2 अक्टूबर पर विशेष
-सुभाष मिश्र
मेरे बहुत से मिलने जुलने , व्हाटअप यूनिवर्सिटी के ज्ञान से लबरेज़ और गांधी फ़िल्म के बाद लोग गांधी को ज़्यादा जानने लगे की सोच रखने वाले शायद ही जान पायेंगे की मोहन चंद गांधी कब महात्मा बन गये , कब बापू बन गये और कब लोग उन्हें राष्ट्रपिता कहने लगे । हम आज ज़ोर शोर से 2047 का विकसित भारत बनाने की बात कर रहे हैं पर क्या ये स्वतंत्र भारत गांधी जी की कल्पना का भारत हैं । गांधी का कहना था की “
स्वतंत्रता का इतना ही अर्थ है कि हम किसी से भी न डरकर जो हमारे दिल में हो वही कह सकें और वही कर सकें। जो लोग स्वतंत्रता की अपेक्षा सुरक्षा को अधिक पसंद करते हैं, उन्हें जीने का कोई अधिकार नहीं।”
बहुत सारे लोग पाकिस्तान बनाने के लिए गांधी जी को पानी पी पीकर कोसते हैं । कुछ लोग उन्हें शहीद भगतसिंह की शहादत तो कोई नेताजी सुभाष चन्द्र बोस से उनकी विचार भिन्नता या कोई सरदार पटेल से जवाहरलाल नेहरू से ज़्यादा महत्व देने की बात करते हैं । संदर्भवश कुछ प्रसंग हैं जिन्हें भी पढ़ा जाना चाहिए ।
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एक प्रसंग है 18 अगस्त 1945 को गांधीजी, अमेरिकी पत्रकार लुई फिशर के साथ बैठे हुए हैं। इतने में अचानक एक खबर आती है कि सुभाष बाबू का विमान क्रेश हो गया है। गांधीजी अचानक विचलित हो उठते हैं और वे अपने सहयोगियों से बार बार इस खबर की पुष्टि के बारे में पूछते हैं। मौलाना से पूछो खबर सही है या गलत, सरदार को फोन लगाकर पूछो क्या खबर है। लुई फिशर से सब देखकर हैरान हो जाते हैं। फिशर, गांधीजी से कहते हैं कि आप इतना विचलित क्यों हो रहे हैं बापू? सुभाष बाबू आपकी धारा के आदमी नहीं हैं, वे आपका विरोध करते हैं और जर्मनी के नाजी हिटलर से हाथ मिला चुके हैं। आप क्यों व्यर्थ में इतना दुखी हो रहे हैं? गांधीजी ने फिशर को पलट कर जवाब दिया कि मि. फिशर, सुभाष बाबू जैसा कोई दूसरा देशभक्त मुझे लाक़र दिखाओ।
महात्मा गांधी जी को चंपारण आंदोलन के बाद बापू के नाम से सम्बोधित किया जाने लगा था वहीं नेता जी सुभाष चन्द्र बोस ने अंग्रेजो के खिलाफ लड़ाई के लिए महात्मा गांधी जी को राष्ट्रपिता के रूप में सम्बोधित आशीर्वाद मांगा था ! नेता जी ने सिंगापुर से रेडियो पर सम्बोधित करते हुए कहा था
“हम अपनी कोशिशों की बदौलत अगर स्वतंत्रता हासिल करते हैं तो हमसे ज्यादा खुश कोई नहीं होगा । ब्रिटिश सरकार पर आपके भारत छोड़ो आंदोलन का जबरदस्त असर पड़ा है । हम इस धारणा पर आगे बढ़ रहे हैं कि बिना संघर्ष के दोनों मे से कोई भी कार्य संभव नहीं था ।
भारत की मुक्ति के लिए इस पवित्र युद्ध में हमारे राष्ट्रपिता, हम आपका आशीर्वाद और शुभकामनाएं मांगते हैं ।”
– सुभाषचंद्र बोस, आजाद हिंद रेडियो, सिंगापुर,
गांधी दर्शन किताब में गांधी प्रतिष्ठान के अध्यक्ष कुमार प्रशांत लिखते हैं गांधीजी हर व्यक्ति के साथ अपना जुड़ाव महसूस करते थे। उनमें गजब का लचीलापन था। पर एक जगह पर आकर वे कठोर भी थे, जहां पर कोई उसकी आस्था और बदलने की कोशिश करे। इसीलिए आस्था और मूल्यों को बदलने के मुद्दे पर गांधी पहाड़ की तरह अडिग दिखाई देते थे।
