Sawan season festival Kajri : पिया मिलन की आस में लज्जा से सकुचाई विरह की शूल सी वेदना एवं आदिकाल से कवियों की रचनाओं का श्रृंगार उन्हें जीवंत करने वाली कजरी को कहा गया है लोकगीतों की रानी

Sawan season festival Kajri :

Sawan season festival Kajri : सावन के सौंदर्यबोध और उल्लास का ऋतु पर्व कजरी

 

Sawan season festival Kajri : प्रयागराज !  पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार में गाया जाना वाला “ कजरी” प्रसिद्ध लोकगीत है जो विशेष रूप से सावन में गाया जाता है। इस लोकगीत में श्रृंगार और विरह का अद्भुत संयोजन देखने को मिलता है और इसी कारण इसे सावन के सौंदर्य और उल्लास का ऋतु पर्व कहा जाता है।

पिया मिलन की आस में लज्जा से सकुचाई सजी-धजी नवयौवना की आसमान छूती खुशी और विरह की शूल सी वेदना एवं आदिकाल से कवियों की रचनाओं का श्रृंगार कर उन्हें जीवंत करने वाली कजरी को लोकगीतों की रानी कहा गया है।

आदिकाल से कवियों की रचनाओं का श्रृंगार कर, उन्हें जीवंत करने वाली ‘कजरी’ सावन की हरियाली बहारों का मिलन है। मौसम और यौवन की महिमा का बखान करने के लिए परंपरागत लोकगीतों का भारतीय संस्कृति में कितना महत्व है-कजरी इसका उदाहरण है। हमारे यहां भले ही इनका महत्व कम हो गया है, लेकिन भारत के बाहर सूरीनाम, त्रिनिदाद, मारिशश आदि देशों में भारतवंशी पारंपरिक लोकगीतों को जीवित रखा है।

 

Sawan season festival Kajri : सावन के सौंदर्यबोध और उल्लास का ऋतु पर्व कजरी

कजरी वह विधा है जिसमें सावन, भादों के प्रेम, वियोग और मिलन का चेहरा सामने आता है। मतवाले सावन में विरहिन का दिल कांपता ही नहीं, झूमता भी है। हृदय में तड़प पैदा होने, हूक सी उठने की भी अपनी एक खास वजह होती है। सावन का सौंदर्य और कजरी की धुनों की मिठास वर्षा बहार का जो वर्णन लोक गायन की विधा कजरी में है वह कहीं और नहीं। इसमें श्रृंगार और वियोग रस की प्रधानता होती है। यह वर्षा ऋतु का लोकगीत है। इसे वर्षा ऋतु में गाया जाता है।

राष्ट्रपति रामनाथ कोबिंद ने वर्ष 2022 में कला के लिए मिर्जापुर की नामचीन लोकगीत कजरी गायिका अजिता श्रीवास्तव को ‘पद्मश्री” अवार्ड से सम्मानित किया है। अजिता श्रीवास्तव ने “यूनिवार्ता” को बताया कि आधुनिक हिंदी साहित्य के पितामह कहे जाने वाले भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने भी अनेक कजरियों की रचना कर लोक-विधा से हिन्दी साहित्य को सुसज्जित किया। उन्होने कजरी गीतों में प्रेम, श्रृंगार और विरह विषयक को बखूबी से चित्रित किया है। उन्होंने ब्रज और भोजपुरी के अलावा संस्कृत में भी कजरी कि रचना की है।

स्तव ने वर्ष 2020 में राज्यपाल आनंदी बेन पटेल ने कजरी विधा के लिए उत्तर प्रदेश सरकार संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार प्रदान किया। काशी हिंदू विश्वविद्यालय से परास्नातक गोरखपुर विश्वविद्यालय से बीएड और प्रयाग संगीत समिति से संगीत प्रभाकर कर संगीत में महारत हासिल कर मिर्जापुर को अपनी कर्मभूमि बनाने वाली गायिका शिक्षिका पद से सेवानिवृत हो चुकी है। वह कजरी विधा को आगे बढाने के प्रयास में प्रयासरत हैं। कजरी के वर्ण्य-विषय ने जहाँ एक ओर भोजपुरी के सन्त कवि लक्ष्मीसखी, रसिक किशोरी आदि को प्रभावित किया, वहीं अमीर ख़ुसरो, बहादुरशाह ज़फर, सुप्रसिद्ध शायर सैयद अली मुहम्मद ‘शाद’, हिन्दी के कवि अम्बिकादत्त व्यास, श्रीधर पाठक, द्विज बलदेव, बदरीनारायण उपाध्याय ‘प्रेमधन’ आदि भी कजरी के आकर्षण मुक्त नहीं रह सके।

 

