मनीषा तिवारी
लिंग समानता एवं नारी स्वतन्त्रता की वैचारिक बहस इतनी दूर तक चली गयी है कि इस विषय की जमीनी हकीकत को पलट कर देखने का समय अब किसी के पास नहीं रह गया है. हमारे देश मे वर्तमान मे हुए श्रम कानूनों के बदलाव मे लिंग समानता पर ज़ोर देने के पूर्व इस विषय के व्यावहारिक पक्ष पर विचार किए बिना यह समझ लिया गया कि लिंग समानता के विषय पर हम एक आदर्श स्थिति प्राप्त कर चुके हैं.

हालांकि आधुनिकता और स्त्री पुरुष समानता की चर्चा के इस दौर में बहस तो इस तर्क पर होनी चाहिए थी कि एक महिला ही होम मेकर क्यों हो बल्कि एक पुरुष क्यों नहीं, या फिर यह भी कि महिला ही घर गृहस्थी प्रबंधन की जिम्मेवारी में क्यों देखी जाए,एक पुरुष क्यों नहीं? लेकिन चूंकि हम अभी तक महिलाओं के प्रति अपनी सोच और रहन-सहन के इतने रैशनल, उदार और आधुनिक (एडवांस) स्तर पर व्यवहारिक रूप से नहीं पहुँच पाएँ है इसलिए हमारी चर्चा इस तर्क तक सीमित है कि एक महिला को उसकी दोहरी ज़िम्मेदारी निभाने से धीरे–धीरे मुक्त करने के रास्ते कैसे निकालें जाए ताकि वह भविष्य मे स्वयं द्वारा चयनित कार्यक्षेत्र मे एक सफल और सक्षम उत्पादक साबित हो. भारत शासन द्वारा जारी नए श्रम संहिता में नीति निर्माताओं ने महिला की वास्तविक और व्यवहारिक स्थिति का समुचित आकलन किए बगैर महिलाओं के लिए उन उपबंधों को शामिल कर लिया है, जो महिला के पारिवारिक और नौकरीपेशा जीवन में गंभीर असंतोष पैदा करने के लिए काफी हैं, जैसे;
काम के अधिक घंटे, नाइट शिफ्ट और पुरुष–समान उपलब्धता की मांग
बढ़ाए गए कार्य दिवस/घंटे हालांकि किसी भी मनुष्य को और उसकी कार्यक्षमता को विपरीत रूप से प्रभावित करने के लिए सक्षम है, परंतु यह उन कामकाजी महिलाओं के लिए और भी संकट पैदा करती हैं जो बमुश्किल अपनी निम्नतम मजदूरी पर अपना व अपने परिवार का गुजारा करती है, एवं जो घर के कामो के सहयोग के लिए, आवागमन के सरल-सुलभ साधनो के लिए और बच्चे की देखभाल के लिए आवश्यक पेड हेल्प का सहयोग लेने की स्थिति मे नहीं है. कानून का उद्देश्य समानता होना चाहिए, लेकिन समानता तभी सार्थक है जब वह वास्तविक परिस्थितियों और असमान शुरुआत को ध्यान में रखे. यह कानून भारतीय समाज मे महिला और पुरुष की बंटी हुई जिंदगी को ना ही चिन्हित करके तैयार हुआ है न ही हाइ क्लास कॉर्पोरेट जॉब मे कार्यरत महिला और निम्नतम मजदूरी पर दिहाड़ी करती महिला की रोज जीवन जीने की चुनौतियों मे ही फर्क कर पाता है.
सैद्धांतिक रूप से इस नाइट शिफ्ट जैसे उपबंध को महिला के पक्ष मे दिखाया गया है लेकिन नौकर और मालिक के सबन्धो के मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण से इस उपबंध के अनुपालन के दौरान यह अति अव्यवहारिक प्रतीत होता है और महिलाओं को उनके नियोजकों द्वारा रात्रिकालीन शिफ्ट पर काम करने हेतु दबाव बनाने का बहुत सरल रास्ता तैयार करता है. अब यह कानून ने महिलाओं की नौकरी चुनने और शिफ्ट चुनने की अपनी स्वतन्त्रता पर व्यवहारिक पूर्ण विराम लगा दिया है हालांकि सद्धांतिक रूप से यह महिला नौकरों की पसंद और ईक्षा का समान करता हुआ प्रतीत होता है.
परिवार की परिभाषा में एक बड़ा परिवर्तन
अब महिला कर्मचारी को अपने आश्रित सास-ससुर को स्वास्थ्य बीमा कवरेज में शामिल करने की छूट मिल गयी है. हालांकि यह नई परिभाषा अधिक “समावेशी” दिखती है, लेकिन यह समावेशन व्यवहार में एकतरफा है क्योंकि यह पुरुष कर्मचारियों पर यह दबाव नहीं बनाता है कि वे अपने सास-ससुर को बीमा में शामिल करें. श्रम संहिताएँ पुरुषों को उनकी पत्नी के माता-पिता को आश्रित मानने के लिए बाध्य या प्रोत्साहित नहीं करतीं. यही लैंगिक असमानता का सबसे स्पष्ट उदाहरण है. सामाजिक सुरक्षा संहिता का यह नया प्रावधान महिलाओं को ससुराल-केन्द्रित जिम्मेदारियों में और उलझा देता है, जबकि पुरुषों पर ऐसा कोई समांतर दायित्व नहीं सौंपता.
इस प्रकार, लेबर कोड महिलाओं को कुछ कानूनी लाभ देते हुए भी, उनकी व्यावहारिक और सामाजिक वास्तविकताओं को अनदेखा कर लैंगिक असंतुलन को बढ़ावा देते हुए प्रतीत होते हैं. ऐसे में, श्रम सुधारों के जरिये महिलाओं को समान अवसर और समान अधिकार देने का दावा तो किया गया, लेकिन व्यवहार में कई प्रावधान महिलाओं के जीवन की वास्तविक परिस्थितियों को अनदेखा करते हैं.
लेखिका स्त्रीधारा परिशिष्ट की संयोजिका हैं, इन्हे आप अपने लेख व्हाट्स अप्प नंबर 9109607757 पर भेज सकते हैं.