– डॉ. सुधीर सक्सेना
ग्रेट निकोबार में अलार्म लगातार घनघना रहा है। खतरे की घंटी लगातार बज रही है। मगर उसकी आवाज को लगातार अनसुना किया जा रहा है। घड़ी की सुइयां तेजी से घूम रही हैं और फैसले-दर-फैसले भयावह आपदा का सामान जुटा रहे हैं। पर्यावरणविद् सचेत हैं और वे भी जो प्रकृति और आदिवासियों से प्रेम और उनकी परवाह करते हैं। विभिन्न मंचों से उन्होंने अपनी चिंताओं का इजहार भी किया है। उद्विगन जनों ने नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल में भी दस्तक दी है, मगर बात बनती नहीं दीखती और अनिष्ट की आशंका बढ़ती जा रही है।
नृतत्त्व शास्त्रीय, पारिस्थितिकी और पर्यावरणीय संदर्भों को छोड़ भी दें तो भौगोलिक दृष्टि से भी हम ग्रेट निकोबार के बारे में कम जानते हैं। ग्रेट निकोबार अंडमान और निकोबार समूह का सबसे दक्षिणी और सुदूरवर्ती द्वीप है। पारिस्थितिकी के मान से अत्यंत समृद्ध यह द्वीप यूनेस्को बायोस्फीयर रिजर्व है। यहां प्राचीनतम, दुर्लभ और अछूते वर्षावन की समृद्ध विरासत विद्यमान है। द्वीप का भू-राजनीतिक और सामरिक महत्व भी निर्विवाद है। यहां विलुप्तप्राय शोम्पेन जनजाति निवास करती है। त्सुनामी के बाद जिसके कुल लगभग ढाई सौ सदस्य बचे हैं। द्वीप के दक्षिण-पूर्वी तट पर स्थित है भारत के सबसे दक्षिणी छोर का इंदिरा पाइंट और निकट ही है गलाथिया खाड़ी, जो बंगाल की खाड़ी में प्रवेश कर मुलायम चांदी जैसी रेत का विहंगम दृश्य रचती है। यहीं समुद्र के सबसे विशाल लेदरबैक कछुओं के करीब पांच सौ प्रजनन स्थल हैं। लेदरबैक कच्छप इन आवासों में ऋतु में आते हैा और प्रजनन के उपरांत कुछ आस्ट्रेलिया, तो कुछ अफ्रीकी तटों की ओर निकल जाते हैं। यहां प्रवाल भी हैं और मैंग्रोव भी। यह प्रवासी पक्षियों का प्रिय स्थल है। जनजातीय और नृतत्वशास्त्रीय अध्ययन के लिये यह महत्त्वपूर्ण और कीमती पाठशाला है। जैव-विविधता की तो बात ही क्या!
मगर यह विलक्षण लोक अब खतरे में है। ग्रेट निकोबार द्वीप संकटापन्न है। विवेकहीनता और अदूरदर्शिता की कोख से उपजी योजनाएं उसे निगल सकती हैं। वजह यह कि पर्यावरण, वन एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय ने नवंबर, सन 2022 में एक विराट इंफ्रास्ट्रक्चर परियोजना को पर्यावरणीय मंजूरी प्रदान की है। इसके लिए उसने द्वीप के समग्र विकास की लुभावनी शब्दावली इस्तेमाल की है। इस अधोसंरचना प्रोजेक्ट पर 72000 करोड़ रूपयों की लागत आयेगी। इससे करीब तीन दशकों में ग्रेट निकोबार का हुलिया बदल जाएगा। गौरतलब है कि यह भूकंप के लिहाज से उच्च संवेदी और अति जोखिम का क्षेत्र भी है।
सरकार की महत्वाकांक्षी परियोजना की बात करें तो समग्र विकास के कथित संजाल में 40,000 करोड़ रूपयों की लागत से ट्रांसशिपमेंट पत्तन (पोर्ट) बनेगा, जिसमें एक अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डा, एक विद्युत संयंत्र और एक ग्रीन फील्ड टाउनशिप शामिल होगी। यह टाउनशिप सघन वन क्षेत्र में 130 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में जंगल को उजाड़कर बसाई जायेगी। मोटे तौर पर बस्ती बसाने के लिए दस लाख पेड़ काटे जाएंगे। यही नहीं इस अत्यंत विरल आबादी के क्षेत्र में, जहां की मौजूदा आबादी करीब आठ हजार है, तीन दहाइयों में जनसंख्या बढ़कर साढ़े तीन लाख हो जायेगी। यह जनसांख्यकीय परिवर्तन मुख्यत: विजातीय बहिरागतों के आगमन से होगा। सिर्फ कल्पना की जा सकती है कि आबादी में 4000 फीसद की वृद्धि, लोहे और कांक्रीट की इमारतें और बड़े पैमाने पर निर्वनीकरण शांत-सुरम्य निरापद द्वीप पर क्या गुल खिलायेंगे?
ग्रेट निकोबार दिसंबर, 2004 में भूकंप और त्सुनामी के अकल्पनीय प्रकोप का सामना कर चुका है। छोटे-मोटे भूकंप उसकी नियति है। बंदरगाह के निर्माण को सुकर बनाने के वास्ते राष्रीउ य वन्यजीव बोर्ड ने अभयारण्य गैर अधिसूचित कर दिया है। खतरे की सघनता को इससे आंकें कि बीती दहाई में द्वीपों ने 444 भूकंपों का सामना किया है। आईसीटीटी, हवाई अड्डा, टाउनशिप, बिजली संयंत्र के लिए 16610 हेक्टर और बंदरगाह व हवाई अड्डे के पुनर्ग्रहण के लिए 421 हेक्टर भूमि की जरूरत होगी। सन 2004 के भूकंप में ग्रेट निकोबार की तटरेखा करीब 4.5 मीटर धँस गयी थी और इंदिरा पाइंट का लाइटहाउस आज भी पानी में है। बीते दशक में यहां भूकंपों की आवृत्ति बढ़ी है, लेकिन इसे इग्नोर किया जा रहा है। पहले यहां साल में 10-11 माह बारिश होती थी, अब वह घटकर पांच से आठ माह रह गयी है। बिलाशक हम जीवन की प्राकृतिक प्रयोगशालाओं को क्षति पहुंचाते जा रहे हैं।