Sawan season festival Kajri : सावन के सौंदर्यबोध और उल्लास का ऋतु पर्व कजरी

उन्होंने बताया मिर्जापुर की प्रसिद्ध कजरी गायिका कजरी गीत का एक प्राचीन उदाहरण तेरहवीं शताब्दी का, आज भी न केवल उपलब्ध है बल्कि गायक कलाकार इसको अपनी प्रस्तुतियों में प्रमुख स्थान देते हैं। यह कजरी अमीर ख़ुसरो की बहुप्रचलित रचना “अम्मा मेरे बाबा को भेजो जी कि सावन आया…।” भारत में अन्तिम मुग़ल बादशाह बहादुरशाह ज़फर की एक रचना-“झूला किन डारो रे अमरैयाँ…” भी बेहद प्रचलित है।

लोक संगीत का क्षेत्र बहुत व्यापक होता है। साहित्यकारों द्वारा अपना लिए जाने के कारण कजरी गायन का क्षेत्र भी अत्यंत व्यापक हो गया। इसी प्रकार उप-शास्त्रीय और शास्त्रीय गायक और गायिकाओं ने भी कजरी को अपनाया और इस शैली को रागों का बाना पहनाकर क्षेत्रीयता की सीमा से बाहर निकाल राष्ट्रीयता का दर्जा प्रदान किया। ‘भारतरत्न’ सम्मान से अलंकृत उस्ताद बिस्मिल्ला खान की शहनाई पर तो कजरी और भी मीठी हो जाती थी।

उन्होंने बताया कि ऋतु प्रधान लोक-गायन की शैली कजरी का फ़िल्मों में भी प्रयोग किया गया है। हिन्दी फ़िल्मों में कजरी का मौलिक रूप कम मिलता है, किन्तु 1963 में प्रदर्शित भोजपुरी फ़िल्म ‘बिदेसिया’ में इस शैली का अत्यन्त मौलिक रूप प्रयोग किया गया। इस कजरी गीत की रचना अपने समय के जाने-माने लोक गीतकार राममूर्ति चतुर्वेदी ने की थी।

चरक संहिता में तो यौवन की संरक्षा और सुरक्षा के लिए बसन्त के बाद सावन महीने को ही सर्वश्रेष्ठ बताया गया है। सावन में नई ब्याही बेटियां अपने पीहर वापस आती हैं और बगीचों में भाभी और बचपन की सहेलियों संग कजरी गाते हुए झूला झूलती हैं। अब न/न तो कजरी के कलाकार रहे और न ही कद्रदान। जैसे जैसे पुरानी पीढ़ी खत्म होती जा रही कजरी भी दम तोड़ती जा रही है। अब न कोई सिखने वाला है और न ही सीखने वाला। नये लोग इसे हीन भावना से देखते हैं और इसे सीखने का प्रयास भी नहीं करते।

 

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पद्मश्री पुरस्कार प्राप्त सेवानिवृत शिक्षिका ने बताया कि कजरी महिलाओं द्वारा सामूहिक रूप से गाया जाने वाला लोकगीत है। बिहार और उत्तर प्रदेश की कजरी लोकगायन की वह शैली है जिसमें परदेस कमाने गए पुरूषों की पत्नियाें के बिछुडन का वियोग और मिलन के सौंदर्य के बखान गीतो के माध्यम से व्यक्त करती हैं।

सावन एवं भादों का महीना प्रकृति के और नजदीक ले जाता है। झूला झूलने के दौरान गाये जाने वाले मधुर गीत मन को सुकून पहुंचाने वाले होते हैं। कजरी विरहगीत की प्रतिद्वन्दता है तो सखी, सहेलियां, भाभी-ननद के आपसी मिठास और खटास के साथ सावन की मस्ती का रंग घुला होता है। वधु और बालायें हिंडोले पर बैठकर जब कजरी गाती है, वर्षा ऋतु में यह गीत पपीहा, बादलों तथा पुरवा हवाओं के झोंकों से अत्यंत कर्ण प्रिय बन जाता है।

कजरी’ की उत्पत्ति कब और कैसे हुई, इसका कोई ठोस प्रमाण नहीं मिलता। परन्तु यह तो निश्चित है कि मानव को जब स्वर और शब्द मिले और जब लोक जीवन को प्रकृति का कोमल स्पर्श मिला होगा, उसी समय से लोकगीत हमारे बीच हैं। प्राचीन काल से ही उत्तर प्रदेश का मिर्जापुर माँ विंध्यवासिनी के शक्तिपीठ के रूप में आस्था का केन्द्र रहा है। अधिसंख्य प्राचीन कजरियों में शक्तिस्वरूपा देवी का ही गुणगान मिलता है। कजरी गायन का प्रारम्भ देवी गीत से ही होता है। इससे यही माना जाता है कि कजरी गीत मिर्जापुर से ही शुरू हुआ।

 

Sawan season festival Kajri : सावन के सौंदर्यबोध और उल्लास का ऋतु पर्व कजरी

इतनी समृद्धशाली लोकगीत कजरी बदलते समय के साथ लोगों का रुझान से दूर होती गयी। पाश्चात्य संस्कृति का चोला ओढ़ने की आतुरता ने लोकगीतों की ‘रानी’ कजरी के गायको और कद्रदानो को लीलना शुरू कर दिया जिसके चलते परंपरागत गीत शैली को आज अपनी अस्मिता बचाने के लिए संघर्ष करना पड़ रहा है।

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