(हबीब तनवीर की जयंती पर जनमंंच, सड्डू में आयोजित रंग हबीब कार्यक्रम)
योग मिश्र
हबीब तनवीर की रंग पद्धति और उनके अभिनय की भाषा अनेकानेक प्रसंगों में मौलिक है। उनके रंगकर्म की बुनियाद भारतीय रंग परम्परा है। हबीब तनवीर न नाट्यशास्त्र के सिद्धान्तों का सीधा अनुसरण करते हैं और न लोक तत्वों को जैसा का तैसा अपने नाटकों में उतारते हैं। वे उसे समसामयिकता से जोड़कर उसे अपना बनाकर प्रस्तुत करते हैं। उनके रंगकर्म के प्रत्यक्ष श्रोत उनके आसपास की वह लोक परम्पराएं हैं जिनमें भारतीय जीवन पूरी शिद्दत के साथ धड़कता है। उसमें जीवन का नकलीपन नहीं, एक सौंधापन है, उल्लास है, खुशी है, जीवन को उत्सव की तरह जीने का उमंग है। एक अदम्य लालसा है यही लालसा हबीब तनवीर के रंगकर्म की भाषा को एक नया रूप नया रंग प्रदान करती है। हबीब तनवीर के रंगकर्म की भाषा का सौंधापन, भारतीय जीवन का सौंधापन है, जो सैकड़ों सालों के अंतराल के बावजूद हमारे देश के अनेकानेक अंचलों में आज भी पूरी तरह सुरक्षित है। हबीब तनवीर ने इसी छुपी हुई अदम्य लालसा को खंगालकर एक आधुनिक से लगने वाले आवरण में इसे प्रस्तुत किया है, जिसमें कहीं कोई मेल या मिलावट नहीं दिखाई पड़ती जो शुद्घ भारतीय रंग परम्परा का दर्शन कराती है। हबीब तनवीर भारतीय रंग परम्पराओं से प्रेरणा लेकर आश्चर्यजनक रूप से नाट्यशास्त्र की उस जमीन से जुड़ जाते हैं, जो प्रत्यक्ष रूप में भले ही पूरी उनके काम के साथ नजऱ न आती हो, लेकिन जो आज भी हमारे रंग जीवन का अविभाज्य और अनिवार्य अंग है। हबीब तनवीर का रंगकर्म, उनकी रंग-पद्धति या उनके अभिनय की भाषा एक ऐसा प्रसंग है जिस पर अभी बहुत काम किया जाना शेष है।

हबीब तनवीर के नाटकों में प्रमुख रूप से छत्तीसगढ़ी नाचा के लोक कलाकार अभिनय करते दिखाई देते थे। छत्तीसगढ़ी कलाकार हिन्दी, अंग्रेजी या उर्दू के सारे शब्द उनके अपने छत्तीसगढ़ी लहजे में बोलते थे हबीब साहब ने आरंभ में अपने लोक कलाकारों की भाषा सुधारने, उनका उच्चारण ठीक करने का खूब प्रयास किया था लेकिन उन्होंने पाया कि इससे लोक कलाकारों का वह सहज अभिनय गायब हो जाता था। जिसे उन्होंने उनकी नाचा प्रस्तुतियों में प्रत्यक्ष देखा था। इसके बाद हबीब साहब ने अपने लोक कलाकारों की भाषा या उच्चारण सुधारने की बजाय हिन्दी या उर्दू भाषी चरित्रों के लिए शहरी कलाकारों को अपने नाटकों में शामिल करने लगे थे जिन्हें वे नागरिक कलाकार कहते थे। अपने नाटकों- आगरा बाजार, हिरमा की अमर कहानी, जिन्न लाहौर नई वेख्या, वसंत ऋतु का सपना, विराट, जहरीली हवा राज रक्त आदि में उन्होंने नागरिक कलाकारों को शामिल कर किया था। लोक कलाकार और नागरिक कलाकार के साथ से हबीब तनवीर अपने नाटक में ताजी हवा का झरोखा हमेशा बनाये रखते थे। यह एक तरह से शहरी रंगकर्मियों के लिए लोक संस्कृति का शैक्षणिक पाठ्यक्रम जैसा ही होता था। हबीब साहब ने नई पीढ़ी से अपनी संस्कृति से परिचय कराने का यह सिलसिला हमेशा बनाये रखा।
