
डॉ. सुनीता
हिंदी साहित्य- समाज में 24 दिसंबर 2025 का दिन दोपहर बाद औचक शोकांजलि में तब्दील हो गया। नया रचकर, टटका भाषा गढ़कर, सदैव लोक से जुड़े रहकर जीवन जीते साहित्यकार विनोद कुमार शुक्ल का जाना आत्मवृत्त मानवों को कटघरे में खड़ा करने जैसा रहा। बीमार विनोद के पास फटकने से बचते रहे साहित्य- समाज के लोग रायल्टी पर रार मचाने से न चूकने वाले जन समुदाय लिपन शैली में श्रद्धांजलि देते फूहड़ से लगे।
अपमान और उपेक्षा के दंश झेलते हुए मृत्यु शैया पर लेटे विनोद ने अपने जीवन काल में स्वर्णिम दौर देखा। वे तिल – तिल कर मृत्यु के नज़दीक जा रहे थे, एकाकीपन का ज़हर पीते हुए लिखते रहने का ज़िद और घर लौटने की इच्छा उनमें बची हुई थी। विस्मृति के ब्लैकहोल से बड़े सलीके से बच निकले विनोद को पूरे सम्मान से हिंदी समाज ने याद किया। उनके प्रति आगाध आंतरिक स्नेह और समर्पण को पीछे छोड़, तड़पती आत्मा को पंक्षी कहीं और उड़ा ले गये।
युगजीवी साहित्यकार की मौलिक उपस्थिति, अनुपस्थिति में भी ज्यों का त्यों बनी रहने वाली है क्योंकि मौलिकता का कोई मैनेरिज्म नहीं है। परिवेश और चरित्रों के संबंध में विनोद का ख़ास झुकाव उत्कृष्ट ऐंद्रिय विवरणात्मकता के साथ एक अस्तित्ववादी कल्पना का परिचायक है। वह हिंदी साहित्य के दुर्लभ रचनाकारों में शुमार हैं। शुक्ल की लेखनी में सरलता, सरसता और सूक्ष्मता का मिश्रण है, जहाँ जीवन संवेदना की बारीकी दिल को छूती है। अधिकतर रचनाएँ यथार्थ और कल्पना के मध्य झूलती हुईं सी हैं। जिसमें सामान्य मनुष्य की असाधारण भावनाएँ उभार लेती हैं। स्त्री दृष्टि चित्रण में विनोद अपवाद सरीखे हैं।

सामान्यतः पुरुष रचनाकार स्त्री- व्यथा को दर्शक- दृष्टि से देखते हैं, लेकिन शुक्ल जी उसे स्वानुभूत की तरह जीवंत बनाते हुए स्त्री की आंतरिक दुनिया को संवेदनशीलता से स्पर्श करते हैं। विनोद जी की स्त्री- दृष्टि में सघन भावुकता है, जिससे सहज ही अनुराग उपजता है। छोटे- छोटे प्रसंग बड़े- बड़े संदर्भ का समायोजन किए जीवन सच्चाइयों को क़रीने से उजागर करते हैं।
नौकर की कमीज, खिलेगा तो देखेंगे और दीवार में एक खिड़की रहती थी की स्त्रियाँ अपने परिवेश संग सामंजस्य स्थापित करते हुए अस्तित्व- अस्मिताबोध से सांगोपांग करती हैं। हालांकि स्त्री की गुमनाम संवेदनाएँ सदियों का सच है जिसे इतिहास के हर दौर में देखा गया है।
विनोद जी अपने प्रथम उपन्यास नौकर की कमीज मे स्त्री पात्रों का चित्रण मुख्यतः जातिवाचक संज्ञा में किया है। संज्ञा की वजह से वास्तविक पहचान लुप्त है जैसे- पत्नी, सास व डॉक्टर की पत्नी। एकबारगी को सामाजिक ढाँचे के अनुरूप प्रतीत होता है किन्तु यह चित्रण अप्रमाणिक व अधूरेपन का बोध कराते हैं। यहाँ स्त्री व्यक्ति न होकर सामाजिक वर्ग संरचना की प्रतिनिधि के रूप में नजर आती है। नामविहीन स्त्री, पुरुष-प्रधान व्यवस्था की परछाईं में जीती है। भाव- भावना के स्तर पर स्त्रियों की न जाने कितनी छोटी- छोटी इच्छाएँ दबी रह जाती हैं। वे घरेलू जिम्मेदारियों में बंधी, अपने स्वतंत्रता की झलक देती हैं। जिसे नाकाफ़ी कह सकते हैं। उपन्यास में संतू बाबू की पत्नी का चित्रण सहज व मार्मिक है। वह अपनी छोटी सी पेटी में लक्ष्मी की एक फोटो रखती है और अक्सर छिटके रुपये गिरने व गिनने की कल्पना करती रहती है। यह अभाव की दुनिया में स्त्री की भावुक आशा को छूने की मार्मिक अभिव्यक्ति की अवस्था का चित्रण करती हुई दिखाई पड़ती है, जहाँ स्त्री आर्थिक तंगी में भी घर को संभालने की कोशिश करती है, लेकिन पति के खर्चों से निराश भी होती है। स्त्रियों में स्वतंत्र व सुरक्षित रहने की इच्छा प्राथमिक होती है।
