-सुभाष मिश्र
स्त्रियों ने आज तीजा का व्रत रखा है और ये निर्जला व्रत है। तीजा को हरतालिका भी कहते हैं। इसको लेकर पूरे बाजार में रौनक है। महिलाएं इसे उत्साह और उत्सव की तरह इस व्रत को रखती हैं। महिलाएं अपने पति की दीर्घायु होने की कामना के लिए यह व्रत रखती हैं। आधुनिक स्त्री इसे उत्सव के रूप में मनाती है। आजकल हमारे समाज में उत्सव धर्मिता बढ़ रही है। बहुत सारी स्त्रियां रूढिय़ों के कारण परिवार और समाज के दबाव के कारण भी यह व्रत रखती हैं। पढ़ी-लिखी और कामकाजी स्त्रियों में बदलाव आया है, फिर भी सामाजिक और परंपरा के दबाव में वे इस तरह का व्रत रखती हैं, और पर्व मनाती हैं। हालांकि कुछ महिलाएं व्रत रखने के बाद थोड़ा फलाहार कर लेती हैं, मगर इस व्रत और पर्व का केवल एक ही उद्देश्य होता है अपने पति के दीर्घायु होने की कामना। इसका एक दूसरा पहलू और सवाल है कि क्या पुरूष भी साल के 365 दिनों में एक दिन भी अपनी पत्नी के दीर्घायु होने के लिए व्रत रखता है? क्या पुरूष ऐसा कह सकता है कि वह अपनी पत्नी के लिए व्रत रखना चाहता है? उसके व्रत का उद्देश्य पत्नी का दीर्घायु होना है? हो सकता बहुत से लोग इस तरह व्रत करते भी होंगे क्योंकि दोनों एक साथ रहते हैं। तो दोनों को एक दूसरे की आदतें भी पता होती हैं और एक दूसरे की जरूरत भी होती है। पति-पत्नी एक दूसरे को समझते भी हैं। यह अलग बात है कि कुछ लोग अपनी पत्नी के विषय में इस तरह का विचार रखते हैं लेकिन सामाजिक और धार्मिक रूप में कोई ऐसी व्यवस्था नहीं है, जिसमें पुरूष अपनी पत्नी के लिए व्रत रखे। पुरूष से कोई नहीं पूछता कि उसने अपनी पत्नी की दीर्घायु के लिए व्रत क्यों नहीं रखा या पर्व नहीं मनाया।
स्त्रियों के इस व्रत और पुरूषों की कोई जिम्मेदारी नहीं होने के बीच लैंगिक समानता को लेकर एक आंकड़ा आया है, जो चैंकाने वाला है। बहुत सारे देशों में स्त्रियों की स्थिति खराब है, और लगातार पिछड़ती जा रही है। स्त्रियां आर्थिक, सामाजिक रूप से पीछे हो रही हैं। स्त्रियों के विरूध्द अपराध बढ़ रहे हैं, उन पर अत्याचार बढ़ रहे हैं। एक तरफ स्त्रियां-पुरूषों के लिए बेहतर दुनिया की कामना करती हैं, उनके लिए घर सजा रही हैं। परिवार की जिम्मेदारी उठा रही हैं, पूरी दुनिया को खूबसूरत बना रही हैं। दूसरी तरफ पुरूष प्रधान समाज में स्त्रियों को लेकर इस तरह का भाव नहीं रहता है। आज स्त्रियों का त्यौहार है तो आज स्त्रियों की दिशा और दशा पर विचार जरूरी है। बहुत सारी स्त्रियां जो घरों में बोल नहीं पातीं, और जो यह महसूस करती हैं, कि उनके साथ परिवार में ही अन्याय हो रहा है। ऐसे में अगर हमारे देश सहित दुनिया भर में यदि किसी श्रम की चोरी का सबसे बड़ा अपराध दर्ज होगा, उसमें घर में काम करने वाली स्त्रियां ही होंगी। उनके श्रम को आमतौर पर परिवार के लोग मानते ही नहीं। यही अगर कोई विदेश चला जाए और किसी को काम पर रखना पड़े जो घर की स्त्रियां करती हैं, तब जाकर उनको पता चलेगा कि उनके घर की स़्ित्रयां जो घर का हर काम संभालती हैं, उसके बदले कितने पैसे का भुगतान करना पड़ता है? यह अलग बात है कि आम तौर पर लोग इस पहलू पर विचार नहीं करते और पूरी दुनिया इसके बारे में नहीं सोचती। घर की स्त्रियां बहुत ही सेवा भाव और तन मन से धार्मिक विश्वास के साथ सात जन्मों तक पति को साथ रखने की कामना से पूजा अर्चना करती हैं। ऐसे में लैंगिक समानता की बात अगर की जाए तो स्त्रियों का जो संसार है, उसमें पुरूष की क्या भूमिका है? हाल ही में एक बात आई थी कि कई सालों बाद लगभग 20 से 30 हजार साल बाद, पुरूषों के जींस खत्म हो जाएंगे, पता नहीं वह बीस-तीस हजार साल कब होगा? पर अभी तो स्त्रियाँ थोड़े संकट में हैं। हमारे समाज में और दुनिया में स्त्रियों की स्थिति ठीक नहीं है।
