Editor-in-Chief सुभाष मिश्र की कलम से – सांसत में श्रमिक

Editor-in-Chief सुभाष मिश्र

-सुभाष मिश्र

उत्तराखंड के सिल्क्यारा में सुरंग धंसने और उसमें फंसे 41 मजदूरों को लेकर देश में श्रमिकों की सुरक्षा पर बहस छिड़ गई है। देश में श्रमिकों की सुरक्षा के क्या पैमाने हैं? क्या टेंडर लेने वाली कंपनियां श्रमिकों के सुरक्षा मानकों को पूरा कर रही हैं। श्रमिकों को सुरक्षा उपकरण उपलब्ध करवाए जा रहे हैं? क्या जोखिम भरे कामों में श्रमिकों का बीमा करवाया जाता है? श्रमिकों के परिवार को किस तरह के सुरक्षा कवच की व्यवस्था है? विकास के कामों में श्रमिकों की खासी भूमिका है। मगर, देश में उनकी सुरक्षा को लेकर न तो सरकार चिंतित है और न ही सरकार की मशीनरी। लालफीताशाही की शिकार व्यवस्था में मजदूरों की जान सांसत में रहती है। देशभर में काम के दौरान हादसे आम बात है। छत्तीसगढ़ में भिलाई स्टील प्लांट समेत कई प्लांट और फैक्ट्रियों में आए दिन हादसे होते रहते हैं। यही हाल देश के सभी औद्योगिक नगरों का है मगर इस पर असंवेदनशीलता ही नजर आती है।
देश में सरकारी कर्मचारियों को तो सारी सुविधाएं मिलती है, लेकिन सरकार जिन कामों को ठेके पर करवाती है, उसमें सरकार का काम ठेका भर देना होता है। बाकी जिम्मेदारी ठेकेदार की होती है। ठेकेदार मजदूरों के भरोसे सारा काम छोड़ देते हैं। जोखिम भरे कामों में भी सुरक्षा के मानकों को पालन नहीं किया जाता है। मजदूरों का बीमा नहीं होता है, उनको सुरक्षा उपकरण तक नहीं दिए जाते हैं।
महत्वपूर्ण बात यह है कि ठेके में तय तो मजदूरों की सुरक्षा को लेकर निर्माण का पैमाना भी होता है, लेकिन उसकी निगरानी नहीं होती। सब कुछ सरकारी देवों के चढ़ावे पर माफ हो जाती है। जब कोई हादसा हो जाता है तब जांच के नाम पर लीपापोती की जाती है। पूरी जांच जिम्मेदार को दोषी साबित करने की जगह बलि का बकरा खोजने पर केंद्रित होती है।
देश में वर्क कल्चर की स्थिति यह है कि अधिकांश कंपनियां सीटीसी के आधार पर नौकरी देती है। कुछ मल्टीनेशनल कंपनियों को छोड़ दें तो कर्मचारियों या श्रमिकों को मात्र वेतन भर मिलता है। उनका बीमा तो दूर अधिकांश तो कर्मचारी राज्य बीमा आयोग के नियम तक नहीं मानती है। वे न तो पीएफ काटती है और न ही उनके यहां ग्रेच्युटी का प्रावधान होता है। इतना ही नहीं, कुछ कंपनियां पीएफ तो जमा करवाती है, लेकिन अपना हिस्सा भी कर्मचारियों के सीटीसी में से ही वसूलती है। कुल मिलाकर भारतीय श्रमिकों और कर्मचारी के हितों की चिंता करने वाला कोई नहीं है। वे अपने संस्थान के मालिक के रहमोकरम पर निर्भर हैं।
भारत में औसतन एक कर्मचारी साल में 2117 घंटे काम करता है। मुंबई में एक कर्मचारी को औसतन सालाना 2691 घंटे और दिल्ली में 2511 घंटे काम करना पड़ता है, जबकि दुबई में 2323 घंटे, बीजिंग में 2096 घंटे, लंदन में 2003 घंटे, टोक्यो में 1997 घंटे और पेरिस में सिर्फ 1663 घंटे काम करना पड़ता है।
देश की अधिकांश कंपनी 9 घंटे प्रतिदिन के हिसाब से सप्ताह में 6 दिन काम कराती हैं। इसमें दफ्तर आने और जाने का टाइम भी जोड़ सकते हैं। साथ ही सवाल उठता है कि 8 घंटे से अधिक समय ऑफिस में देने पर क्या कर्मचारी को अतिरिक्त वेतन और सुविधाएं दी जाएंगी? या फिर वह सैलरी में बिना इजाफे के सिर्फ फ्री में अपनी अधिक सेवाएं कंपनी को देगा? कर्मचारी के निजी जीवन और पारिवारिक जीवन का क्या होगा? क्या वह अपनी फैमिली और प्राइवेट लाइफ को कंपनी के लिए कुर्बान कर देगा?
देश में सरकारी कर्मचारी की कार्य अवधि आठ घंटे की है, लेकिन उनकी शारीरिक उपस्थिति पांच घंटे भी नहीं होती। काम कम-आराम ज्यादा और नौकरी के लिए वेतन सुनिश्चित होने की गारंटी है। मगर काम के बदले रिश्वत आम बात है। छत्तीसगढ़ में तो 5 दिन का कार्य दिवस रखा गया है। इसके बावजूद सरकारी कर्मचारियों के कार्य की प्रवृत्ति में कोई बदलाव नहीं आया। सरकारी कर्मचारियों की इन्ही रवैये के कारण सरकार एक-एक कर सरकारी संस्थानों का निजीकरण कर रही है।
