बस्तर में बदलाव अब सिर्फ विकास कार्यों या सरकारी योजनाओं में नहीं, बल्कि उन चेहरों में दिखाई दे रहा है जो कभी शिक्षा को सत्ता का षड्यंत्र मानकर खारिज कर देते थे। जिन हाथों में कभी हथियार चमकते थे, आज वही हाथ परीक्षा कक्ष में उत्तर बही थामे दिखे। अल्फ़ाबेट और स्वर-व्यंजन को “सरकारी प्रचार” कहने वाले माओवादी अब इन्हीं अक्षरों से अपने भविष्य की नई इबारत लिख रहे हैं।

आड़ावाल स्थित नक्सली पुनर्वास केंद्र में रह रहे 30 आत्मसमर्पित माओवादी—25 पुरुष और 5 महिलाएँ—पहली बार जीवन में परीक्षा देने बैठे। यह सिर्फ परीक्षा नहीं, उस अंधेरे से बाहर आने की यात्रा है जिसमें बस्तर की पीढ़ियाँ वर्षों तक कैद रहीं। दक्षिण बस्तर का वह दौर अभी भी यादों में ताजा है जब सैकड़ों स्कूल धू-धू कर जलाए गए थे और हजारों बच्चों ने किताबों से पहले बंदूकें देखीं। मगर अब हवा बदल रही है—धीमी ही सही, पर दृढ़ता के साथ।
उल्लास महापरीक्षा में शामिल ये पूर्व माओवादी केवल अक्षर सीखने नहीं आए, वे अपनी पहचान भी नया रूप दे रहे हैं।
नवभारत साक्षरता कार्यक्रम के अंतर्गत असाक्षर लोगों को शिक्षा से जोड़ा जा रहा है। जिन प्रतिभागियों ने 200 घंटे की पढ़ाई पूरी कर ली, उन्होंने महापरीक्षा दी; बाकी लोग ‘स्वागत परीक्षा’ के जरिए इस प्रक्रिया में शामिल हुए। पूरे बस्तर में इस परीक्षा को लेकर अद्भुत उत्साह देखा गया—
771 परीक्षा केंद्रों पर 36 हजार परीक्षार्थियों ने हिस्सा लिया।
केवल पुनर्वास केंद्र ही नहीं, जगदलपुर केंद्रीय जेल के 40 पुरुष और 30 महिला बंदी भी परीक्षा में शामिल हुए। यह सिर्फ एक साक्षरता कार्यक्रम नहीं, बल्कि उस प्रदेश की कहानी है जहाँ कभी “लाल सलामी” की आवाजें गूंजती थीं, और आज पन्नों की सरसराहट में उम्मीद की धुन सुनाई दे रही है।