साभार: संतोष मौर्य, एडिशनल डायरेक्टर, राजभवन, छत्तीसगढ़
बस्तर क्षेत्र छत्तीसगढ़ की संस्कृति और परंपरा का अद्भुत केंद्र है।
यहाँ के आदिवासी समुदायों ने अपनी सादगी, प्रकृति-प्रेम और रचनात्मकता
को जिस रूप में अभिव्यक्त किया है, वह हस्तशिल्प के रूप में सामने आता है।
यही कारण है कि बस्तर का हस्तशिल्प केवल कला का प्रतीक नहीं,
बल्कि इसे सांस्कृतिक आत्मा कहा जाता है।

ढोकरा कला
बस्तर का सबसे प्रसिद्ध हस्तशिल्प ढोकरा कला है, जो प्राचीन लॉस्ट वैक्स तकनीक से निर्मित होती है। इसमें मोम की आकृति बनाकर मिट्टी से ढाला जाता है और फिर धातु (मुख्यत: पीतल और कांसा) डालकर उत्कृष्ट शिल्प तैयार किए जाते हैं। ढोकरा शिल्प में देवी-देवताओं की मूर्तियाँ, पशु-पक्षी, दीपक, आभूषण और लोकजीवन से जुड़ी आकृतियाँ बनाई जाती हैं। इन शिल्पों में आदिवासी जीवन की सहजता और प्रकृति से गहरा जुड़ाव झलकता है।

लौह शिल्प
लौह शिल्प (Iron Craft) भी बस्तर की पहचान है। यहाँ के लोहार पीढिय़ों से पारंपरिक तकनीकों से धातु को आकार देते आ रहे हैं। इससे देवी-देवताओं की मूर्तियाँ, हथियार, औजार और सजावटी सामग्री बनाई जाती है। इन शिल्पों की विशेषता है कि इनमें बिना आधुनिक मशीनों के केवल परंपरागत साधनों का प्रयोग किया जाता है।

बांस और लकड़ी की कारीगरी
बस्तर के जंगलों में प्रचुर मात्रा में मिलने वाले बांस और लकड़ी से यहाँ के कारीगर टोकरियाँ, चटाइयाँ, फर्नीचर और घरेलू सामान तैयार करते हैं। ये वस्तुएँ दैनिक जीवन में उपयोगी होने के साथ-साथ कलात्मक भी होती हैं। आदिवासी परिवार इन शिल्पों के सहारे अपनी जरूरतें भी पूरी करते हैं और इन्हें बाजार में बेचकर आर्थिक लाभ भी कमाते हैं।

आर्थिक और सांस्कृतिक महत्व
हस्तशिल्प न केवल आदिवासी जीवन की संस्कृति को दर्शाता है, बल्कि यह आजीविका का प्रमुख साधन भी है। स्थानीय मेले, हाट-बाजार और राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय प्रदर्शनियों में इन शिल्पों की बड़ी माँग रहती है। इससे बस्तर के कारीगरों को पहचान और सम्मान मिलता है।