इसके विपरीत निजी संस्थानों में श्रमिकों का दोहन तो होता है। उससे उत्पादकता एक सीमा तक बढ़ जाती है। इसके बावजूद वेतन समेत अन्य मानकों को नजरअंदाज कर दिया जाता है। देश में कृषि क्षेत्र में 45 प्रतिशत मजदूर काम करते हैं, जबकि असंगठित क्षेत्र में मजदूरों की अनुमानित संख्या 28 करोड़ है। सबसे दयनीय हालात असंगठित क्षेत्र के मजदूरों की है। कार्य अवधि बढ़ाने की चर्चा तो सब करते हैं, लेकिन रोजगार के गारंटी की बात कहीं नहीं होती।
ऐसे समय जब देश में काम के घंटो को लेकर बहस जारी तब काम के अनुकूल वातावरण और सुरक्षित लेकर कोई ख़ास बात नहीं होती। ये तो उन मज़दूरों की जिजीविषा और बहुत सारे लोगों और तकनीक की मदद से 17 दिनों से उत्तराखंड की सिल्क्यारा डंडालगांव चैनल में 12 नवंबर यानी 17 दिनों से फंसे 41 मज़दूर सकुशल बाहर निकाल लिये गये। मज़दूरों को एक-एक लाख की आर्थिक सहायता दी गई। नेशनल मीडिया से लेकर देशभर में मज़दूरों की चर्चा आम रही। कुछ उत्साही रिपोर्टर तो बक़ायदा टनल जैसे पाईप में से रिपोर्टिंग करते देखे गये। एक तरफ़ मज़दूरों के कार्यस्थल पर काम के लिए ना तो सुरक्षात्मक माहौल और व्यवस्था है, ना ही बहुत सारी जगह उने न्यूनतम मज़दूरी, बीमा, स्वास्थ्य, पेंशन जैसी सुविधा है, ना ही उनके परिवारों के लिए स्वास्थ्य, शिक्षा, सड़क, पेयजल, अच्छे मकान ही उपलब्ध है।
ऐसे समय में इंफोसिस के सह-संस्थापक नारायण मूर्ति ने काम के घंटों को लेकर भारतीय युवाओं को यह सुनिश्चित करने के लिए कहा है कि सप्ताह में 70 घंटे काम करना चाहिए। उनका कहना है की भारत की कार्य उत्पादकता दुनिया में सबसे कम है और चीन जैसे देशों के साथ अंतर को पाटने के लिए युवाओं को सप्ताह में 70 घंटे काम करने की इच्छा व्यक्त करनी चाहिए। नारायण मूर्ति ने जापान और जर्मनी के द्वितीय विश्व युद्ध के बाद के चरण का हवाला दिया जहां श्रमिक अतिरिक्त घंंटे काम करते थे। उनका कहना है कि जब तक हम अपनी कार्य उत्पादकता में सुधार नहीं करते, हम उन देशों के साथ प्रतिस्पर्धा नहीं कर पाएंगे जिन्होंने जबरदस्त प्रगति की है। दुनिया भर में किए गए आंकड़ों और अध्ययनों को देखते कहा जा रहा है कि इंफोसिस के संस्थापक एक वास्तविकता को नजरअंदाज कर रहे हैं। भारत में काम के घंटे विश्व स्तर पर सबसे लंबे हैं।
अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन (ढ्ढरुह्र) के 2023 के नवीनतम आंकड़ों से पता चलता है कि देश के श्रमिक पहले से ही अन्य देशों में अपने समकक्षों की तुलना में अधिक काम कर रहे हैं। रैंकिंग के अनुसार, भारतीय सप्ताह में 47.7 घंटे काम करते हैं जो दुनिया में सातवां सबसे लंबा समय है। देश के श्रम कानून 48 घंटे के कार्य सप्ताह की अनुमति देते हैं। लंबे समय तक काम करने के बावजूद वैश्विक औसत की तुलना में भारतीयों की कार्य उत्पादकता विश्व स्तर पर सबसे कम है।
पिछले कुछ वर्षों में कम्पनियों की आमदनी और मुनाफा दोनों बढ़े हैं लेकिन उसका लाभ सिर्फ मैनेजमेंट और सीईओ को मिलता है। सॉफ्टवेयर कॉम्पनियां आज से 15 साल पहले भी फ्रेशर 20 हजार रुपये महीने में हायर करती थीं और आज भी 20-25 हजार से शुरू करती हैं, लेकिन अगर आप सीईओ और उसके समतुल्य लोगों के वेतन की बात करें तो उनके वेतन में 1100 प्रतिशत से अधिक वृद्धि हुई है। ऐसे में स्वस्थ और समृद्ध समाज के लिए श्रमिकों के हितों को कागजों पर ही सीमित रखने के बजाय उसे धरातल पर लाना होगा।

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