स्वर्गीय श्री बबन प्रसाद मिश्र जी पुण्यतिथि पर उन्हें विनम्र श्रद्धांजलि…

"मैं और मेरी पत्रकारिता" किताब के जरिए अपनी बात कहने वाले स्वर्गीय श्री बबन प्रसाद मिश्र, जिनकी आवाज आज भी गूंजती है, उनका निधन आज ही के दिन यानी 7 नवंबर को रायपुर के वृंदावन हॉल में एक कार्यक्रम के दौरान बोलते-बोलते हार्ट फेल से हो गया था। आज उनके उस दुखद पल को पूरे दस साल बीत चुके हैं, मानो समय की धारा में एक युग बीत गया हो। बबन प्रसाद मिश्र पत्रकारिता के वो अटल आधार स्तंभ थे, जिन्होंने मूल्यों की पत्रकारिता को न सिर्फ जिया, बल्कि उसे एक जीवंत मशाल की तरह थामे रखा। एक ऐसा शख्स, जिसने पूरे जीवन में पत्रकारिता के उन व्यापक मापदंडों को न केवल बनाए रखा, बल्कि उसे दुनिया की सबसे बड़ी ताकत और जिम्मेदारी का दर्जा दिया। अपनी कलम और अपने जीवन में उन मूल्यों को इतनी मजबूती से बचाए रखा कि आज भी वो चमकते हैं। यही कारण है कि बबन प्रसाद मिश्र अपनी किताब में जो कुछ लिखते हैं, वो उन पत्रकारों के लिए समर्पित है जो पत्रकारिता के शाश्वत मूल्यों के प्रति आज भी समर्पित हैं और अपनी अस्मिता के प्रति पूरी तरह जागरूक हैं। आज का दौर तो देखिए, संपादक का स्थान मैनेजर ने ले लिया है, लोग स्वतंत्र रूप से लिखने-पढ़ने की सोच को छोड़कर चरण वंदन में डूबे हुए हैं, और विज्ञापनों की ऐसी होड़ मची है कि अखबार को इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि उसके पहले पेज पर क्या छप रहा है खबर हो या विज्ञापन, बस कमाई चाहिए।

ऐसे विकट समय में बबन प्रसाद मिश्र जी जैसे पत्रकार, जो किसी अखबार के सबसे प्रमुख पद पर थे, संपादक का पद इसलिए छोड़ देते हैं क्योंकि उनके बिना जानकारी के प्रथम पृष्ठ पर विज्ञापन कैसे छप गया। पत्रकारिता में ऐसे ऊंचे मानक स्थापित करने वाले बबन प्रसाद मिश्र को हम आज श्रद्धा से याद करते हैं। उनकी किताब ‘मैं और मेरी पत्रकारिता’ में जो उन्होंने पत्रकारिता के उन अमर मूल्यों का इतनी जीवंतता से वर्णन किया है, उसमें से कुछ चुनिंदा अंश आज हम अपने पाठकों के साथ साझा करते हैं, क्योंकि बबन जी तो आज की जनधारा के भी प्रधान संपादक रह चुके थे, उनकी कलम में वो आग थी जो सच्चाई को जलाए रखती थी।

“देशभक्ति के लिए निकले समाचार पत्र का स्वरूप शनैः शनैः राजभक्ति के अखबार का हो गया था। भारतीय प्रजातंत्र का यह अभिशाप रहा है कि उसके सर्वाधिक प्रभावी अंग राजनीति में देशभक्ति की बजाय राजभक्ति ज्यादा घर कर गई है। स्वाभाविक था कि समाचार पत्र जगत उससे अछूता न रहता। आज तो अखबारों में राजभक्ति की जैसे होड़ सी मची हुई है। अंग्रेजों के जमाने में जब भारत गुलाम था तब जिस तरह कुछ लोग अंग्रेजों को भगवान जैसा मानने लगे थे, लगभग उसी तरह की दास्तां मनोवृत्ति के शिकार अनेक राजनेता और अनेक अखबार आज सहज दिखलाई देते हैं। पत्रकारों की मजबूरी यह है कि वे वहां पत्रकार न रहकर नौकरी करने वाले नुमाइन्दे मात्र रह गए हैं। संपादक नामक संस्था अब गौण है, अब मालिक और प्रबंधन के तेवर के अनुसार संपादक को और उसकी टीम को चलना पड़ता है। कुछ आदर्शों को छोड़कर साथ ही मूल्यों से हटकर समाचार पत्र अब व्यावसायिकता की ओर ज्यादा मुड़ गए हैं। अखबारों के नाम पर विज्ञापन लेना, कोटा परमिट लेना, साबुन और तेल की तरह अखबारों को नामी कूपन से या इनाम देकर बेचना आज के समाचार पत्र जगत की नियति हो गई। पहले कोई भ्रष्ट नेता या भ्रष्ट अधिकारी समाचार पत्र की देहरी पर चढ़ने में रता था, आज वह मालिकों और उसके प्रबंधन सूत्रों को घर पर बुलाता है, प्रतीक्षा कराता है और मनचाही स्वार्थों भरी खबर छपवाता है। यह किसी आवेश में व्यक्त बात नहीं है, बल्कि एक कठोर सत्य का साक्षात्कार है, जो दिल को चीरता है।”
:स्वर्गीय श्री बबन प्रसाद मिश्र