शहरी कलाकारों और लोक कलाकारों के बीच की इस सांस्कृतिक दूरी को पाटने का काम हबीब साहब अपने नाटकों में लोक कलाकारों और नागरिक कलाकारों का सम्मिश्रण कर हमेशा करते रहे। उनके दौर में वे अपने आसपास के रंगकर्म को पाश्चात्य के आकर्षण से अभिभूत देख रहे थे, रंगमंच में एक एलिट कल्चर डेवलप होता जा रहा था। जिसका अनुसरण नगरीय रंगमंच में भी तेजी से हो रहा था। उसके उलट हबीब तनवीर अपने रंगकर्म में ग्रामीण कलाकारों के साथ ठेठ देसी अंदाज में आधुनिक भारतीय रंगमंच की झलक दिखलाते हुए प्रस्तुत हो रहे थे।
उन्होंने जब छत्तीसगढ़ी बोली में ग्रामीण कलाकारों के साथ संस्कृत नाटक मृच्छकटिकम् किया तो उनकी खूब आलोचना हुई थी। लोग कहने लगे कि वे संस्कृत का क्लासिकल नाटक ग्रामीण कलाकारों के साथ तैयार करके संस्कृत नाटक की शास्त्रीयता नष्ट कर रहे हैं। लेकिन जब मिट्टी की गाड़ी नाटक छत्तीसगढ़ी में ग्रामीण कलाकारों की सहजता के साथ प्रदर्शित हुआ तो लोग आश्चर्यचकित रह गये। उस दौर में राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय में प्रशिक्षण ले रहे रंगकर्मी रामगोपाल बजाज ने यह नाटक देखने का अपना अनुभव लिखा कि यह वह दौर था जब इब्राहिम अलकाजी के नेतृत्व में राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय रंगमंच प्रशिक्षण के पश्चिमी आधुनिक मॅाडल का जादू बिखेर रहा था। हमने जब शेक्सपियर, मॉलियर तथा महान ग्रीक नाटक देखने के बाद हबीब तनवीर का काम देखा तो हतप्रभ रह गए। हम बेचैन हो उठे। हमारे मन में जो सवाल उठे उनके जवाब राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय में नहीं थे डिजाइन, डायलाग रंग-विचारों की स्पष्टता आदि को लेकर हम पश्चिमी प्रभाव में थे उस प्रभाव के समानांतर हबीब का रंगमंच एक वैकल्पिक दृश्य रच रहा था। जब चरण दास आया तो हम दंग रह गए। हमें अहसास हुआ कि राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के प्रशिक्षण में कुछ कमी है। साधारण मंचीय उपकरणों में पूरी प्रभाव उत्पादकता के साथ मिट्टी की गाड़ी व चरणदास चोर मंच पर घटता हुआ लोगों ने देखा तो राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के पश्चिम आधुनिक रंगमंच के जादू से ज्यादा हबीब तनवीर का काम देखकर लोग प्रभावित हुए बिना न रह सके इसके पूर्व किसी ने भी संस्कृत मृच्छकटिकम् को भव्य मंचीय साज सज्जा के बिना कल्पना भी नहीं की थी। आगरा बाजार, हिरमा की अमर कहानी, जिन लाहोर नई वेख्या जैसे कुछेक नाटक में मंच साज सज्जा व अन्य मंचीय उपकरण का कुछ अधिक इस्तेमाल दिखाई देता है लेकिन उनके ज्यादातर नाटकों में मामूली मंच सज्जा ने शहरी रंगकर्मियों को बड़े नाटकों को कम साज-सज्जा या आभासीय सज्जा तैयार कर प्रस्तुत करने प्रेरित किया। उनके बहुचर्चित नाटक चरणदास चोर में मंच के बीच में 6-8 का प्लेटफार्म (चबूतरा) उसके पीछे बांस पर एक पेड़ की एक डंगाल लगाई जाती है इसी चबूतरे में सन्यासी का दरबार लगता है। यही मंदिर है। यही सरकारी खजाने का दफ्तर है। यही रानी का राजमहल है।
