Editor-in-Chief सुभाष मिश्र की कलम से – रातों-रात क्यों बदल रही विचारधारा

Editor-in-Chief सुभाष मिश्र

-सुभाष मिश्र

ये चमत्कार इन दिनों देश की राजनीति में देखने को मिल रहा है। जहां सैकड़ों हजारों की संख्या में लोग अपनी विचारधारा में बदलाव महसूस करते हुए एक दूसरी विचारधारा को आत्मसात कर रहे हैं जिसका अब तक विरोध करते आए थे। रातों-रात विचारधारा परिवर्तन या आस्था बदलने के पीछे क्या है इसे समझना बहुत जरूरी है। कुछ उदाहरणों को लेते हुए इस चलन को समझने की कोशिश करते हैं। आज इंदौर से कांग्रेस प्रत्याशी अक्षय कांति बम ने पार्टी को झटका देते हुए अपना नामांकन वापस ले लिया। इसके बाद इंदौर सीट पर अब भाजपा के लिए मैदान लगभग साफ हो गया है। नाम वापस लेने के साथ ही उन्होंने भाजपा प्रवेश भी कर लिया है। इंदौर सीट पर 13 मई को मतदान होना है। नामांकन वापिस लेने और भाजपा में शामिल होने पर मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री मोहन यादव ने अक्षय कांति बम का स्वागत किया है। अक्षय बम आखिर किन परिस्थिति में अपना नाम वापस ले लिया आज तक जिस पार्टी के खिलाफ वे इंदौर जैसे शहर से चुनाव लड़ रहे थे। आखिर क्यों वो अपनी पार्टी छोड़कर विरोधी विचारधारा की ताल पर ताल मिलाने लगे। आज के दौर में ये हैरान करने वाला है। मध्यप्रदेश-छत्तीसगढ़ के साथ ही तमाम राज्यों में कांग्रेस छोड़ भाजपा प्रवेश का दौर चल रहा है। आए दिन बल्क में कांग्रेस नेता और कार्यकर्ता भाजपा का दामन थाम रहे हैं। इन राज्यों में विधानसभा चुनाव के नतीजों के बाद ये सिलसिला बहुत तेजी से चल पड़ा है। कुछ लोग इसे कांग्रेस के केन्द्रीय नेतृत्व की कमजोरी मान रहे हैं।
इक्कीसवीं सदी में ऐसे लोग जिन लोगों ने आजादी के बाद के राजनीतिज्ञों को देखा, सुना या उनको समझा है, चाहे वे सत्ता पक्ष के हों या विपक्ष के रहे हों, उन राजनीतिज्ञों की वैचारिक प्रतिबद्धता, उनकी नैतिकता और एक दूसरे के प्रति सम्मान और सद्भावना रखने की उदार भावना को आज भी याद करते हैं। ऐसी भावनाएं उस समय राजनीतिक ईमानदारी और उदारता की पहचान बनी हुई थी। ऐसा नहीं था कि उन दिनों राजनीतिक इच्छाएं और महत्वाकांक्षाएं नहीं थीं, लेकिन वे सामाजिक जीवन के सदाचार और नैतिकता को पूरी तरह पीछे धकेलकर किसी भी तरह सत्ता हथिया लेने की हवस में तब्दील नहीं हुई थी। लोकतंत्र में जनता का ही नहीं राजनीतिज्ञों का भरोसा भी बचा था। सत्ता में बने रहने के लिए सरकारी तंत्र का दुरुपयोग उन दिनों शुरू नहीं हुआ था। इसे तो बहुत बाद में इंदिरा गांधी ने शुरू किया था। पैसे देकर खरीद लेना, डराना-धमकाना, छापे डालना, गिरफ्तार कर लेना और ऐसी हरकतों से न्याय प्रणाली को प्रभावित करने की कोशिश करना और उसे संदिग्ध बना देना, उन दिनों किसी की कल्पना में भी नहीं था। लेकिन 70 के दशक के बाद कांग्रेस ने जब एक बार यह शुरू किया तो यह हालत हुई कि इसे खत्म करने या मिटाने की नैतिक कोशिश किसी ने नहीं की बल्कि इससे प्रेरणा लेकर और ज्यादा क्रूर, अभद्र, अनैतिक हथकंडे अपनाए जाने लगे हैं।