पुरुषों और महिलाओं के लिए लंबी जीवन प्रत्याशा एक सामाजिक सफलता की कहानी रही है, लेकिन यह पूरी तस्वीर नहीं है। पुरुषों की तुलना में लंबे समय तक जीने के बावजूद, महिलाएं अपने जीवन का 25फीसदी अधिक हिस्सा खराब स्वास्थ्य में बिताती हैं। स्वास्थ्य संबंधी बोझ महिलाओं के जीवन पर भारी प्रभाव डालता है, जिसका व्यापक प्रभाव समाज पर पड़ता है। ग्रामीण महिलाओं को शहरी महिलाओं की तुलना में खराब स्वास्थ्य मिलते हैं और स्वास्थ्य सेवा तक उनकी पहुँच कम होती है। कई ग्रामीण क्षेत्रों में स्वास्थ्य सेवा प्रदाताओं, विशेष रूप से महिला स्वास्थ्य प्रदाताओं की संख्या सीमित है। अब सवाल यह कि वे कौन से पहलु हैं, जो स्त्रियों को पुरुषों से पीछे रखते हैं? दरअसल, स्त्रियों को पुरुषों के बराबर अवसर नहीं मिलते। उच्च शिक्षा, निर्णय लेने की भूमिका और नेतृत्व की भूमिकाओं में महिलाओं की भागीदारी कम है। लैंगिक असमानता रैंकिंग के अनुसार भारत 149 देशों में 108वें स्थान पर है। भारत में महिलाओं के प्रति भेदभावपूर्ण व्यवहार होता है। विवाह में दहेज प्रथा भी उनके पिछडऩे का कारण है। दहेज लेना आम बात है। भले ही दहेज प्रताडऩा के कितने भी केस क्यों ना हो और दहेज लेना अपराध हो, पर यह एक तरह की सामाजिक मान्यता है। लोग भी दहेज मिलने की अपेक्षा करते हैं। इसके अलावा समाज में बेटे और बेटी के बीच भी भेदभाव किया जाता है। बेटियों की जगह बेटों को प्राथमिकता दी जाती है। महिलाओं को पुरुषों के समान नौकरी के अवसर और वेतन नहीं मिलते। ‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ योजना’ भारत में असफल हो रहा है। लड़कियों की सुरक्षा के लिए कानून तो हैं, लेकिन वे कितने मान्य हो रहे हैं। आए-दिन देशभर में महिलाओं के साथ घटनाएं हो रही हैं और इसके खिलाफ देश में आन्दोलन चल रहे हैं। वे बताते हैं कि असामाजिक तत्वों में कानून का भय भी ख़त्म हो चुका है। महिला अधिकारों के बारे में ज्ञान फैलाने के लिए और अधिक जागरूकता फैलाने की आवश्यकता है। लड़कियों की स्वतंत्रता में अनेकों पाबंदियाँ हैं, उन्हें हटाने की जरूरत है। लड़कियों पर कई तरह की रोक-टोक हैं। उनको लडकों की तरह कभी भी और कहीं भी आने-जाने की स्वतन्त्रता नहीं हैं। हालांकि अब समाज बदल रहा है। बहुत से अभिभावक अपनी बेटियों को पढऩे से लेकर नौकरी तक पर बाहर जाने की छूट दे रहे हैं। यह बदलाव आया है, पर पूरे समाज की बात की जाए तो उस तरह का बदलाव नहीं आया है। भारत में पितृसात्मकता मजबूत है कि लड़कियों को दैनिक जीवन कई तरह की बाधा है। लड़कियों को जीवन-रक्षक संसाधनों, सूचना और सामाजिक नेटवर्क तक पहुंचने में मुश्किलों का सामना करना पड़ता है। लड़कियों और महिलाओं को हर प्लेटफार्म चुनौतियों से सामना करना पड़ता है। महिलाओं और लड़कियों के पोषण को सुधार की जरूरत है। बाल विवाह की प्रथा भी लड़कियों के विकास में बाधक है। आज भी अक्षय त्तृतीय के दिन बहुत तरह की समझाईस देने के बावजूद लोग बच्चों का विवाह करवा देते हैं, क्योंकि उनके माता-पिता को लगता है कि अविवाहित रही तो उनकी बच्ची सुरक्षित नहीं रहेगी। यह एक सोच है, जिसके कारण बाल विवाह होते हैं। इसके अलावा लैंगिक समानता दुनिया भर में एक मुद्दा है।