माटी की गाड़ी में बीच में लगभग उतने ही आकार का एक वृताकार गोल चबूतरा उसके पीछे एक काले कपड़े में गहरे पीले रंग में उकेरी हाथी घोड़े की तस्वीर से एक चौकोर बड़े दरवाजे जैसा आभास तैयार किया जाता था। फिर इसी चबूतरे में सारी महत्वपूर्ण घटनाएं घटती रहती थी यही वसंत सेना व चारूदत का घर है और यही न्याय मंदिर भी है बेहद मामूली रंगमंचीय उपकरण से नाटक में गैरमामूली प्रभाव पैदा करने का हुनर हबीब साहब को छत्तीसगढ़ी नाचा से मिल गया था जो बाद में उनके अधिकांश नाटकों में नजर आता रहा।
नाचा के कलाकार अपने अभिनय से निराकार को साकार करने की कला में माहिर होते हैं। छतीसगढ़ी नाचा में एक चबूतरे में अभिनेता अपने अभिनय से दर्शकों को यकीन दिलाता रहता है कि ये देखो आसामान, ये धरती, ये चाँद ये दुकान, ये मकान, ये बाजार और अपने अभिनय से दर्शकों के लिए वह सब कुछ मंच पर उतार लाता है। निराकार को आकार देना ही रंगमंचीय अभिनय है और लोक कलाकार इसमें शहरी रंगकर्मियों से कहीं ज्यादा माहिर होते हैं। भरत मुनि ने भी कहा है कि अभिनेता का अभिनय नाटक का मूल तत्व है। यदि अभिनय कमजोर होगा तो अन्य मंचीय उपकरणों के सहारे की जरूरत पड़ेगी वर्ना मामूली मंच सज्जा या साधारण रंगमंचीय साधनों में भी एक समर्थ अभिनेता अपने अभिनय से मंच में सब कुछ साकार करने में समर्थ हो सकता है। लोक कलाकारों का सहज जरूरत अभिनय देखकर हबीब साहब ने यह निश्चित कर लिया था कि मंच पर नाटक खेलने के लिए सहज अभिनय के अलावा किसी और उपकरण की वैसी नहीं होती कि उसके बिना नाटक हो ही नहीं सकता है।
हबीब तनवीर की आधुनिक लोक शैली-
कुछ अब हबीब साहब की आधुनिक और लोक अभिनय की शैलियों के अंतर पर हम एक नजर डालते हैं। अभिनेताओं की बोली-भाषा उनके नाटकों की विशेषताओं में से एक मानी जा सकती है। हालांकि हबीब तनवीर की शिक्षा पाश्चात्य रंग पद्धतियों में हुई थी। उन्होंने पाश्चात्य का पूरा रंगकर्म देखा था, पढ़ा था। लेकिन उससे वे बहुत ज्यादा प्रभावित नहीं रहे। उन्होंने पश्चिम की रंग पद्धतियों के साथ संस्कृत और भारतीय लोक नाट्य परम्परा के एक आधुनिक भारतीय रंग पद्धति अपनी एक अलग रंग शैली विकसित की थी। आईये उसे थोड़ा समझने का प्रयास करते हैं।
हबीब तनवीर का अभिनय सिद्धान्त-
स्तानिस्लाव्स्की अपनी किताब एन एक्टर प्रिपेयर्स में विस्तार से यह व्याख्या करते हैं कि अभिनेता द्वारा बोली जाने वाली भाषा का उच्चारण यदि चरित्र की विशेषताओं को रेखांकित नहीं कर सकता तो चरित्र की आन्तरिकता से उसका रिश्ता नहीं बन सकेगा। चरित्र निर्माण में चरित्र की अनेकानेक अवस्थाएं उसके द्वारा बोली जाने वाली भाषा से व्यक्त होगी। अभिनेता की भंगिमाएँ और मुद्राएँ उन शब्दों को अधिक सार्थक और संपूर्ण बनाने में सहायक सिद्ध होती हैं। इसी संदर्भ में स्तानिस्लाव्स्की का वह प्रयोग भी सामने आता है जब उन्होंने मैक्सिम गोर्की के नाटक द लोअर डेप्यस् के अभ्यास के दौरान अपने कलाकारों को गरीब मजदूरों और सर्वहारा लोगों की बस्तियों में समय बिताने भेज दिया था जिससे उनके अभिनेता नाटक में वर्णित चरित्रों की भाषा और आव-भंगिमाओं के साथ उनके आचार-विचारी का समावेश अपने अभिनय में कर पाए।
स्लानिस्लाव्स्की का विधार था कि जब तक अभिनेता चरित्र के अनुकूल भाषा का प्रयोग नहीं करेगा, तब तक उसका अभिनय प्रभावशाली नहीं बन सकता। चरिर्श के सूक्ष्मातिसूक्ष्म मनोवेगों को हूबहू उतारने में यह युक्ति बहुत कारगर सिद्ध हुई भी।