कांग्रेस के पास नैतिकता और विचारधारा के पतन की शुरुआत इस समय शुरू हो गई थी, लेकिन भाजपा के सत्ता में आने के बाद यह उम्मीद की जाने लगी थी कि जो भाजपा सबसे ज्यादा संस्कार, संस्कृति और नैतिकता की बात करती है वह लोकतंत्र के इस बदनुमा दागों को मिटाकर देश में लोकतंत्र की एक आदर्श छबि स्थापित करेगी। इस दल से यह उम्मीद की जा रही थी कि वह यह मिसाल कायम करेगी कि ईमानदारी, नैतिकता और राजनीतिक गरिमा के साथ भी सत्ता हासिल की जा सकती है। लेकिन ऐसा लगता है कि सत्ता जाने के भय से दुर्भावना और डराना-धमकाना, छापे डालना और गिरफ्तार करने की ओछी राजनीति की जो शुरुआत कांग्रेस के कार्यकाल में हुई बाद के समय में आने वाले राजनीतिक दलों ने इसे सत्ता हासिल करना और उसे कायम रखने के लिए प्रेरणा के रूप में ग्रहण किया है। इस बात की जरा भी परवाह नहीं की गई कि इससे लोकतंत्र की छबि मलिन होती है। दिलचस्प और दुखद बात यह है कि यह सब सिर्फ भारतीय राजनीति में नहीं घटित हो रहा बल्कि पूरे विश्व की राजनीति में इन दिनों इसी तरह की मानसिकता काम कर रही है। भूमंडलीकरण के दौर में उत्तर आधुनिकता द्वारा विश्व राजनीति को यह एक नई देन है जिससे विश्व की राजनीति ईमानदारी और नैतिकता से मुक्त हो रही है। पूरा विश्व एक बड़े खतरे के मुहाने पर खड़ा है। हर कोई कबूतर की तरह आंख बंद करके खड़ा है, जैसे आंख बंद कर लेने से खतरा दिखाई नहीं देगा और खतरा टल जाएगा।
इस समय देश में लोकसभा के चुनाव हो रहे हैं। जिस तरह से सूरत, इंदौर की घटनाएं हुई हैं वो काफी चौंकाने वाला है। इससे भाजपा की जैसे भी छबि बन या मिट रही हो लेकिन एक बात तो स्पष्ट हो गई है कि कांग्रेस के पास विचारधारा का संकट बढ़ता जा रहा है। उसके पास ईमानदार और नैतिक रूप से दृढ़ कार्यकर्ता और उम्मीदवार नहीं बचे हैं। इनमें ऐसे अनेक प्रत्याशी हैं जिनके अपराधिक प्रकरण हैं और इसी आधार पर उन्हें डराया और धमकाया जा रहा है।
यह तो तय हो गया है कि चाहे कोई भी राजनीतिक पार्टी हो, उसने भविष्य की राजनीति से ईमानदारी और नैतिकता की अंतिम विदाई कर दी है। किसी मनचले द्वारा फैलाए गए इस मुहावरे का राजनीति में बहुत दुरुपयोग हुआ है कि प्रेम, युद्ध और राजनीति में सब जायज है। अब यह भारतीय और कहें विश्व राजनीति का आप्त वाक्य है। सर्व स्वीकृत पवित्र मंत्र है। इस मुहावरे को दोहराते हुए राजनीतिज्ञ ईमानदारी और नैतिकता को लेकर अपने मन का असमंजस कब का दूर कर चुके हैं।

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