गांधीजी लोगों से केवल इस प्रकार व्यवहार नहीं करते थे कि वे किसी समुदाय के सदस्य हैं, बल्कि उनके साथ काम करने वालों का यह कहना है कि वे हर किसी से एक व्यक्ति के रूप में रिश्ता कायम करते थे। हर व्यक्ति अलग है, उसकी जरूरतें अलग अलग हैं और वे उन जरूरतों का ख्याल रखते हुए उसकी उपयोगिता को समझते थे। अपने खुद के आग्रहों को छोड़ते हुए वे आश्रम में रहने आये बहुत से लोगों से कहते थे कि तुम यह करो हालांकि आश्रम का नियम यह है और आश्रम वाले इस बात को कभी नहीं समझेंगे लेकिन तुम अपना ख्याल छोड़ना मत। व्यक्ति को बुनियाद मानने की उनकी यह सोच गांधी के चिंतन की भी बुनियाद है।
एक प्रसंग बड़ा रोचक है 11 जनवरी 1948 को दिल्ली के कुछ अल्पसंख्यक समुदाय के लोग गांधीजी से मिलने बिड़ला हाउस पहुंचते हैं। दिल्ली में हिंसा का तांडव चल रहा था ऐसे माहौल में अल्पसंख्यक प्रतिनिधिमंडल ने गांधीजी से कहा कि महात्मा जी हमने आप पर बहुत भरोसा करके देख लिया, लेकिन अब बहुत हो चुका। अब हम ऐसे असुरक्षा के माहौल में भारत में नहीं रह सकते । आपसे हाथ जोड़कर विनती है कि आप हमारा सुरक्षित रूप से पाकिस्तान जाने का इंतजाम करवा दीजिए। गांधीजी एकदम चुप रहते हैं एक शब्द भी नहीं बोलते । लेकिन उनके दिल को बड़ा धक्का लगता है।
हिंसाग्रस्त दिल्ली में गांधीजी 13 जनवरी से 18 जनवरी 1948 तक अपने जीवन के आखिरी अनशन पर बैठते हैं। उपवास के तीसरे दिन गांधीजी सरदार पटेल को दिल्ली की बिगड़ती हुई कानून व्यवस्था पर फटकार लगाते हुए कहते हैं कि तुम वो सरदार नहीं हो जिनसे मैं खेड़ा सत्याग्रह में मिला था, तुम बदल गए हो। 18 जनवरी को सभी दलों के नेता डॉ राजेन्द्र प्रसाद के नेतृत्व में उन्हें लिखित में वचन देते हैं कि दिल्ली में अब शांति हो चुकी है। आप अपना अनशन खत्म कर दीजिए। आपका जिंदा रहना बहुत जरूरी है। अब हम सभी भाई भाई की तरह शांति से रहेंगे।
19 जनवरी को वे मुसलमान नेता गांधीजी के पास फिर से बिड़ला हाउस आते हैं और वे नेता कुछ बोलें इससे पहले गांधीजी उनसे कहते हैं कि मैंने नेहरू और माउन्टबेटन से कहकर तुम लोगों के सुरक्षित पाकिस्तान पहुंचाने का इंतजाम कर दिया है। जल्दी बताओ किस तारीख को जाना है? मुसलमान नेता गांधीजी से कहते हैं कि महात्मा जी आपके अनशन से दिल्ली में शांति हो चुकी है, हम एकदम सुरक्षित हैं। अब हम भारत में ही रहेंगे। गांधीजी ने उनसे कहा कि उस दिन मैंने तुमसे एक शब्द भी नहीं बोला था , चुपचाप तुम्हारी बातें सुनता रहा, आज मेरी बारी है। इस बुड्ढे की एक बात हमेशा के लिए गांठ बांध लेना कि मुसीबत के समय देश छोड़ने वालों को देश कभी माफ नहीं करता।
अपनी आत्मकथा में मार्टिन लूथर किंग जूनियर ने लिखा है—