एनएसडी से निकले बहुत से अभिनेताओं ने इसे अपने काम के दौरान हूबहू आजमाया और अपने अभिनय की धार से दर्शकों के सामने अपनी प्रतिभा का लौहा भी मनवाया है। लेकिन हबीब तनवीर दूसरे अर्थों में अभिनय की भाषा का संबंध जोड़ते मुझे दिखाई पड़ते हैं। वे स्तानिस्लाव्स्की को जस का तस स्वीकार नहीं करते। बस यहीं से वे अपने समकालीन रंगकर्मियों से बिल्कुल अलग राह पकड़ते दिखते हैं। वे विदेशों में सीखा पढ़ा सब जस का तस स्वीकार नहीं कर लेते, उसमें भारतीय रंग धारणाओं के नजरिए से भी अपने सीखे की परखते हैं और उसमें से एक नई धारा बीज निकालते हैं। यहाँ से हबीब तनवीर सबसे अलग सबसे मौलिक हमें दिखने लगते हैं।
हबीब साहब की अभिनय की भाषा धारणा की पद्धति पर आधारित मुझे दिखाई देती है। जहाँ अभिनेता ने अपने मन में धारण कर लिया है मैं वह (फलाना) धरित्र हूँ और वह वैसा हो गया। इस धारणा का सबसे अच्छा उदाहरण ठगों के अभिनय में मिलता है। ठगी के अपने काम में ठग, कैसे किसी के चरित्र को आत्मसात करते होंगे, जरा सोचिए तो? उन्होंने न तो कभी कहीं से, किसी से अभिनय की शिक्षा ली और न कभी स्त्तानिस्लाव्स्की की यथार्य अभिनय की अवधारणा से वे अभी परिचित हुए। फिर भी अपने अभिनय से लोगों को प्रभावित कर, बाध्य कर देते हैं कि वे जैसा दिखाएंगे, बताएंगे वही लोग देखें, मानें और विश्वास करें। और लोग मान भी लेते हैं, यह सब कैसे होता है? ठग किसी चरित्र को आत्मसात कर हूबहू अपने काम के अनुरूप अपनी धारणा से सब कुरड कैसे गढ़ लेते हैं कि मैं वही हूँ जो मैं अपने आपको लोगों के सामने प्रस्तुत करना चाहता हूँ? और लोग उन्हें यही मान भी लेते हैं। अभिनय में अभिनेता के लिए सबसे पहले तो यह मानना जरूरी है; कि वह वही चरित्र है जो वह निभा रहा है, यही धारणा है। जब आप सफलता से झूठ बोलते हैं, तब भी आप धारणा के सहारे अपनी बात सच साबित कर रहे होते हैं। धारणा का अभिनय में बड़ा महत्व है।
हबीब तनवीर के कलाकार धारणा बना लेते हैं कि वे वही चरित्र हैं जो वे निभा रहे हैं यही कारण था कि हबीब तनवीर के कलाकार, बड़ी सहजता से कठिन से कठिन समझे जाने वाले चरित्र में, अपनी स्वाभाविकता का रंग भर देते थे।
रंगमंच पर वास्तविकता का भ्रम उत्पन्न करने से बचते थे हबीब तनवीर
यदि गौर से देखा जाए तो हबीब साहब की अभिनय संबंधी अवधारणाओं में जान का बहुत बड़ा पिटारा छिपा है, जिसे अभी पूरी तरह बोलकर देखा नहीं गया है। हबीब साहब अपने नाटकों से अभिनय की जिस भाषा की बात करते हैं, वह चरित्र की भाषा नहीं है। वह अभिनेता की अपनी भाषा की बात है। यदि पाश्चात्य रंगमंचीय अवधारणाओं में स्तानिस्लाव्स्की की अवधारणाओं के अनुसार अभिनेता की अभिनय पद्धति का विवेचन किया जाए तो कहा जा सकता है कि उसकी सबसे बड़ी सफलता नाटक के चरित्र के अनुरूप अपने आप को डालने में है। यानि अभिनेता अपना व्यक्तित्व, अपनी भाषा, अपनी सोच, अपने विचार चरित्र के अनुरुप डालने की कोशिश करता है। स्तानिस्लाव्स्की के अनुसार यही अभिनय का मूल तत्व