Supreme Court सुप्रीम कोर्ट की पहल

Supreme Court

अजय दीक्षित

Supreme Court सुप्रीम कोर्ट की पहल

Supreme Court भारत कानूनी रूप से महिला अधिकारों को लेकर दुनिया के तमाम देशों से आगे रहा है, जिसे समय समय पर आने वाले शीर्ष अदालत के फैसलों ने संबल दिया । एक हालिया फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने महिलाओं के अपने शरीर पर अधिकार की अवधारणा को एक बार फिर स्थापित ही किया है । निश्चय ही इस फैसले के आलोक में भविष्य में महिला अधिकारों को पुख्ता करने में मदद मिलेगी । दरअसल, सुप्रीम कोर्ट ने गर्भ का चिकित्सीय समापन यानि एमटीपी अधिनियम के तहत विवाहिताओं के साथ ही अविवाहित महिलाओं को गर्भावस्था के 24 माह तक सुरक्षित व कानूनी रूप से गर्भपात का अधिकार दिया है ।

Supreme Court  कोर्ट की दलील थी कि महिलाओं के साथ विवाहित व अविवाहित होने के आधार पर किसी तरह का भेदभाव संवैधानिक रूप से तार्किक नहीं कहा जा सकता। वहीं इसके अलावा कोर्ट ने यह भी कहा कि बलात्कार के अपराध की व्याख्या में वैवाहिक बलात्कार को भी शामिल किया जाये जिससे एमटीपी अधिनियम का मकसद पूरा हो सके। दरअसल, बदलते वक्त के साथ भारतीय समाज में रिश्तों के स्वरूप में आ रहे बदलावों व महिला अधिकारों के विस्तार के नजरिये से कोर्ट ने अधिनियम के मकसद को परिभाषित किया है।

Supreme Court निस्संदेह, जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़, जस्टिस जेबी पारदीवाला तथा जस्टिस एएस बोपन्ना की पीठ के ताजा फैसले ने महिला सशक्तीकरण की अवधारणा को ही संबल दिया है । साथ हो स्पष्ट किया कि महिला के शरीर पर पहला हक स्त्री का है, जिसको विवाहित व अविवाहित होने के चलते किसी अधिकार से वंचित नहीं किया जा सकता । उल्लेखनीय है कि एमटीपी अधिनियम के तहत गर्भपात के जिन नियमों का उल्लेख है शीर्ष अदालत ने उन्हें अधिक स्पष्टता दी है ।

Supreme Court जिसका संदेश यह भी कि नये दौर के भारत में स्त्री को अपनी देह से जुड़े फैसलों को लेने का पूरा हक है । वह बात अलग है कि देश के एक बड़े तबके में अभी यह प्रगतिशील सोच विकसित नहीं हो पायी है । निस्संदेह, पुरुष वर्चस्व वाले समाज में स्थितियां आज भी काफी जटिल हैं जिसके मूल में अशिक्षा व गरीबी की बड़ी भूमिका रही है ।

Supreme Court यह वजह है कि शीर्ष अदालत के तमाम प्रगतिशील फैसले व्यवहार में उतने प्रभावकारी नहीं हो पाते । यदि देश में पुख्ता कानून सामाजिक बदलाव के वाहक नहीं बनते तो उन्हें क्रियान्वित करने वाली एजेन्सियों की कारगुजारियों का मूल्यांकन करना समय की जरूरत है । साथ ही लोगों की सोच बदलने के लिये रचनात्मक पहल करने की जरूरत भी । जिससे महिलाओं से जुड़े कानूनों का वास्तविक लाभ उन्हें मिल सके । तभी महिलाओं की सुरक्षा को हकीकत बनाया जा सकेगा ।

Supreme Court उन्हें बताना होगा कि उनकी सहमति के विशिष्ट मायने हैं ताकि वे किसी भी तरह की ज्यादती का प्रतिरोध कर सकें । उल्लेखनीय है कि शीर्ष अदालत का हालिया फैसला एक पच्चीस वर्षीय अविवाहिता की याचिका पर आया, जिसे उच्च न्यायालय में याचिका दायर करने पर राहत नहीं मिल सकी थी । जिसके बाद वह शीर्ष अदालत पहुंची, इस मामले के आलोक में कोर्ट की नयी व्याख्या सामने आई । जिसके बारे में तीन सदस्यीय पीठ की स्पष्ट राय थी कि किसी महिला को यह अधिकार न देना उसकी अस्मिता से खिलवाड़ ही है । निस्संदेह, जब अमेरिका समेत तमाम विकसित देशों में भी महिलाओं को गर्भपात से जुड़े पर्याप्त अधिकार नहीं मिल पाये हैं, भारतीय न्यायिक व्यवस्था की प्रगतिशीलता हमें शेष दुनिया से आगे रखती है ।

Supreme Court दुनिया में सौ देश भी ऐसे नहीं हैं जहां गर्भपात को लेकर स्पष्ट कानूनी दृष्टि हो । ऐसे में शीर्ष अदालत की हालिया व्याख्या महिलाओं के अधिकारों को मजबूती देती है । जो एक तरफ स्त्री की व्यक्तिगत स्वायत्तता को स्थापित करती है । वहीं उसको प्रजनन विकल्पों को चुनने की आजादी देती है । अदालत ने इस हक से लिव-इन रिलेशन में रहने वाली महिलाओं को भी अधिकार संपन्न बनाया है । अब वे गर्भावस्था के 24 सप्ताह तक सुरक्षित व कानूनी गर्भपात की हकदार हो सकेंगी ।

दरअसल, यूं तो देश में गर्भपात ‘कानून पिछले पांच दशक से प्रभावी हैं लेकिन लडक़े की प्राथमिकता और कन्या भ्रूण के गर्भपात के मद्देनजर गर्भावस्था को समाप्त करने के कानूनों में कुछ कड़े प्रावधानों को शामिल किया गया था ।

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