Munshi Premchand मेरी तो किस्मत ही सोई है, मेरे पेट काटकर क्या धनवान हो जाएंगे
नाटक बूढ़ी काकी देख भाव विभोर हुए दर्शक
Munshi Premchand रायपुर । मुंशी प्रेमचंद एक बार फिर अपनी कृति ‘बूढ़ी काकी’ के माध्यम से मंच पर जिंदा हो गए। मौका था प्रेमचंद की जयंती पर आयोजित नाट्य मंचन का। इस अवसर पर रचना मिश्रा के निर्देशन में ‘बूढ़ी काकी’ नाट्य की प्रस्तुति हुई वहीं कफ़न कहानी का नाट्य पाठ किया गया।
Munshi Premchand कलाकारों ने मुंशी प्रेमचंद की कहानी बूढ़ी काकी का सजीव मंचन किया। इसे देख दर्शक भावविभोर हो गए। उनकी आंखें नम हो गई। कलाकारों के इस मंचन की सभी ने सराहना की। सामाजिक सरोकारों और यथार्थवादी लेखन के सिरमौर मुंशी प्रेमचंद के नाटक बूढ़ी काकी की कहानी एक बूढ़ी औरत के इर्दगिर्द घूमती है। यह जीवन के अंतिम पड़ाव के वक्त भी छोटी-छोटी चीजों के प्रति रुझान रखती है और उनको पाना चाहती है। बूढ़ी काकी में स्वाद के अतिरिक्त और कोई भी ख्वाहिश नहीं बची थी।
Munshi Premchand नाटक में दिखाया जाता है कि वह अब अपने कष्टों को लेकर हमेशा रोती रहती थी। उसके पतिदेव को स्वर्ग सिधारे काफी समय हो चुका होता है। बेटे जवान होकर चल बसे थे। अब बूढ़ी काकी का भतीजे बुद्धिराम के सिवाय और कोई न था। उसके भतीजे के बड़े लड़के का तिलक आता है तो घी और मसाले की सुगंध चारों ओर फैल जाती है। बूढ़ी काकी इस स्वाद से बेचैन होकर खाना खाने पहुंच जाती है। कई मेहमान चौक कर खड़े हो जाते हैं कि आखिरकार मैले-कुचैले कपड़े पहनकर कौन-सी बूढ़ी औरत आ गई। इस पर पंडित बुद्धिराम काकी को देखते ही क्रोध से तिलमिला उठते हैं और उसे अंधेरी कोठरी में ले जाकर बंद कर देते हैं। बुद्धिराम की पत्नी भी गुस्सा होती है। देर रात जब बूढ़ी काकी को भूख लगती है तो वह जूठे पत्तलों के पास बैठकर जूठन खाने लगती है। अचानक यह सब देखकर बुद्धिराम की पत्नी को ग्लानि होती है और वह काकी से माफी मांग कर खाना खाने को बोलती है।
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वहीं मुंशी प्रेमचंद द्वारा रचित कफन कई सामाजिक संदेश देता है। इस कहानी के तीन पात्र घीसू (पिता), माधव (पुत्र) तथा बुधिया इनकी पत्नी थी। बुधिया का चरित्र मूक है। पूरी कहानी घीसू व माधव के इर्द गिर्द घूमती है। यह दोनों बहुत ही आलसी, कामचोर, शराबी, गैर जिम्मेदार पात्र थे। परिवार की आर्थिक स्थिति बहुत ही नाजुक थी। पिछले वर्ष ही माधव का विवाह बुधिया से हुआ था। बुधिया गर्भवती थी वह दर्द से कराह रही थी और इधर बाप बेटे भुंजे हुए आलू खा रहे थे। आखिर वह दर्द से कराहती रहती है और आखिर में मार जाति है।