंबरों की पहचान का फैलाव अब समूचे देश में विस्तार ले चुका है।

दिलचस्प यह चार
उपभोक्ताओं के बीच भले ही पेपर पोहा के नाम से जाना जाता है लेकिन अंतरप्रांतीय सौदे में इसकी पहचान ‘सवा नंबर’ के नाम से होती है। ‘एक चालीस’ को लगभग बराबरी का दर्जा मिलता है कीमत के मामले में लेकिन आम पहचान आलू पोहा के रूप में है। ‘एक पचास’ यानी डेढ़ नंबर के पोहा को कारोबारी भाषा में मुंबईया पोहा कहा जाता है। ‘दगड़ी’ इस समय चौतरफा मांग में है क्योंकि मिक्चर बनाने वाली ईकाइयों की खरीदी निकली हुई है।

यह राज्य, यह नंबर
आंध्र प्रदेश, पेपर पोहा वाला यानी सवा नंबर का सबसे बड़ा उपभोक्ता राज्य है। कर्नाटक और तेलंगाना की भी मांग रहती है। एक- चालीस नंबर का पोहा महाराष्ट्र और बिहार में खूब पसंद किया जाता है। एक- पचास याने डेढ़ नंबर का पोहा मुंबई के उपभोक्ताओं के बीच सुबह का नाश्ता माना जा चुका है। चौथे को दगड़ी के नाम से मिक्चर बनाने वाली ईकाइयां खरीदी करती हैं। सीजन है इसलिए मांग और कीमत तेज है।

क्वालिटी पर कड़ी नजर
पोहा की गुणवत्ता बनाए रखने के लिए ईकाइयां धान की खरीदी से लेकर उत्पादन के हर चरण पर कड़ी नजर रखीं हुईं हैं। समय-समय पर अपने स्तर पर तैयार पोहा की गुणवत्ता की जांच भी करवातीं हैं। उपभोक्ता राज्यों से खानपान की शैली व बदलाव को लेकर फीडबैक भी लेने लगीं हैं ताकि रुचि के अनुसार आवश्यक बदलाव किए जा सकें।
पोहा की मोटाई जानी जाती है नंबरों से लेकिन कुछ अलग हटकर
करने की सोच थी, इसलिए नंबर को ही पहचान बनाया गुणवत्ता का। इसे बनाए रखेंगे।
:रंजीत दावानी, अध्यक्ष, पोहा मुरमुरा निर्माता कल्याण समिति, भाटापारा: