
नंदिनी जयशरद
मनुष्य की इच्छाओं का कोई तर्क नहीं होताऔर सिनेमा हमें अपनी अधूरी इच्छाओं और कल्पनाओं को दोबारा, भले ही कुछ घंटों के लिए ही सही, जीने का अवसर देता है। यूं तो हम सभी अपनी-अपनी ज़िंदगी के असली नायक हैं, चाहे हम लड़की हों या लड़के, स्त्री हों या पुरुष। (यहाँ “नायक” को किसी एक जेंडर के संदर्भ में नहीं देखा जाना चाहिए।) लेकिन हमारी नज़रों में हम स्वयं को नायक इसलिए नहीं मान पाते, क्योंकि नायक की हमारी परिभाषा सिनेमा ने गढ़ दी है। हमारे लिए नायक वह है जो काल्पनिक परिस्थितियों में अपनी जान जोखिम में डालता है, इधर-उधर छलांगें लगाता है, गिरता-पड़ता है, गोलियों की बौछार से बचता हुआ भागता है और अंत में अपनी बंदूक की बची हुई तीन गोलियों से पचास दुश्मनों को ढेर कर देता है। या फिर वह कोई अत्यंत आकर्षक, दिलफेंक जासूस होता है, जो देश के लिए मर-मिटने को तैयार रहता है, या बड़े ‘एटिट्यूड’ के साथ किसी लड़की का पीछा करता है, टशन में जीता है। यही हमारी फिल्मों का मुख्य पात्र है।
अगर मुख्य पात्र लड़की है, तो उससे अपेक्षा की जाती है कि वह भारतीय या पाश्चात्य किसी भी ढंग में स्टाइलिश हो और साथ ही पारंपरिक, अत्यंत दयालु, आज्ञाकारी और छुईमुई भी हो। यदि वह मजबूत है, आत्मसम्मान के साथ खड़ी होती है और दूसरों के आगे नहीं झुकती, तो उसे जिद्दी, बदचलन या नकारात्मक चरित्र वाली स्त्री के रूप में चित्रित कर दिया जाता है। फिल्मों में स्त्री-पुरुष के चरित्रों का यह अजीब और असंतुलित वर्गीकरण लंबे समय से चलता आ रहा है।
इन सभी गुणों के लिए एक ही शब्द सबसे उपयुक्त प्रतीत होता है; “अति”। भावनाओं की अति, चाहे वह किसी भी रूप में क्यों न हो; साहस की अति, इच्छाओं की अति और अभिव्यक्ति की अति। यह सब हमारी वास्तविक ज़िंदगी की सच्चाइयों से कहीं भी जुड़ता हुआ नहीं दिखता। ऐसे में प्रश्न उठता है कि इस तरह का सिनेमा बच्चों और नवयुवाओं के मन मस्तिस्क पर अंततः कैसी छाप छोड़ता है?
क्या यह “अति” उन्हें जीवन की वास्तविकताओं की ओर ले जा रही है, या फिर “अति” के चश्मे से जीवन को देखने के लिए मजबूर कर रही है? क्या यह अति-उत्साह, अतिरंजना और कथित खुलापन हमारी रोज़मर्रा की चुनौतियों से विवेकपूर्ण ढंग से निपटने की क्षमता के साथ खिलवाड़ नहीं कर रहा?
इन फिल्मों से प्रभावित होकर किशोर और युवा अपने आसपास घटने वाली घटनाओं पर कई बार अत्यंत सतही और विवेकहीन प्रतिक्रियाएँ देने लगते हैं, जिससे समस्याएँ सुलझने के बजाय और अधिक बिगड़ जाती हैं। स्कूलों, कॉलेजों और पड़ोस में पसंद आने वाली लड़कियों के प्रति अति-उत्साह कई बार बेहूदगी और स्टॉकिंग में बदल जाता है।
लड़कियाँ भी कई बार भ्रम की शिकार हो जाती हैं। किसी लड़के के तथाकथित ‘हीरोइक’ व्यवहार से प्रभावित होकर, अपनी कम उम्र, अनुभवहीनता और बॉलीवुड फिल्मों के प्रभाव में वे बाहरी रूप और व्यवहार को ही वास्तविकता मान बैठती हैं। पढ़-लिखकर भविष्य गढ़ने के बजाय, व्यक्तिगत जीवन में मिले स्नेह या उसके अभाव के कारण वह लड़का उनके लिए एक तरह का पलायन, एक एस्केप बन जाता है, जिसका परिणाम अक्सर दुखद और भयावह होता है।
यह सब पढ़ने के बाद कुछ लोग यह तर्क दे सकते हैं कि ट्वेल्थफैल, सुपर 30, चक दे इंडिया, भाग मिल्खा भाग, 3 इडियट्स, तारे ज़मीन पर, दंगल, मैरी कॉम, उड़ान, OMG और हाल मे ही प्रदर्शित होमबाउंड जैसी जीवन की चुनौतियों को वास्तविक रूप मे दर्शाने वाली फिल्में भी तो बनी हैं। फिर इतनी चिंता क्यों?
लेकिन ज़रा ठहरकर सोचिए; पिछले दस वर्षों में इस तरह की फिल्मों की संख्या कितनी है? हम उन्हें उंगलियों पर गिन सकते हैं। किसी साल एक, किसी साल दो बस इससे अधिक नहीं। इसका सीधा अर्थ यह है कि अधिकांश फिल्में किशोरों और युवाओं को वास्तविकता से दूर रखकर भ्रम और अतिरंजनाओं में उलझाए हुए हैं।
आम देसी दर्शक इतना तार्किक नहीं होता कि वह यह भेद कर सके कि क्या निरर्थक है और क्या सच्ची कला। उसे सिर्फ मनोरंजन चाहिए। ऐसे मे सिनेमा के लेजेंड कहे जाने वाले कला मनीषियों की ज़िम्मेदारी बढ़ जाती है और उन्हे आगे आकर इस ज़िम्मेदारी को निभाने का साहस दिखाना चाहिये।
पत्रकारिता में डिप्लोमा, दूरदर्शन के कार्यक्रमों के लिए सहायक निर्देशन का कार्य, विभिन्न सामाजिक संस्थाओं के साथ कार्य एवं जुड़ाव, जयपुर