गरदिल मंज़िल (नेहरू की वसीयत )

मेरी खाक

इन फिजाओं में उड़ा दो

इन्हीं आवारा हवाओं में तो पनपी थी यह खाक

दिल को कर दो इन्हीं आवारा हवाओं के सुपुर्द

धूल बन कर रूखे देहका 1 पे निकल जाने दो

अर्कै मेहनते देहक़ा2 में यह बस जाएगा

अर्कमेहनते देहक़ा से यह खाक

बन ही जाएगी कभी लालवो गुल गंदुम व जौ 4

मुश्तेखाक 5

ले के गंगा में छिड़क दो

मौजे गंगा से उठी, दामने गंगा में पली

बैठ जाएगी उसी पहलुए बैचेन में खाक

लरज़िशे 6 मौजे गमे दिल बनकर

मेरी खाक

कुछ तो गंगा में छिड़क दो

कुछ फिज़ाओं में बिखर जाने दो

गरदे मंजिल है यह खाक

उड़ते रहने दो इसे

इसमें बाक़ी है अभी काविशे यक मंजिले नौ

जंगल

वह क्या था

दोस्त वह क्या था

जिसने जंगल से बस्ती का रास्ता दिखाया

इंसान की तंज़ीम 1

वह क्या था

दोस्त वह क्या था

जिसने बस्ती के अंदर जंगल खड़े कर दिए

इंसान की तंजीम

वह क्या है दोस्त

वह क्या है

जो बस्ती से जंगल साफ कर देगी

इंसान की तंजीम

वह क्या है

दोस्त वह क्या है

जो बस्ती को जंगल से मिला देगी

इंसान की तंज़ीम

वह दिन कब आएगा

दोस्त वह दिन कब आएगा

जब बस्ती-बस्ती भी होगी

और बस्ती की रविश2-रविश पर

जंगल की हवाएं भी होंगी।

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