वैश्विक स्तर पर लैंगिक समानता 68.5 प्रतिशत है और वर्तमान दरों के अनुसार, 2158 तक पूर्ण समानता की उम्मीद नहीं है। भारत दक्षिण एशिया में तीसरे सबसे निचले स्थान पर है। लैंगिक समानता तक पहुंचने में 134 साल, यानी 2158 तक का समय लगेगा, जो 2030 के सतत विकास लक्ष्य से पांच पीढिय़ों आगे है। वैश्विक लैंगिक अंतर स्कोर, जिसे बंद किए गए लैंगिक अंतर के प्रतिशत के रूप में व्याख्या किया जाता है, 2024 के लिए 68.5 प्रतिशत है, जो पिछले वर्ष से मात्र 0.1 प्रतिशत अंक बेहतर है। उल्लेखनीय रूप से, दुनिया की 97 प्रतिशत अर्थव्यवस्थाओं ने लैंगिक अंतर के 60 प्रतिशत से अधिक को पाट दिया है। 146 देशों के नमूने में से, 50.1 प्रतिशत अर्थव्यवस्थाओं ने बोर्ड भर में अपने स्कोर में वृद्धि की सूचना दी, 6.1 प्रतिशत ने स्कोर में कोई परिवर्तन नहीं दिखाया और 43.8 प्रतिशत ने नकारात्मक स्कोर परिवर्तन की सूचना दी। वैश्विक शीर्ष 10 में से सात रैंक पर यूरोपीय अर्थव्यवस्थाएं हैं, शेष तीन स्थानों पर न्यूजीलैंड (रैंक 4), निकारागुआ (रैंक 6) और नामीबिया (रैंक 8) है। हालांकि किसी भी देश ने पूर्ण लिंग समानता हासिल नहीं की है। शीर्ष नौ देशों आइसलैंड, फिनलैंड, नॉर्वे, न्यूजीलैंड, स्वीडन, निकारागुआ, जर्मनी, नामीबिया और आयरलैंड में भी अंतर को 80 प्रतिशत तक कम कर दिया है। आइसलैंड शीर्ष पर बना हुआ है, जिसने अपने लिंग अंतर को 93.4 प्रतिशत कम कर दिया है, जो डेढ़ दशक से अधिक समय से सूचकांक में अग्रणी है। यह सूचकांक में एकमात्र अर्थव्यवस्था है जिसने अपने अंतर को 90 प्रतिशत से अधिक कम कर दिया है। लैंगिक समानता को मापते समय कई मापदंडों को ध्यान में रखा जाता है। शायद दुनिया भर में लैंगिक समानता का सबसे ज्ञात संकेतक ग्लोबल जेंडर गैप इंडेक्स है। प्रत्येक वर्ष, सूचकांक इन श्रेणियों में 14 संकेतकों के आधार पर आर्थिक, राजनीतिक, शैक्षिक और स्वास्थ्य-आधारित मानदंडों पर राष्ट्रीय लिंग अंतर को मापता है। 2024 के सूचकांक के अनुसार, आइसलैंड में सबसे छोटा समग्र लिंग अंतर है, इसके बाद फिनलैंड, नॉर्वे और न्यूजीलैंड जैसे अन्य नॉर्डिक देश हैं। इसके विपरीत, अफगानिस्तान में लैंगिक समानता को सबसे अधिक चुनौतीपूर्ण माना जाता है।
महिलाएं चाहे किसी भी देश की हों, उनमें निश्चित रूप से असमानता देखने को मिलती है। अगर हम उनके प्रजनन, स्वास्थ्य सशक्तिकरण और श्रम बाजार में उनके वैल्यू को देखते हैं, तो भी हमको यह लगता है कि वह बहुत कमजोर है।
भारत में स्त्रियों के त्यौहार को सम्मान की दृष्टि से देखा जाता है। भारत की स्त्रियां तमाम काम काज, अभाव, परेशानियों, अत्याचार और विरोधाभाष के बावजूद पितृआत्मक सत्ता में महिलाओं ने अपनी स्थिति बनाने की कोशिश की है। बहुत सारी महिलाएं आज विभिन्न क्षेत्रों में आगे आ रही हैं। साक्षरता ने उनके आगे आने में बड़ी भूमिका निभाई है। देश में निश्चित रूप से महिला साक्षरता बढ़ी है। पूरी दुनिया में जब तक स्त्रियां पढ़ेंगी, लिखेंगी नहीं आर्थिक रूप से मजबूत नहीं होंगी, उनके सोच का दायरा उंचा नहीं होगा, और उनके बीच प्यार, अंधविश्वास तथा रूढि़वादी मान्यता खत्म नहीं होगी तो लैंगिक समानता की बात अधूरी रह जाएगी। आज वो तमाम स्त्रियां धन्यवाद की पात्र हैं, जिन्होंने अनेकों बाधाओं के बावजूद अपना मुकाम हासिल किया है और अपने पति की दीर्घायु होने की कामना का व्रत रखा।