विनोद कुमार शुक्ल: शब्दों की साधना से ज्ञानपीठ तक

डॉ. जीतेश्वरी साहू।

हिंदी साहित्य में कुछ लेखक ऐसे होते हैं जो शब्दों से नहीं, बल्कि मौन से बोलते हैं। जिनकी रचनाएँ शोर नहीं मचातीं, बल्कि पाठक के भीतर धीरे-धीरे उतरती हैं। विनोद कुमार शुक्ल ऐसे ही विरल रचनाकार हैं। वे छत्तीसगढ़ के पहले लेखक हैं जिन्हें ज्ञानपीठ जैसे सर्वोच्च साहित्यिक सम्मान से अलंकृत किया गया और यह सम्मान केवल उनकी रचनात्मकता का नहीं, बल्कि उनके पूरे जीवन-स्वभाव का सम्मान है।

विनोद कुमार शुक्ल का साहित्य किसी बड़े वैचारिक घोषणापत्र से नहीं बनता। वह साधारण मनुष्य, उसकी छोटी-छोटी इच्छाओं, भय, संशय और प्रेम में आकार लेता है। उनकी कविता, कहानी और उपन्यास में जीवन अपनी पूरी सहजता के साथ उपस्थित रहता है—बिना सजावट, बिना भारीपन के। शायद यही कारण है कि उनका साहित्य पढ़ते समय लगता है मानो कोई बहुत परिचित-सा व्यक्ति चुपचाप हमारे पास बैठकर जीवन की कोई बात कह रहा हो।

छत्तीसगढ़ की मिट्टी, उसका लोक, उसकी भाषा और उसका सरल जीवन विनोद कुमार शुक्ल की रचनाओं में गहरे रचा-बसा है। लेकिन यह क्षेत्रीयता कभी सीमित नहीं बनती, वह सार्वभौमिक मानवीय संवेदना में बदल जाती है।

‘नौकर की कमीज़’, ‘दीवार में एक खिड़की रहती थी’, ‘खिलेगा तो देखेंगे’ जैसे उनके उपन्यास और ‘सब कुछ होना बचा रहेगा’ जैसी कविता-संग्रह हिंदी साहित्य की ऐसी धरोहर हैं, जिनमें साधारण जीवन असाधारण गहराई के साथ उपस्थित है।

विनोद कुमार शुक्ल की भाषा उनकी सबसे बड़ी ताकत है- सरल, पारदर्शी और अनावश्यक अलंकारों से मुक्त। वे बड़े शब्दों से नहीं, बल्कि छोटे वाक्यों से बड़े अर्थ रचते हैं। उनकी रचनाओं में जो मौन है, वही सबसे ज़्यादा बोलता है। पाठक को लगता है कि लेखक कुछ कहकर रुक गया है और अब उसे स्वयं उस अधूरेपन को समझना है।

विनोद कुमार शुक्ल को पढ़ते हुए यह एहसास होता है कि वे साहित्य को किसी प्रतियोगिता या प्रदर्शन का माध्यम नहीं बनाते। उनके लिए लेखन एक आंतरिक प्रक्रिया है, जीवन को देखने, समझने और स्वीकार करने की। शायद इसी कारण उनका लेखन समय के साथ और अधिक प्रासंगिक होता चला गया।

हिंदी की प्रसिद्ध वेब पत्रिका  ‘समालोचन’ के लिए साक्षात्कार में उनसे बातचीत करते हुए मैंने यह महसूस किया कि विनोद कुमार शुक्ल की सादगी केवल उनके लेखन तक सीमित नहीं है, वह उनके व्यक्तित्व का भी मूल स्वभाव है। कोई दिखावा नहीं, कोई बनावट नहीं। जैसे वे जीवन में हैं, वैसे ही उनकी रचनाओं में हैं। यह दुर्लभ ईमानदारी आज के समय में और भी मूल्यवान हो जाती है।

ज्ञानपीठ पुरस्कार का मिलना केवल विनोद कुमार शुक्ल की व्यक्तिगत उपलब्धि नहीं है, बल्कि छत्तीसगढ़ के साहित्यिक परिदृश्य की ऐतिहासिक स्वीकृति है। यह उस मिट्टी, उस भाषा और उस संवेदना की जीत है, जिसे उन्होंने अपने पूरे जीवन सहेजकर रखा। यह सम्मान यह भी साबित करता है कि साहित्य का केंद्र हमेशा महानगरों में ही नहीं होता—वह वहाँ भी होता है, जहाँ जीवन अपनी सबसे सच्ची शक्ल में मौजूद होता है।

विनोद कुमार शुक्ल की रचनाओं में हम देख सकते हैं कि कैसे जीवन की सबसे साधारण घटनाएँ भी कविता और कहानी बन सकती हैं, यदि उन्हें मानवीय संवेदना से रेखांकित किया जाए। उनका लेखन हमें मनुष्य के भीतर झाँकने की दृष्टि देता है और शायद यही किसी बड़े लेखक की रचना की सबसे बड़ी उपलब्धि होती है।

आज विनोद कुमार शुक्ल हमारे बीच नहीं है पर वे हमेशा हमारे बीच रहेंगे अपनी कविता, कहानी और उपन्यास में।

युवा समीक्षक, विभिन्न पत्र – पत्रिकाओं में कविता, साक्षात्कार एवं समीक्षा प्रकाशित।

21 सदी की हिंदी कहानियों में डॉक्टरेट की उपाधि।

रायपुर, छत्तीसगढ़

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