यह उनकी पुस्तक से लिया हुआ एक हृदयस्पर्शी अंश है, जिसमें समय की धारा के साथ पत्रकारिता का चरित्र कैसे विकृत हुआ, इसे इतनी गहराई से उकेरा गया है कि पढ़ते हुए पाठक उस दौर की पत्रकारिता में खो जाता हैं। खैर, आपको बता दूं कि बबन प्रसाद मिश्र ने अपनी पत्रकारिता की शुरुआत 1962 से की, जहां वो दैनिक युगधर्म जबलपुर के सह संपादक के पद पर दस साल तक संपादक की तरह चमके, उसके बाद तदंतर युगधर्म रायपुर में 1 अगस्त 1986 तक संपादक के पद पर अपनी छाप छोड़ी। बबन जी अगस्त 1986 से जुलाई 1987 तक हिंदी दैनिक स्वदेश भोपाल के लिए अपनी सेवाएं देते रहे, जैसे सूरज की किरणें बिखेरते हुए। इसके बाद वे जुलाई 1987 से 30 अक्टूबर 2001 तक हिंदी दैनिक नवभारत रायपुर में प्रबंधक तथा संपादक के रूप में कार्य करते रहे, सच्चाई की मशाल जलाए। 26 नवंबर 2001 से अद्यतन दैनिक भास्कर में सलाहकार के पद पर उन्होंने पत्रकारिता क्षेत्र में उत्कृष्ट कार्य किए, जो आज भी प्रेरणा देते हैं।

“देश के नागरिकों को यह सोचना चाहिए कि बैंकों में सही समय पर काम हो, ट्रेनें समय पर आएं, शासकीय कर्मचारी समय पर काम करें इस हेतु क्या आपातकाल आवश्यक है? यदि केवल इस हेतु आपातकाल लगाया जा रहा है तो इसे कोई कैसे स्वीकृति देगा। जो जिस काम का वेतन लेता है उसे ईमानदारी से अपना कार्य पूरा करना चाहिए, यह धारणा मेरे जीवन में सदैव बनी रही, जैसे एक पवित्र संकल्प। मानवीय प्रताड़ना और मानवीय समस्या का अपातकाल का वह दौर इतना क्रूर और निरंकुश था कि मानवीय समस्याओं का हनन शुरु कर दिया गया था, दिल दहला देने वाला अंधेरा।”
:स्वर्गीय श्री बबन प्रसाद मिश्र”

समाचार वह लेखन है जिसे अपने महत्त्व के आधार पर ही जनता तक पहुंचाना चाहिए, वह मनोरंजक भी होता है और ज्ञानवर्धक भी, जैसे एक मीठी धारा जो प्यास बुझाती है। पाठक वर्ग में ऐसे समाचार पढ़ने की जिज्ञासा बढ़ती है, दिल में उतरती है। कई बार व्यथापूर्ण खबर होने के बावजूद वह एक सूचना है जो पाठकों तक पहुँचती है, सच्चाई की तरह अटल। पत्रकार के लिए यह आवश्यक भी नहीं कि सभी जगह वह अपनी उपस्थिति दर्ज कराए। उसके पास विकसित सूचना स्रोत अवश्य होने चाहिए, जैसे जड़ें मजबूत पेड़ को थामती हैं।”
:स्वर्गीय श्री बबन प्रसाद मिश्र

स्वर्गीय बबन प्रसाद मिश्र आज भी हमें सच्ची पत्रकारिता की याद दिलाते हैं, जो सिर्फ पैसों या विज्ञापनों के लिए नहीं, बल्कि सत्य और देश के लिए लिखी जाती है। उनकी किताब ‘मैं और मेरी पत्रकारिता’ बताती है कि पहले अखबार देशभक्ति से चलते थे, लेकिन अब कई जगह राजभक्ति और व्यापार हावी हो गया है। बबन जी ने अपना पूरा जीवन ईमानदारी से लिखने और सच्चाई बचाने में लगाया, और आज 10 साल बाद भी उनकी बातें हमें सिखाती हैं कि पत्रकार बनना मतलब सिर्फ नौकरी नहीं, बल्कि एक बड़ी जिम्मेदारी निभाना है।

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