
उर्मिला आचार्या
विनोद कुमार शुक्ल छत्तीसगढ़ की साहित्यिक भूमि से उपजे उन विरल रचनाकारों में हैं, जिनकी उपस्थिति बहुत शोर नहीं करती, पर उनकी रचनाएँ देर तक और दूर तक असर छोड़ती हैं। ज्ञानपीठ से सम्मानित कवि, कथाकार और उपन्यासकार के रूप में उन्होंने हिंदी साहित्य को एक ऐसी संवेदनशील दृष्टि दी, जिसमें मनुष्य, प्रकृति और समाज के हाशिये पर खड़े जीवन आपस में गहरे जुड़े दिखाई देते हैं।
यद्यपि वे बहुत पहले से कविता लिख रहे थे, पर उनकी साहित्यिक पहचान को व्यापक मंच तब मिला, जब प्रसिद्ध कवि गजानन माधव मुक्तिबोध ने एक कवि-गोष्ठी में उनकी कविताएँ सुनीं। मुक्तिबोध जैसे गंभीर और वैचारिक कवि द्वारा प्रशंसा मिलना किसी भी रचनाकार के लिए महत्वपूर्ण था। उसी क्षण से विनोद कुमार शुक्ल की कविताओं की चर्चा शुरू हुई और धीरे-धीरे वे हिंदी कविता के एक अलग, शांत लेकिन प्रभावशाली स्वर के रूप में पहचाने जाने लगे।
उनकी कविता संग्रह “सब कुछ होना बचा रहेगा”, “कविता से लंबी कविता” और “वह आदमी चला गया” जैसी कृतियाँ इस बात का उदाहरण हैं कि कविता किस तरह बिना नारेबाज़ी के गहरे सामाजिक सत्य कह सकती है। उनकी कविताओं में आदिवासी जीवन, स्त्री संवेदना और प्रकृति कोई अलग-अलग विषय नहीं हैं, बल्कि एक-दूसरे में रचे-बसे हुए हैं। उनकी रचनाओं में छत्तीसगढ़ का आदिवासी समाज; उसका श्रम, उसका संघर्ष, उसकी सहजता किसी पर्यवेक्षक की तरह नहीं, बल्कि सहभागी की तरह उपस्थित होता है।

उनकी कहानियों और उपन्यासों में भी यही संवेदना दिखाई देती है। उपन्यास “नौकर की कमीज़” और “दीवार में एक खिड़की रहती थी” में साधारण मनुष्य का जीवन, उसकी इच्छाएँ, उसकी सीमाएँ और उसका मौन संघर्ष अत्यंत सहज भाषा में उभरता है। स्त्री पात्र उनके यहाँ सहानुभूति की वस्तु नहीं, बल्कि अपनी स्वतंत्र चेतना और आंतरिक संसार के साथ उपस्थित होती हैं। वे अपनी रचनाओं मे स्त्री को निर्णय लेने वाली इकाई के रूप में मात्र नहीं देखते बल्कि प्रकृति के साथ भी जोड़ते हैं और जल, जंगल, ज़मीन की भांति सजीव रूप मे प्रस्तुत करते हैं।
प्रकृति उनके साहित्य में पृष्ठभूमि नहीं, बल्कि एक जीवंत पात्र है। पेड़, रास्ते, घर, दीवारें, खिड़कियाँ सब कुछ मानो मनुष्य के साथ संवाद करता है। आदिवासी जीवन में प्रकृति और मनुष्य के मेल-मिलाप को उन्होंने बहुत सूक्ष्मता से रचा है, जहाँ संघर्ष भी है और अपनापन भी। यही कारण है कि उनकी रचनाएँ पढ़ते हुए पाठक स्वयं को उस संसार का हिस्सा महसूस करता है।
उनकी भाषा और शिल्प अत्यंत सहज हैं। कोई जटिलता नहीं, कोई अलंकारिक प्रदर्शन नहीं, फिर भी गहरी मारक क्षमता। यही सादगी उन्हें विशेष रूप से युवा पीढ़ी के निकट लाती है। युवाओं ने उन्हें खूब पढ़ा, सराहा और उनसे प्रेरणा ली। हम जैसे कथाकार भी उनकी रचनाओं से यह सीखते रहे कि बड़े सत्य कहने के लिए ऊँचे स्वर की नहीं, बल्कि गहरी संवेदना की आवश्यकता होती है।
आदरणीय विनोद कुमार शुक्ल की रचनाएँ केवल छत्तीसगढ़ की नहीं रहीं; उन्होंने पूरे देश के साहित्यिक परिदृश्य को समृद्ध किया। शांत, सरल और अत्यंत मानवीय स्वर में उनका साहित्य आने वाली पीढ़ियों तक मनुष्य, प्रकृति और संवेदना के रिश्तों की याद दिलाता रहेगा ।
कवि कथाकार, राष्ट्रपति पुरस्कार से सम्मानित, सामाजिक कार्यकर्ता
जगदलपुर, छत्तीसगढ़