“ज्यादातर लोगों की तरह मैंने भी गांधी के बारे में सुना जरूर था, लेकिन उन्हें गंभीरता से पढ़ा नहीं था। जैसे-जैसे मैं उन्हें पढ़ता गया, वैसे-वैसे उनके अहिंसक प्रतिरोध के अभियानों के प्रति मैं अत्यधिक मंत्रमुग्ध सा होता गया।
…खासतौर पर मैं समुद्र तक उनके नमक मार्च (दांडी मार्च) और उनके अनगिनत उपवासों से बहुत अधिक प्रेरित हुआ।
…सत्याग्रह की पूरी अवधारणा ही मेरे लिए बहुत मायने रखती थी। इसमें “सत्य” का मतलब है प्रेम और “आग्रह” का अर्थ है बल। इस तरह सत्याग्रह का अर्थ है सत्य का बल या प्रेम का बल।
…जैसे-जैसे मैं गांधी के दर्शन में गहरे उतरता गया, प्रेम की शक्ति के बारे में मेरे संदेह भी धीरे-धीरे छंटते गए। और पहली बार सामाजिक सुधार के क्षेत्र में इसकी ताकत मुझे देखने में आई।”
…गांधी को पढ़ने से पहले मैं लगभग इस निष्कर्ष पर पर पहुंच चुका था कि ईसा मसीह द्वारा बताई गई प्रेम की नीति केवल व्यक्तिगत संबंधों में ही प्रभावी हो सकती है, सामाजिक संबंधों में नहीं।
22 मार्च, 1959 को मांटगोमरी में खासतौर पर गांधी के ऊपर अपने प्रवचन में किंग जूनियर ने कहा था—
“…दुनिया गांधी जैसे लोगों को पसंद नहीं करती। कितना आश्चर्य है, नहीं? वे ईसा मसीह जैसे लोगों को भी पसंद नहीं करते। वे लिंकन जैसे लोगों को भी पसंद नहीं करते। उन्होंने गांधी को मार डाला- उस आदमी को जिसने भारत के लिए सब कुछ किया। …और अब्राहम लिंकन भी तो एकदम उन्हीं कारणों से मार डाले गए जिन कारणों से गांधी को गोली मारी गई।”
गांधीजी और चार्ली चैपलिन के मिलने की कहानी
ये बात 22 सितम्बर 1931 की है जब गांधीजी गोलेमज वार्ता में शरीक होने के लिए लंदन गए थे. हालाँकि ये वार्ता तो सफ़ल नहीं हो पाई लेकिन गांधीजी अंग्रजों का दिल जीतने में सफ़ल रहे. चार्ली चैपलिन भी अपनी फिल्म ‘सिटी लाइट्स’ के प्रमोशन के लिए लंदन में ही थे, और राजनीतिक पार्टियों और चर्चाओं में भाग ले रहे थे. तब उन्हें किसी ने सुझाया कि उन्हें गांधीजी से मिलना चाहिए।
उन्हें गांधीजी से मिलने के लिए 22 सितंबर 1931 का वक्त दिया गया. इस दिन गांधीजी कैनिंग टाउन में डॉक्टर चुन्नीलाल कटियाल के यहाँ जाने वाले थे।
चैपलिन ने अपनी आत्मकथा में लिखा है कि वे गांधीजी से मुलाकात के लिए कुछ समय पहले ही निर्धारित स्थान पर पहुँच गए थे. चैपलिन ने लिखा “अंततः जब वे (गांधीजी) पहुंचे और अपने पहनावे की तहें संभालते हुए टैक्सी से उतरे तो स्वागत में जयकारों की भारी गूंज उठ पड़ी. उस छोटी तंग बस्ती में अजब दृश्य था, जब एक बाहरी शख्स एक छोटे-से घर में जन-समुदाय के जय घोष के बीच दाखिल हो रहा था.” चैपलिन आगे लिखते है “गांधीजी से तो मैं उम्मीद नहीं कर सकता था कि मेरी किसी फिल्म पर बात शुरू करते हुए कहेंगे कि बड़ा मजा आया. ‘मुझे नहीं लगता था कि उन्होंने कभी कोई फिल्म देखी होगी.’ तो चैपलिन ने ही बात शुरू करते हुए कहा मैं स्वाधीनता के लिए भारत के संघर्ष के साथ हूँ, लेकिन आप मशीनों के खिलाफ क्यों है, उनसे तो दासता से मुक्ति मिलती है, काम जल्दी होता है और मनुष्य सुखी रहता है?”