है। लेकिन हबीब साहब की अवधारणा में अभिनेता की भाषा के जरिए दर्शकों को सम्मोहित करना या रंगमंच में वास्तविकता का अम उत्पन्न करना नहीं है। हबीब साहब की प्रस्तुतियाँ देखकर या उनकी मंडली के साथ रहकर, उनके काम की गहराई से पड़ताल करते हुए ही, यह समझा जा सकता है कि हबीब तनवीर का उद्देश्य स्तानिस्लायकी की अवधारणाओं से बिल्कुल मिल्न है। हबीब साहब जब कहते हैं कि अभिनय का गहरा संबंध भाषा से है। तो उनका आशय है कि अभिनेता अगर एक ऐसी भाषा में चरित्र को प्रस्तुत करने की कोशिश करता है, जो उसकी अपनी भाषा नहीं है, तो अभिनेता सहज नहीं हो सकता। एक ऐसा अभिनेता जिसकी मातृभाषा मलयालम, तमिल या तेलुगू है. अगर बांग्ला या मराठी नाटक के चरित्र के अनुसार, बांग्ला या मराठी आषा बोलेगा तो अभिनेता की सहजता नष्ट हो जायेगी। उसे शब्दों के उच्चारण और शब्दों के अर्थ समझाने में ही इतनी दिक्कतें होंगी कि उसका अभिनय सहज नहीं रह जाएगा। हबीब साहब की दृष्टि में अभिनय की सहजता की रक्षा सबसे महत्वपूर्ण चीज है। उनके अनुसार अभिनेता को चरित्र में प्रवेश करने की चेष्टा बिल्कुल नहीं करनी चाहिए, बल्कि उसे प्रत्येक प्रकार के भावों और स्थितियों की पूरी क्षमता और कुशलता के साथ अभिव्यक्त करने में पारंगत होना चाहिए।
हबीब तनवीर की अवधारणा स्तानिस्लावस्की से भिन्न-
हबीब तनवीर की अभिनय पद्धति स्तानिस्लाव्स्की की अवधारणाओं से एकदम भिन्न और पूरी तरह दूसरे धरातल पर टिकी हुई है। देखा जाय तो हबीब तनवीर की अवधारणा भरतमुनि के नाट्यशास्त्र में वर्णित भावों के अनुकीर्तन के अत्यंत निकट है। हबीब तनवीर के नाटक चरणदास चोर में चरणदास के भावों की अभिव्यक्ति में, सहजता और स्वाभाविकता को बहुत महत्व दिया गया है और यह स्वाभाविकता, स्वाभाविक सा लगने वाला अभिनय नहीं, बाल्कि कलाकार की क्षमता और निपूर्णता को पारदर्शी तरीके से व्यक्त किए जाने का तरीका है। हबीब साहब की अभिनय-पद्धति की भाषा केवल शाब्दिक भाषा से कहीं अधिक एक दूसरा अर्थ भी ग्रहण करती है। अभिनय मात्र शब्दों को उच्चारित कर देना या शब्दों के अंतर्निहित आर्या को व्यक्त कर देना मात्र नहीं, बल्कि उन अर्थों को अधिक से अधिक कारात्मक रूप में प्रस्तुत करना भी है। इसी कलात्मक सौंदर्य के लिए नाटक की प्रस्तुति में, शब्द के अर्थ अपनी परिधि तोड़कर, लय और ताल का आश्रय पाते हैं। शब्दों की जय और ताल, अभिनेता की भाषा को पूर्णता प्रदान करती है। हबीब साहब की नाट्य अवधारणा में, संवादों का लयात्मक और गीतात्मक प्रयोग, उनकी दृष्टि में अभिनय की भाषा का महत्वपूर्ण अंग है। सुख-दुख, करुणा-शोक, मिलन विरह, जन्म मृत्यु जीवन के सभी प्रसंग संगीत और लय में बंधकर, उसे और कलात्मक बना देते हैं। यह प?द्धति जीवन के यथार्थ से एकदम अलग है। और इसलिए यह यथार्थवादी अभिनय से अलग है।
शोक दृश्यों में भी आनंद खोजते थे हबीब तनवीर
हबीब साहब के लिखे नाटकी में अंत में, नायक या नायिका की मृत्यु होती है, फिर भी वे दर्शकों के मन में शौक का संचार नहीं करते। वह कौन सा तत्व है, जो नाटक में शोक की या मृत्यु की स्थिति की आनंद में बदल देता है?
