Health minister राजकुमारी अमृत कौर : सचमुच विलक्षण…

Health minister डॉ. सुधीर सक्सेना

Health minister  वह सचमुच विलक्षण थीं। उनका जीवन वैभव, त्याग, सेवा, समर्पण और सम्मान की चमकीली लडिय़ों से गुंथा हुआ था। वह शाही-परिवार में जनमीं। विलायत में पली-बढ़ीं। गांधी से मिलीं तो उनके पीछे चल पड़ीं। उनकी सेक्रेटरी रहीं। अनेक बार जेल गयीं। बापू से अनुप्राणित होकर सरल-सादा, आडंबरहीन जीवन जिया। संविधान सभा की सदस्य रहीं और सांसद और मंत्री भी। स्वतंत्र भारत की वह पहली महिला काबीना मंत्री रहीं। उन्होंने कई संस्थाओं की नींव डाली और कई योजनाओं की सूत्रधार बनीं।

Health minister वह एकाकी रहीं, तन, मन और धन से देश को समर्पित। वह ईसाई मतावलंबी थीं किन्तु उनकी अंत्येष्टि उनकी इच्छानुरूप सिख परंपरा से हुई। उन्होंने अपनी संपत्ति शैक्षणिक प्रयोजन से दान कर दी। एम्स के रूप में उन्होंने देश को अनमोल-संजीवनी सौगात दी। इसे अकृतज्ञता या कृतघ्नता ही कहेंगे कि हम ऐसी बहुआयामी विलक्षण महिला को भूल चले हैं, जिसका नाम था राजकुमारी अमृत कौर।

Health minister राजकुमारी अमृत कौर ऐसी विरल शख्सियत हैं, जो उन्नीसवीं शताब्दी के अंत में आईं और उन्होंने बीसवीं सदी के मध्य को अपने तप:पूत कार्यों से आलोकित किया। राजकुमारी का जन्म 2 फरवरी, सन् 1889 को अवध-प्रांत की राजधानी लखनऊ में हुआ। उनके पिता राजा हरनाम सिंह कपूरथला रियासत से संबंद्ध थे और उथ्तराधिकार के संघर्ष के चलते कपूरथला से लखनऊ चले आये थे। वह कपूरथला के महाराज रणधीरसिंह अहलूवालिया के छोटे बेटे थे।

Health minister लखनऊ आकर वह अवध रियासत के मैनेजर हुए और बादशाह बाग में रहने लगे। राजकुमारी का बचपन वहीं बीता। राजा हरनाम की दस संतानों में राजकुमारी इकलौती बेटी और अंतिम संतान थीं। बंगाल से लखनऊ आये गोलकनाथ चटर्जी के प्रभाव में उन्होंने ईसाई धर्म स्वीकार कर लिया था। गोलकनाथ की बेटी प्रीसिला से ही उन्होंने शादी भी की। मां-पिता की लाड़ली राजकुमारी का पालन-पोषण प्रोटेस्टेंट ईसाई के तौर पर हुआ। इंग्लैंड में डोरसेट में शेरबोर्न स्कूल फॉर गर्ल्स में शिक्षा-दीक्षा के बाद उच्च शिक्षा के लिए वह ऑक्सफोर्ड गयीं। वहां से पढ़ाई पूरी कर वह सन् 1918 में भारत लौटीं, जहां एक सर्वथा भिन्न जीवन उनकी प्रतीक्षा में था।

राजकुमारी इंग्लैंड से लौटीं तो स्वतंत्रचेता स्त्री थीं। वह भारत की मुक्ति की आकांक्षी थीं। उनके पिता के भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस और उसके नेताओं से प्रगाढ़ संबंध थे। गोपालकृष्ण गोखले उनके यहां अक्सर आया करते थे। राजकुमारी को महात्मा गांधी के विचारों ने गहरा प्रभावित किया। वह गांधी युग की पूर्व बेला थी। सन् 1919 में राजकुमारी पहले पहल बंबई में बापू से मिलीं। इस मुलाकात ने उनकी जिंदगी बदल दी। वह 16 वर्षों तक बापू की सचिव रहीं। बापू और उनके मध्य पत्राचार बाद में प्रकाशित हुआ। उनके पत्र आज भी नेहरु मेमोरियल और तीन मूर्ति भवन की लाइब्रेरियों में सुरक्षित हैं। गांधी और गांधीवाद को समझने के मान से वे महत्वपूर्ण हैं।

Health minister राजकुमारी की शिक्षा-दीक्षा ब्रिटेन में हुई थी। किन्तु जालियांवाला नरमेध ने उन्हें झकझोर दिया। वह उपनिवेशवादी ब्रिटेन की कट्टर आलोचक हो गयीं और मुक्ति उनका अभीष्ट हुई। उन्होंने सामाजिक सुधारों के लिए जंग छेड़ी। उन्होंने पर्दा प्रथा और बाल विवाह के खिलाफ आवाज उठायी और देवदासी प्रथा का मुखर विरोध किया। सन् 1927 में वह ऑल इंडिया वूमेंस कांग्रेस की सह-संस्थापक रही। सन् 1930 में वह इसकी सेक्रेटरी बनीं और सन् 1933 में अध्यक्ष। सन् 1930 में दांडी कूच में भाग लेने पर बर्तानवी हुकूमत ने उन्हें जेल भेज दिया।

