हिन्दी दिवस की आत्ममुग्धता और आत्मगौरव का अभाव

विकास शर्मा। हिन्दी दिवस पर ‘सोशल मीडिया’ में हिन्दी के सम्मान और गर्व से भर देने वाली पंक्तियाँ , चित्र और हिन्दी के महान साहित्याकारों के गीत, कविताएं और कथन द्रुत गति से तैर रही हैं। कई समाचार पत्रों में अनेक विज्ञापन के साथ विभिन्न संस्थानों का इस भाषा के लिए प्रेम भी हिलोरे मार रहा है। गर्व इस बात पर होना भी चाहिए कि हिन्दी संख्यात्मक रूप से विश्व की तीसरी सबसे अधिक बोली जाने वाली भाषा है और उससे आगे यह हमारी भाषा है। भारत के हिन्दी एत्तर भूभाग के साथ विदेशों में भी इस भाषा को सम्मान मिले इसी लिए हिन्दी दिवस मनाने की शुरूआत हुई। इसी कड़ी में कई आयोजन होते हैं जिसके मूल में हिन्दी के विकास की भावना जुड़ी रहती है। संयोग से इस बार हिन्दी दिवस रविवार को पड़ गया है सो शासकीय संस्थानों में आज हिन्दी दिवस के आयोजन शायद नहीं होंगे क्योंकि हिन्दी की सेवा के संकल्प के आगे अवकाश का रोड़ा है। वैसे इससे भी बड़ी विडंबना तो यह है कि हिन्दी को राजकाज की भाषा घोषित करने वाले राज्यों में भी हिन्दी ईमानदारी से ‘राज’ नहीं कर पा रही है।

पहचान तो है पर अभिमान नहीं

हिन्दी निःसंदेह देश के करोड़ों लोगों की पहचान से जुड़ी है। उत्तरप्रदेश , बिहार , मध्यप्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़, हिमाचल प्रदेश,दिल्ली और झारखण्ड जैसे बड़े भू-भाग में अनेक भाषाएं जनभाषा के तौर पर स्थापित हैं पर सभी से निकटता होने और संपर्क भाषा होने के कारण हिन्दी हमारी पहचान से जुड़ती भी है। बावजूद इसके व्यवहारिक जीवन में हिन्दी के प्रति समाज के बहुसंख्यक लोग जहाँ सम्मान का भाव तो रखते हैं पर उसके प्रति गौरव का एहसास नहीं करते हैं। इस विरोधाभास के पीछे संभव है हमारे समाज के प्रबुद्ध, प्रतिष्ठित और अगुवा लोगों का हिन्दी के प्रति रवैया हो।

बढ़ने के साथ मजबूत नहीं हुई हिन्दी

यह सच है कि बीते एक शताब्दी में हिन्दी भाषा के तौर पर काफी विस्तारित हुई है। स्वतंत्रता के बाद शासकीय प्रयासों के साथ ही मनोरंजन, खेल, व्यवसाय आदि के माध्यम से हिन्दी देश के हर हिस्से में पहुँची। अहिन्दी भाषी प्रांतों में भी सहजता से आगे बढ़ी। विदेशों में भी हिन्दी को जानने वाले बढ़े। इन सबके बीच सच्चाई यह भी है कि हिन्दी को मजबूत करने की दिशा में प्रयास नहीं हुए। नई आवश्यकताओं के लिए भाषा को शब्द गढ़ने और विकसित करने पड़ते हैं पर इस दिशा में मानों सुलभ तरीका निकाला गया कि जो शब्द जहाँ से आए उसे स्वीकार कर लिया जाए। इस क्रम में अंग्रेजी समेत अन्य देशों की भाषा से शब्द इतनी तेजी से हिन्दी में शामिल हो गए कि जो हिन्दी इस देश की मिट्टी से विकसित हुई है वह परदेशी भाषा के भरोसे से चल रही है। हालात तो यह हैं कि हिन्दी के संवाद में अधिकांश विदेशी भाषा के शब्द होते हैं। नए शब्द गढ़ने और किसी दूसरी भाषा से सीधे ले लेने में बहुत अंतर होता है।