शायद हबीब साहब अपने नाटकी का अंत एक ऐसे बिन्दु पर करना चाहते हैं, जहाँ दर्शक सम्मोहित अवस्था में आडिटोरियम से बाहर न आए। वह शोक में डूबा और सिर्फ आनंद में चहकता हुआ भी न आए। नाटक के अंत में दर्शकों को कुछ सोचने का, कुछ समझाने का मौका मिले। उसके मन में रस का संचार हो, दर्शकों को यह न लगे कि उसका केवल मनोरंजन मात्र हुआ है।
हबीब साहब की दृष्टि में मनोरंजन और आनंद में फर्क है। आनंद कर संबंध हृदय और बुद्धि से है। जबकि मनोरंजन मन को चंचल और उत्तेजित करता है। आज जो नाटक मंचित हो रहे हैं उनमें से ज्यादातर केवल मनोरंजन कर रहे हैं। आनंद नहीं दे रहे हैं। यह नाटक के दौरान उतेजना और चंचलता में आडिटोरियम में बजने वाली सीटियों बयान कर देती हैं और हम इन सीटियों को अपने नाटक की सफलता मान लेते हैं।
ब्रेख्त का अलगाववाद और हबीब तनवीर का गीत-संगीत-
कुछ लोग कहते हैं कि हबीब साहब के नाटकों में ब्रेख्त का प्रभाव दिखता है लेकिन यहां भी उनकी पद्धति बॉल्स ब्रेख्त से बहुत भिन्न दिखाई देती है। ब्रेख्त के अभिनय की इबारत भी यथार्थवादी रंगमंच की इबारत ही है। इस इबारत कर अभीष्ट भी दर्शकों को सम्मोहित करना है। दर्शक के सम्मोहन की अवस्था को स्तानिस्लाव्स्की आदर्श स्थिति मानते हैं। जबकि बर्तोल्त ब्रेख्त कतई नहीं चाहते कि उनके नाटकों का दर्शक सम्मोहित हो जाए।
ब्रेख्त और हबीब तनवीर के अभिनय की भाषा का सबसे बड़ा फर्क यही है कि ब्रेख्त को अपने मंतव्य के लिए अलगाव के सिद्धान्त का सहारा लेना पड़ता है। वहीं हबीब तनवीर अपने आसपास बिखरी लोककलाओं गीत, संगीत और नृत्य से यह सब करते हैं।
हबीब तनवीर के काम की गहराई से समझने, रंगकर्मियों को नई रंगदृष्टि से दीक्षित करने के लिए, हबीब साहब की रंगदृष्टि और अभिनय की अवधारणा पर गहन अध्ययन की जरूरत है। इसके लिए एक ऐसा नाट्य संस्थान स्थापित किया जाना चाहिए। जहाँ उनकी रंगदृष्टि के कई पट धीरे-धीरे खुद-ब-खुद उद्घाटित होंगे। और भारतीय रंगमंच को एक नई दृष्टि मिलने लगेगी। जो पाश्चात्य के अंध अनुसरण से बिल्कुल भिन्न, भारतीयता से महकती हुई होगी। क्योंकि हबीब तनवीर की अभिनय पद्घति और उनके अभिनय की भाषा अनेकानेक प्रसंगों में मौलिक है। यद्यपि उसकी बुनियाद भारतीय रंग परम्परा है। उसमे जीवन का नकलीपन नहीं, एक सौंधापन है, उल्लास है, खुशी है, जीवन को उत्सव की तरह जीने का उमंग है, एक अदम्य आालसा है। यही लालसा हबीब तनवीर के अभिनय की भाषा को एक नया रंग एक नया आयाम देती है। हबीब तनवीर की रंगदृष्टि, उनका रंगकर्म या अभिनय पद्धति या उनके अभिनय की भाषा एक ऐसा प्रसंग है: जिस पर अभी बहुत काम किया जाना शेष है। हबीब साहब की पुण्य स्मृतियों की नमन करते हुए और इस अवसर पर मुझे अपनी बात रखने का मौका देने के लिए विजुअल आर्ट का और आप सबका मुझे धर्यपूर्वक सुनने के लिए आभार व्यक्त कर अपनी बातें समाप्त करता हूँ। धन्यवाद।