सन् 1934 में वह रहने के लिए बापू के आश्रम में चली आईं। उन्होंने आडंबरहीन सादगीपूर्ण जीवन अपना लिया और मुक्तिव्रती हुईं। साहस-वृत्ति के चलते भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने उन्हें सन् 1937 में एक सद्भावना मिशन के तहत पश्चिमोत्तर खैबर पख्तूनख्वा प्रांत में बन्नू भेजा। हुकूमत ने उन्हें बंदी बनाकर जेल में डाल दिया। ब्रिटिश सरकार ने उन्हें शिक्षा सलाहकार मंडल का सदस्य मनोनीत किया, लेकिन भारत छोड़ो आंदोलन में शिरकत के चलते राष्ट्रव्रती राजकुमारी ने मेंबरशिप से इस्तीफा दे दिया।

राजकुमारी आजादी, अधिकारों और सुधारों के लिए आवाज उठाने से कभी नहीं चूकीं। भारत में संवैधानिक सुधारों पर ब्रिटिश संसद की संयुक्त सांसद के सम्मुख उन्होंने पुरजोर तरीके से अपनी बात रखी। उन्होंने ऑल इंडिया वीमेन्स एजुकेशन फंड एसोसिएशन की सदारत की। वह लेडी इरविन कॉलेज की अधिशासी समिति की सदस्य रहीं। सन् 1945 और 46 में वह लंदन और पेरिस में यूनेस्को सम्मेलन में भेजे गए भारतीय शिष्टमंडल की सदस्य रहीं। वह ऑल इंडिया स्पिनर्स एसोसिएशन के न्यासी मंडल की सदस्य भी रहीं।

निरक्षरता-उन्मूलन के लिए उनकी सक्रियता सतत बनी रहीं। भारत आजाद हुआ तो वह धारा सभा के लिए चुनी गयीं। उन्होंने मौलिक अधिकारों और अल्पसंख्यकों पर उपसमितियों के सदस्य की हैसियत से संविधान निर्माण में अमूल्य योगदान दिया। उन्होंने समान नागरिक संहिता की वकालत की। उन्होंने समान मताधिकार और धार्मिक अधिकारों के लिए भाषा के संरक्षण पर खुलकर विचार व्यक्त किये। अपने मिशन के प्रति समर्पित वह देश की स्वतंत्रता के साथ ही राजकुमारी के जीवन की नयी चमकीली पारी शुरू हुई। प्रधानमंत्री पं. नेहरु ने अपने पहले ही मंत्रिमंडल में बतौर स्वास्थ्य मंत्री लिया। इस तरह वह भारत की पहली महिला काबीना मंत्री बनीं।

उन्होंने इस दायित्व का बखूबी निर्वाह किया। खामियां और किल्लतें उनके आड़े न आईं। वह दस साल स्वास्थ्य मंत्री रहीं। जनवरी, सन् 1949 में वह डेम आफ द ऑर्डर ऑफ सेंट जॉन नियुक्त हुईं। अगले वर्ष वह वर्ल्ड हेल्थ असेंबली की अध्यक्ष चुनी गयीं। भारत में मलेरिया की रोकथाम के लिए उन्होंने बड़ा अभियान छेड़ा। उन्होंने तपेदिक के खिलाफ मुहिम की अगुवाई की। विश्व का विशालतम बीसीजी टीकाकरण प्रोग्राम भारत में उन्हीं की बदौलत संभव हुआ।

बतौर स्वास्थ्य मंत्री राजकुमारी अमृत कौर का भारत में हेल्थ केयर के लिए सबसे महत्वपूर्ण उपक्रम था ऑल इंडिया इंस्टीट्यूट ऑफ मेडिकल साइंसेज (एम्स) की दिल्ली में स्थापना। इसकी पहली अध्यक्ष के तौर पर कौर ने सन् 1956 में पहला बिल लोकसभा में पेश किया। राष्ट्रीय स्वास्थ्य सर्वेक्षण की इस सार्थक परिणति के साथ ही उन्होंने इसके लिए पश्चिम जर्मनी, न्यूजीलैंड, अमेरिका, स्वीडन और ऑस्ट्रेलिया से फंड भी जुटाया।

सु्री कौर और उनके एक भाई ने एम्स के स्टाफ और नर्सों के लिए शिमला स्थित अपनी पैतृक संपत्ति और मैनरविले नामक कोठी दान कर दी। उन्होंने भारतीय बाल कल्याण परिषद की स्थापना में भी अहम भूमिका निभायी। वह 14 वर्षों तक इंडियन रेडक्रास सोसाइटी की अध्यक्ष रहीं। उनके कार्यकाल में रेडक्रास ने सराहनीय काम किये। वह यक्ष्मा और कुष्ठ निवारण संस्थाओं से जुड़ी रही। उन्होंने अमृत कौर कॉलेज ऑफ नर्सिंग और नेशनल स्पोर्टस क्लब ऑफ इंडिया की भी शुरूआत की। सन् 1946 में दिल्ली में संस्थापित नर्सिंग कॉलेज के लिए उने अथक प्रयासों के कृतज्ञतास्वरूप भारत सरकार ने उसका नामकरण उनके नाम पर किया।

सन् 57 से सन् 64 तक वह राज्यसभा की सदस्य रहीं और एम्स, टीबी एसोसिएशन आफ इंडिया और सेंट जॉन्स एम्बुलेंस कॉर्प्स की बैठकों की अध्यक्षता करती रहीं। रेने सैण्ड मेमोरियल अवार्ड से विभूषित सुश्री कौर को ‘टाइम’ पत्रिका ने सन् 1947 में वर्ष की महिला का खिताब दिया। 6 दिसंबर को उन्होंने दिल्ली में आंखें मूंदी तो उनका अंतिम संस्कार सिख विधि-विधान से हुआ। वे नहीं हैं, किन्तु एम्स व अन्य संस्थान उनके जीवंत स्मारक के रूप में जीवित हैं।

Leave a Comment

Your email address will not be published. Required fields are marked *

MENU