कविता – पंचतत्व

श्रुति कुशवाहा

मैंने तुम्हें देख

आकाश-सी

विस्तृत हो गई कल्पनाएँ

पृथ्वी-सा

उर्वर हो गया मन

सारा जल

उतर आया आँखों में
अग्नि

दहक उठी कामना की

विचारों को मिल गए

वायु के पंख

देखो न कितना अच्छा है

देखना तुमको

भाषा

मेरे पास

वो भाषा नहीं है

जिसमें मैं

तुम्हें अलविदा कह सकूँ

तो जब तुम जाओ

जाते-जाते उस भाषा को

याद करना जिसमें मैंने प्रेम कहा था

प्रेम को अलविदा कहना

अभी भाषा ने सीखा नहीं

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