चैपलिन की बातों का जवाब देते हुए गांधीजी ने मुस्कुराते हुए कहा “आप ठीक कहते है, मगर हमें पहले अंग्रेजी राज से मुक्ति चाहिए, मशीनों ने हमें अंग्रेजों का और अधिक गुलाम बना दिया है. इसलिए हम स्वदेशी और स्वराज की बात करते है. हमें अपनी जीवन शैली बचानी है. हमारी आबोहवा ही आपसे बिलकुल जुदा है, ठंडे मुल्क में आपको अलग किस्म के उद्योग और अर्थव्यवस्था की जरूरत है.”
लेकिन चैपलिन तब हैरान रह गए तब गांधीजी ने अचानक कहा माफ़ कीजिये मेरी प्रार्थना का वक्त हो गया है और उन्होंने चैपलिन को कहा आप चाहे तो यही बैठे रहे. चैपलिन ने सोफे पर बैठे-बैठे देखा, गांधीजी और चार-पांच भारतीय पालथी मार कर बैठ गए और ‘रघुपति राघव…’ गाने लगे. इस चर्चा में चैपलिन गांधीजी विवेक, कानून की समझ, राजनीतिक दृष्टी, यथार्थवादी नज़रिए और अटल संकल्पशक्ति से अभिभूत हो गए। गांधी के व्यक्तित्व में एक अनोखा जादू था मैं जीवनभर उन्हें भुला नहीं पाऊंगा। चेपलिन ने गांधीजी से मुलाकात का जिक्र अपनी आत्मकथा में विस्तार से किया है।
दक्षिण अफ्रीका से भारत वापस आने के बाद उन्होंने अपनी आस्था की एक एक इंच जमीन कैसे तैयार की और लाखों लोगों को संयमित कर अपनी अहिंसक सैना तैयार की। चम्पारण चले जाते हैं। चम्पारण की सफलता से वे एकाएक भारतीय परिदृश्य में तेजी से उभरने लगते हैं।
कॉंग्रेस के बड़े नेता सरदार पटेल, जवाहरलाल नेहरू, मौलाना आजाद व आचार्य कृपलानी जिन्ना के आलीशान महलनुमा घर में बैठक कर अंग्रेजों के खिलाफ रणनीति बना रहे हैं। ये सभी नेता बैठक में कह रहे है कि मि. गाँधी जो साउथ अफ्रीका से आये हैं और चम्पारण के हीरो हैं जब वो आ जाये तब बैठक की शुरुआत होगी।
गांधी जी, जिन्ना द्वारा भेजी गई गाड़ी से नहीं आते। वे आधी धोती पहन कर पैदल आते है और जिन्ना के घर में घुसते ही पहला काम यह करते हैं कि जो वेटर ट्रे में चाय लेकर परोस रहा है, गांधीजी उसके हाथों से चाय की ट्रे लेकर खुद जिन्ना, पटेल, नेहरू, मौलाना और कृपलानी को चाय परोसने लगते हैं। जिन्ना सहित सभी नेता गांधी के इस रूप को देखकर अचंभित हो जाते हैं। गांधी जी इन नेताओं से कहते हैं कि जब तक हमारे और उनके (वेटर) बीच में डिफरेन्स रहेगा हम अंग्रेजों और अपने बीच के डिफरेन्स को कभी खत्म नहीं कर पाएंगे। हमारी साख इस बात पर निर्भर करेगी कि हम खुद अपने से कमजोर लोगों के साथ कितना जस्टिस कर रहे हैं।
गाँधी को समझने के लिए हमें गाँधी के साथ चलना पड़ेगा। हमने सामाजिक विकास के क्रम में बहुत सारे अवरोध (स्ट्रक्चर ऑफ डोमिनेशन) बना रखे हैं। जाति, धर्म , वर्ग, समुदाय, व छोटे बड़े के बीच जो प्रभुत्व के अवरोध हमने बना रखे हैं , इससे गरीब व अमीर के बीच की खाई गहरी होती जा रही है। जब हम उस खाई को खत्म कर देंगे तो खुद ब खुद बहुत सारी चीजे हमें नजर आने लगेंगी।
नौकरशाही पर गांधी
क्या अभी भी स्थिति बदली है?