वृहत्तर दृष्टि में उच्च वर्ग की स्त्रियाँ साहब की पत्नी होती हैं जो शोषण की भागीदार नजर आती हैं। पतियों के पद का लाभ उठाकर नौकरों से अभद्रता से पेश आती हैं। काम करवाती हैं। जबकि अम्मा अर्थात् सास का चित्रण ममतामयी है- “नाटे कद की, दुबली-पतली, मुँह में एक भी दांत नहीं, सफेद बाल बिखरे हुए, बिल्कुल माँ की तरह।” वह बहू का पक्ष लेती है, जो पारंपरिक सास- बहू संबंधों से अलग एक संवेदनशील स्नेह बंधन का प्रतीक है। यहां स्त्री व्यवस्था के शिकंजे में फंसी है लेकिन अपनी भाषाई सादगी से असाधारण प्रतिभा का परिचय देती है। भावुक अपील की सी स्त्री- दुनिया कितनी अनकही और अनसुनी बातें समाज में प्रच्छन्न रह जाती हैं।
जबकि ‘खिलेगा तो देखेंगे’ उपन्यास आदिवासी जीवन में स्त्री- मुक्ति और विकृति की कथा- व्यथा के साथपूर्णतः आदिवासी समाज की सामुदायिक संरचना पर केंद्रित है। इस उपन्यास में स्त्री- दृष्टि स्वतंत्रता और बंधन के विरोधाभासों से बुनी गई है। सक्रिय स्त्रियाँ प्रेम, दुख और परिवर्तन में बढ़- चढ़कर हिस्सा लेती हैं बावजूद परिस्थिति, परिवेश और सभ्यता प्रभाव की विकृत से प्रभावित होती हैं। स्त्री की आंतरिक स्वतंत्रता सामाजिक प्रथाओं में क़ैद रहती है।
उपन्यास की किरदार डेरहिन है। जिसका चित्रण मोहक है। वह सुंदर है। गाय बाँधना जानती है पर रेडियो चलाने नहीं आता। उसका पति जिवराखन दिन भर रेडियो चलाता है। पति के प्रेम के डर से डेरहिन किसी अन्य को बुलाकर गाय बँधवाने से डरती है। वह पति से भी भयभीत है जिसे प्रेम कह रही है। दूसरे से सहयोग लेने का संकट अलग। अंततः वह थककर एक दिन मेला देखने जाती है और एक मुक्त स्वभाव के आदमी संग चली जाती है। यह प्रसंग आदिवासी समाज प्रथा में बंधन मुक्ति का प्रतीक भर है। “डेरहिन ऐसे आदमी की तलाश में थी जिसने जिवराखन से उधार न लिया हो। वह मेले में हो आई, पहाड़ी की ओर चली गई, मुक्त आदमी के साथ जिवराखन से मुक्त हो गई, पकड़ में नहीं आई।”
विनोद जी ने सभ्यता की विकृति को स्त्री के माध्यम से दर्शाया है। जब रेलगाड़ी में बैठी है उस स्त्री की तुलना ‘गदराये आम’ से करते हैं। यह लोक चित्रण ‘छिलका उतारकर आम खाने’ की तरह अत्याधुनिक अत्याचार का छिलका लगता है। यह दृश्य प्रथमदृष्ट्या असहज करता है, क्योंकि यहाँ स्त्री एक वस्तु बनने की प्रक्रिया में नज़र आती है। वह लिखते हैं कि “जब किसी एक से प्रेम करने का बंधन हो, चाहे प्रेम न हो, तो दूसरे से प्रेम होने का डर गृहस्थी की चौहद्दी को मजबूत बनाता है।” स्त्री का प्रेम डर का रूप ग्रहण कर लेता है। आदिवासी जीवन की मिथकीय प्रथाएं अक्सर भावुक करती हैं।
‘दीवार में एक खिड़की रहती थी’ निम्न मध्यवर्गीय दंपति रघुवर प्रसाद और सोनसी की प्रेम कथा है। स्त्री चित्रण सादगी, प्रेम और अभाव की मार्मिकता लिए है। सोनसी अभाव में भी परिवार को स्नेह से जोड़े रखती है। प्रसंगवश : रघुवर पत्नी के पास बढ़ते हैं, चिड़ियों का कलरव बढ़ता है और साबुन की बट्टी पानी में गिर जाती है, लेकिन वह ऊँची जगह पर पहुँचकर प्रेम को जीती है। दृश्य बेहद छोटा किंतु मर्मस्पर्शी है। प्रेम की गरमाहट में स्त्री ख़ुशियों की पोटली लिए फिरती है। स्त्रियाँ हर छोटी बात पर भी बड़ी जल्दी प्रसन्न हो जाती हैं।
“छोटी सी दुबली पतली, सफेद बाल, धुले कपड़े।” रघुवर की माँ की अदना सा झलक है। समस्त तनाव कम करने वाली संवेदनशील स्त्री जो चप्पल खोने पर भी चुप रहती है। एक ग्रामीण स्त्री का चित्रण में बूढ़ी अम्मा है। अम्मा चूल्हे पर चाय बनाती है और टूटे कप में खुद के लिए चाय ले लेती है। यह एक स्वाभिमानी स्त्री की अभिव्यक्ति है। सूक्ष्म दृष्टि से यहाँ स्त्री मूल्य रक्षक की भूमिका निभाती है। जीवन की विसंगतियों और विपरीत परिस्थितियों में भी ऊष्मा की द्योतक बनी रहती है।
उनकी रचना की स्त्री न विद्रोहिणी है और न शोषित वरन निरंतरता और ऊष्मा की धारा है। किसी अतिरेक के बग़ैर प्रकृति और दाम्पत्य की समानांतर अभिव्यक्ति अनूठा है। संवेदना की सघन अभिव्यक्ति चुप्पी और सादगी में छिपी है और स्त्री उनकी रचना की सबसे सुंदर अभिव्यक्ति है।
लेखिका आलोचक व कथाकार हैं
नई दिल्ली, drsunita82@gmail.com