संगीता झा
भारत के चार नए श्रम कोडों में से दो औद्योगिक संबंध संहिता 2020 और व्यावसायिक सुरक्षा, स्वास्थ्य एवं कार्य दशा संहिता 2020 देश भर की ट्रेड यूनियनों को खुली चुनौती दे दी है। उनका आरोप है कि ये कानून श्रमिकों के मूल अधिकार छीनकर पूंजीपतियों को खुली छूट दे रहे हैं।
सबसे बड़ा आघात हड़ताल के अधिकार पर पड़ा है। अब किसी भी प्रतिष्ठान में हड़ताल के लिए कम से कम 60 दिन पहले नोटिस देना अनिवार्य है। मध्यस्थता या अदालती कार्यवाही चल रही हो तो हड़ताल पूरी तरह प्रतिबंधित रहेगी। कार्यवाही खत्म होने के 60 दिन बाद तक भी हड़ताल नहीं की जा सकती। यूनियनों का कहना है कि यह प्रावधान उनकी सौदेबाजी की ताकत को पूरी तरह खत्म कर देगा।

दूसरा बड़ा झटका छंटनी के नियमों से लगा है। पहले 100 से अधिक कर्मचारियों वाले प्रतिष्ठान को छंटनी, लेऑफ या बंद करने के लिए सरकारी अनुमति लेनी पड़ती थी। नई संहिता ने यह सीमा बढ़ाकर 300 कर्मचारी कर दी। भारत में 90 प्रतिशत से ज्यादा औपचारिक इकाइयाँ 300 से कम कर्मचारियों वाली हैं। इसका मतलब साफ है कि अब ज्यादातर मालिक बिना किसी रोकटोक के सैकड़ों कर्मचारियों को एक झटके में रातों-रात बाहर का रास्ता दिखा सकेंगे। नौकरी की सुरक्षा लगभग खत्म हो जाएगी।
कार्य घंटों का नया प्रावधान भी श्रमिकों में गुस्से की वजह बना हुआ है। अब नियोक्ता कर्मचारियों से एक दिन में 12 घंटे तक काम करवा सकते हैं, बशर्ते साप्ताहिक सीमा 48 घंटे रहे। यूनियनों का कहना है कि 12 घंटे की शिफ्ट से थकान बढ़ेगी, दुर्घटनाएँ होंगी और श्रमिकों का परिवार से रिश्ता टूट जाएगा। खासकर ब्लू कॉलर और असंगठित क्षेत्र के मजदूर सबसे ज्यादा प्रभावित होंगे।
यूनियनों की मान्यता के नियम भी कमजोर पड़ गए हैं। अब एक से ज्यादा यूनियन होने पर बातचीत का अधिकार उसी यूनियन को मिलेगा जिसके पास 51 प्रतिशत से ज्यादा कर्मचारियों का समर्थन हो। बाकी यूनियनों को हाशिए पर धकेल दिया जाएगा। इससे नियोक्ता आसानी से मजदूरों को बाँटकर शासन कर सकेंगे।
इन सबके बीच उम्मीद की एक किरण भी है। सरकार अगर त्रिपक्षीय संवाद को मजबूत करे, छंटनी के बदले बेहतर मुआवजा और री–स्किलिंग अनिवार्य करे, गिग वर्कर्स के लिए सामाजिक सुरक्षा को वास्तविक बनाए, तो संतुलन कायम हो सकता है। दूसरी ओर यूनियनों को भी रणनीति बदलनी होगी अब गिग और प्लेटफॉर्म वर्कर्स को संगठित करना, डिजिटल अभियान चलाना और डेटा आधारित लड़ाई लड़ना समय की मांग है।
विकास और श्रमिक अधिकारों में संतुलन जरूरी है। अगर सरकार, यूनियनें और आम जनता अभी नहीं जागे तो सड़कों पर नया संघर्ष तय है।
बिलासपुर, छत्तीसगढ़