“मेरा यह स्वभाव नहीं कि मैं मनुष्य को दुराचारी मानूं । लेकिन मेरे सामने नौकरशाही के दुराचार के इतने प्रमाण उपस्थित हैं कि मैं मानता हूं वह अपना लक्ष्य सिद्ध करने के लिए कुछ भी कर सकती है। मैं शब्दश: सच कह रहा हूं कि चंपारण जाने से पहले चंपारण के किसानों के खिलाफ की गई बर्बरता की जो कहानी कही जाती थी, उन पर मुझे जरा भी विश्वास नहीं होता था । लेकिन जब मैं वहां गया तो मैं स्थिति को जितना बताया गया था उससे भी बदतर पाया । मैं यह कतई मान नहीं सका कि बिल्कुल निर्दोष लोगों को उस तरह बिना चेतावनी दिए नृशंशतापूर्वक मौत के घाट उतार दिया जा सकता था, — जैसा कि जलियांवाला बाग में किया गया । मैं नहीं मान सका कि आदमी को पेट के बल रेंगने को मजबूर किया जा सकता था । लेकिन पंजाब पहुंचकर मैंने आतंकित मन से देखा कि जो कुछ मुझे बताया गया था, उससे भी बुरी बातें हुई थी । और यह सब कहने को तो शांति और सुव्यवस्था के नाम पर किया गया था, लेकिन वास्तव में उसका उद्देश्य था झूठी प्रतिष्ठा, एक झूठी प्रणाली और एक अस्वाभाविक व्यापार- व्यवसाय को कायम रखना।”
महात्मा गांधी
यंग इंडिया 20 अक्टूबर 1921
गांधी को हमें इतिहास के चश्मे से देखने के साथ ही आज के संदर्भ में भी समझना चाहिए। 21/138 उदारीकरण की मौजूदा अर्थनीति और असीमित उपभोगवाद के विरुद्ध गांधी मितव्ययिता और न्यूनतम उपभोग की वकालत करते हैं।
आज जिस अंधराष्ट्रवाद या तथाकथित सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की बात बहुत ज़ोर शोर से हो रही है , उसके लिए भी हमें गांधी के मार्ग पर जो कि प्रेम ,सद्भाव, सामंजस्य और सहिष्णुता और भारत की सांस्कृतिक बहुलता पर आधारित राष्ट्रीयता जिसका विकास स्वाधीनता आंदोलन के साथ हुआ , उस पर चलने की ज़रूरत है । इस समय साम्प्रदायिक उग्रता का जो माहौल चारों ओर दिखाई , सुनाई देता है उसके लिए सौहार्द और भाईचारा की संस्कृति विकसित करन होगी जिसका नायक गाँधी का वैष्णव जन है । जो पीर पराई समझता है ।
गांधी जी ने जिस ग्राम स्वराज की कल्पना की थी वह अब औद्योगीकरण और शहरीकरण के चलते हाशिये पर जा रहा है इसे भी हम लघु और कुटीर उद्योग पर आधारित ग्राम्य संस्कृति के ज़रिए हासिल कर सकते है ।
हिंदुत्व (धार्मिक सहिष्णुता, धर्म-आश्रित राष्ट्र से असहमति के कारण बंटवारे का विरोध)
गाँधी पश्चिमी सभ्यता के विकल्प के रूप में आधुनिक भारतीयता की खोज में रत रहे। उनकी जीवनशैली इसका प्रमाण है।मनुष्य के भीतर एक वैकल्पिक मनुष्य की खोज (सत्य और अहिँसा के प्रयोग) इसका सबसे बेहतरीन उदाहरण है ।
गाँधी से आज की सभ्यता बहुत दूर चली आई है जहाँ से लौटना नामुमकिन लगता है। लेकिन गाँधी आज भी संभावना हैं।आज जिस तरह से चारों ओर पूँजी की आक्रामकता है इसका का जवाब गाँधी के पास था।वे उतन ही चीजों के इस्तेमाल की बात करते थे जितनी की हमारी ज़रूरत है । गांधी जी ताजिंदगी दिखावा संस्कृति के खिलाफ थे ।