नाम पट्टिका से लेकर हस्ताक्षर तक अंग्रेजी

हिन्दी पर गर्व करने की बातें अपने को भरमाने के लिए अच्छी है पर कभी हमने विचार किया है कि व्यवहारिकता में घर पर हम अपनी नाम पट्टिका अंग्रेजी में लगाने से लेकर अपने हस्ताक्षर तक अंग्रेजी में करते हैं । विवाह के निमंत्रण से लेकर शुभकामना संदेशों में हिन्दी या तो पिछड़ती जा रही है या सिमटने की ओर अग्रसर है। हिन्दी के विस्तारित होने के समाचारों के बीच हिन्दी माध्यम विद्यालयों के लगातार घटने और शहर के गली मुहल्लों से लेकर गाँव कस्बों में खुलते अंग्रेजी माध्यम के विद्यालयों से हिन्दी के प्रति हमारी सोच को बेहतर समझ सकते हैं। यह स्थिति एक दिन में निर्मित नहीं हुई है। असल में स्वतंत्रता के बाद भी राजनीतिक दलों ने हिन्दी को राजनीतिक लाभ हानि की दृष्टि से देखा वहीं सिपहसलारों ने भाषा के मामले में हिन्दी को बोझिल, अपरिपक्व और कमजोर साबित करने में कोई कमी नहीं छोड़ी। ये बातें जितनी कड़वी हैं उतनी ही सच भी। अनेक नियमों, परिपत्रों और कथित प्रयासों के बाद भी आज किसी विधिक पत्राचार , चिकित्सकीय कार्य , कोषालयों से जुड़े कार्य आदि के लिए आम नागरिक को अंग्रेजी दस्तावेज ही दिए जाते हैं। सरकारी कार्यालयों तथा संस्थानों के बड़े आयोजन, परिचर्चा , विमर्श आदि में भी अंग्रेजी का आधिपत्य होता है अथवा अंग्रेजी से प्रभावित होती है। हिन्दी में शासकीय कार्य करने वाले शासकीय कार्यालयों, उपक्रमों की दुर्दशा भी सभी के सामने है। अब तो यहाँ भी नाम पट्टिकाएँ, आदेश , परिपत्र, निविदा, विज्ञापनों, नस्तियों से लेकर सामान्य कामकाज में अंग्रेजी ही प्रमुख हो चुकी है।

हिन्दी को पीछे छोड़ हिन्गलिश हुई पीढ़ी

आज की पीढ़ी जिस भाषा को हिन्दी कह रही है असल में उसने हिन्दी का चोला छोड़ हिन्गलिश का रूप धारण कर लिया है। आपसी संवाद से लेकर साहित्य भी इसी हिन्गलिश में लिखी पढ़ी जा रही है। वे सभी हिन्दी के शब्द जो दो दशक पहले तक बहुत ही आम प्रचलन में थे वे इस पीढ़ी को कालबाह्य लगने लगे हैं, वे ऐसे सहज हिन्दी शब्दों के प्रति बड़े अचरज के साथ कई बार उपेक्षापूर्ण व्यवहार करते हैं मानों जो ऐसे शब्द का प्रयोग कर रहा है वो कम शिक्षित और पुरातन है। ऐसी दशा हिन्दी की हो रही है तो विचार सभी को करना चाहिए क्योंकि भाषा को नदी की धारा बताकर हम हिन्दी के सम्मान को नष्ट नहीं कर सकते हैं। यह सच है कि कोई भी भाषा अन्य भाषाओं से शब्द लेकर अपने को समृद्ध करती है पर यह भी सच है कि नदी तभी तक नदी होगी जब वह अपनी पहचान न खो दे।

प्रतीकात्मकता से कब आएंगे बाहर

यह सार्वजनिक मंचों पर हिन्दी के गौरवगान में तो अच्छी लगती है कि हिन्दी को कई अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर सम्मान दिया जा रहा है पर इस विरोधाभास को क्या कहें कि उसी हिन्दी को निजी ही नहीं शासकीय क्षेत्र के आयोजनों में भी यथोचित सम्मान के लिए जूझना पड़ता है। विज्ञापनों में आमजन को अपील कर सकती है पर उसी हिन्दी को प्रतिष्ठित स्थानों पर यथोचित सम्मान के लिए प्रतीक्षा करनी पड़ती है। क्यों न इस हिन्दी दिवस पर ‘सोशल मीडिया’ और किसी शासकीय औपचारिक कर्मकांडों से इतर होकर अपनी हिन्दी को अपने आत्मगौरव से जोड़े, अपने सम्मान की भाषा को पहले स्वयं सम्मान दें, आपसी और औपचारिक स्थानों पर भी हिन्दी बोलते, लिखते और पढ़ते हुए गर्व करें। क्यों न भाषा के विकास और सम्मान को सरकारों की दया पर न छोड़ते हुए स्वयं आगे बढ़े और इतना शक्तिशाली बनाए कि सभी क्षेत्र में हिन्दी को बढ़चढ़कर सम्मान देने के लिए बाध्य होना पड़े।

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