Bhatapara news- ‘केर’ 800 से 1200 रुपए किलो

मिला जी आई टैग, और बढ़ेगी कीमत

राजकुमार मल

भाटापारा

सिर्फ 20 फ़ीसदी फसल। रिकॉर्ड 800 से 1200 रुपए किलो। ऑनलाइन शॉपिंग प्लेटफार्म पर 2000 से 2500 रुपए किलो। राजस्थान की यह बेहद लोकप्रिय सब्जी और भी महंगी हो सकती क्योंकि संरक्षण व संवर्धन की दिशा में ध्यान नहीं देने से इसकी झाड़ियां खत्म होने लगीं हैं।

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अत्यधिक सूखा सहिष्णु और बेहद कठोर परिस्थितियों में ही बढ़वार लेने वाला ‘केर’ अब समाप्ति की राह पर है क्योंकि संरक्षण व संवर्धन की दिशा में काम नहीं किया जा रहा है। यह तब, जब इसे जी आई टैग मिल चुका है। इसलिए वानिकी वैज्ञानिकों ने केर पर अनुसंधान की जरूरत बताई है।

अत्यधिक सूखा सहिष्णु

किरड़ और किराटा के नाम से पहचानी जाने वाली केर की झाड़ियां कांटेदार होती हैं। शुष्क और अर्धशुष्क क्षेत्र में मिलने वाली यह प्रजाति अत्यधिक सूखा सहिष्णु होती है। बेहद कठोर परिस्थितियों में यह प्रजाति जोरदार बढ़वार लेती है। सिर्फ 2 से 5 मीटर ऊंची केर की झाड़ियों में गहरा लाल या गुलाबी रंग के फूल मार्च से मई के महीनों में लगते हैं। फल गहरा हरा और काला होता है। उपयोग सब्जी और अचार बनाने में होता है। प्रारंभिक अनुसंधान में इसे भूमि सुधार में मददगार पाया गया है।

इसलिए संरक्षण और संवर्धन

बंजर और क्षारीय भूमि में भी तैयार होती है यह प्रजाति। अहमियत इससे ही जानी जा सकती है कि केर की गहरी जड़ें नमी बनाए रखती हैं, जिससे यह भूमि सुधार में सहायक होती हैं। यही वजह है कि यह पर्यावरण में संतुलन बनाए रखता है। खाद्य उपयोग के क्षेत्र में फल की पहचान विदेश तक में है। पत्तियों और टहनियों को पशुओं के लिए अच्छा आहार माना गया है। विशेष रूप से सूखे मौसम के दिनों में। कृषि के क्षेत्र में इसकी अनिवार्यता इसलिए समझी जाती है क्योंकि बाड़ के लिए इसकी टहनियों के कांटे खूब मदद करते हैं।

मिला जी आई टैग

राजस्थान के पारंपरिक व्यंजनों में से अहम केर को जी आई टैग मिला है। यह राजस्थान की सांस्कृतिक और खाद्य विरासत के लिए महत्वपूर्ण उपलब्धि है। जी आई टैग न केवल इसकी विशेषता को संरक्षित करता है बल्कि नकली व घटिया उत्पादन से बचाव भी करता है। इसके अलावा केर किसानों और कारीगरों को आर्थिक रूप से और भी अधिक मजबूत बनाने मदद मिलेगी क्योंकि जी आई टैग मिलने के बाद राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय बाजार में मांग और कीमत बढ़ने की संभावना है।

शोध और संरक्षण की जरूरत

केर जैसी पारंपरिक और स्थानीय रूप से अनुकूल प्रजातियाँ जलवायु परिवर्तन के इस दौर में अत्यंत महत्वपूर्ण हो जाती हैं। इसकी सूखा सहिष्णुता, मृदा संरक्षण क्षमता और बहुपयोगी स्वरूप इसे वन-आधारित आजीविका और कृषि-वानिकी में एक संभावनाशील प्रजाति बनाते हैं। यह आवश्यक है कि हम इसके संरक्षण, संग्रहण और क्षेत्र आधारित अनुसंधान की दिशा में ठोस कदम उठाएं। इसके लिए ‘कम्युनिटी बेस्ड कंजर्वेशन’ और ‘इन-सीटू संरक्षण’ मॉडल अपनाए जा सकते हैं, जिससे स्थानीय समुदायों को भी प्रत्यक्ष लाभ मिल सके।
अजीत विलियम्स, साइंटिस्ट (फॉरेस्ट्री), बीटीसी कॉलेज ऑफ़ एग्रीकल्चर एंड रिसर्च स्टेशन, बिलासपुर

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