Editor-in-Chief सुभाष मिश्र की कलम से – आदिवासी: सभ्यता और संघर्ष की दास्तां 

Editor-in-Chief सुभाष मिश्र

From the pen of Editor-in-Chief Subhash Mishra – Tribals: Tales of Civilization and Struggle

– सुभाष मिश्र

जब मणिपुर में आदिवासी समाज हिंसा की आग में झुलस रहा है, उस आग की तपिश को महसूस करते हुए हम विश्व आदिवासी दिवस मनाने जा रहे हैं। अंतरराष्ट्रीय आदिवासी दिवस यानी वर्ल्ड इंडिजिनस डे हर साल 9 अगस्त को मनाया जाता है। इसकी शुरुआत का मकसद विश्व में आदिवासियों के घटती आबादी, विस्थापन और दुनियाभर में होते उनके मानवाधिकार हनन को रोकना था। संयुक्त राष्ट्र संघ ने साल 1994 में पहली बार आदिवासियों को संरक्षण देने की कवायद के तहत इस दिन को आधिकारिक रूप से ‘वर्ल्ड इंडिजिनस डेÓ के रूप में घोषित किया था।
आदिवासी कौन है और इनकी समस्या क्या है, क्यों प्रकृति के सबसे करीब रहने वाले ये लोग संकट में हैं? क्या आदिवासी कहीं का भी रहने वाला है, उसकी पीड़ा एक जैसी है, क्या वो एक ही तरह के शत्रु से घिरे हुए हैं। फिर वो अफ्रीका के जंगलों में रहने वाला कोई समुदाय हो, या फिर बस्तर का, आस्ट्रेलिया के मूल निवासी हों या फिर अमेरिका के रेड इंडियन। इन सबके बीच एक समानता है। कभी न कभी इन्हें इनके घर से इनके जंगल से नदियों से पहाड़ों से खदेड़ा गया है। इस तरह की कोशिश कथित सभ्य समाज द्वारा लगातार जारी है। इस वैश्विक हालात को स्थानीयता बोध के साथ बयां करती विनोद जी की ये कविता याद आती है।
जितने सभ्य होते हैं
उतने अस्वाभाविक।
आदिवासी जो स्वाभाविक हैं
उन्हें हमारी तरह सभ्य होना है
हमारी तरह अस्वाभाविक।
जंगल का चंद्रमा
असभ्य चंद्रमा है
इस बार पूर्णिमा के उजाले में
आदिवासी खुले में इक_ होने से
डरे हुए हैं
और पेड़ों के अंधेरे में दुबके
विलाप कर रहे हैं
क्योंकि एक हत्यारा शहर
बिजली की रोशनी से
जगमगाता हुआ
सभ्यता के मंच पर बसा हुआ है ।

विनोद जी की कविता के जरिए वैसे तो इस कथित सभ्य समाज औऱ आदिवसीयो के शोषण को और करीब से समझा जा सकता है। भारत के इतिहास में पहली बार कोई आदिवासी महिला देश के सबसे बड़े पद यानी राष्ट्रपति के पद पर विराजमान हैं। ये कोई छोटी बात नहीं है, इससे सांकेतिक ही सही, लेकिन भारत के आदिवासी आबादी के लिए एक बड़ा संदेश माना जा सकता है। बहरहाल, अब तक के सरकार के फैसले आदिवासी विरोधी ही लगते हैं। ऐसे में अब सरकार के सामने नई चुनौती है कि क्या वो वाकई आदिवासियों को आगे लाना चाहती है या महज़ ये राजनीति का एक प्रयोग भर है।
आज भी छत्तीसगढ़ समेत कई राज्यों में माइनिंग के बढ़ते दायरे की वजह से इन्हें बेघर होना पड़ रहा है। आज भी ये जिन इलाकों में निवास करते हैं वहां पर्याप्त रूप से बेसिक सुविधा भी नहीं मिल पाई है। कभी टाइगर रिजर्व के नाम पर तो कभी चीतों को बसाने के नाम पर विस्थापन का दंश ये समाज झेलते आ रहा है। छत्तीसगढ़ में आदिवासियों के जीवन को नक्सलवाद का काला साया पिछले कई दशक से घेरे हुए हैं। लाल आंतक ने जहां एक तरफ अपनी ढाल बनाकर इन्हें पीसा है तो दूसरी और सरकारी नुमाइंदों ने भी इनका जमकर शोषण किया। दोनों तरफ से पिसते हुए आदिवासी आज खुद को ठगा हुआ महसूस कर रहे हैं।
आदिवासी समाज का विकास सिर्फ उन्हें शहरों में बुलाकर नचवाने में नहीं है जैसा कि छत्तीसगढ़ अलग राज्य बनने के बाद लगातार हो रहा है। सरकारें किसी की भी हों इनके सिर पर सिंग बंधवाकर नचाया सबने। लेकिन आज दो दशक से ज्यादा वक्त बीत जाने के बाद हम व्यक्तिगत रूप से एक भी आदिवासी कलाकार या किसी समूह को पहचान नहीं दिलवा पाए हैं। दुर्भाग्य है कि करोड़ों खर्च के बाद भी एक जलसे में इन्हें नचाकर हम अपनी जिम्मेदारियों को पूरा कर रहे हैं। आज हम कार्यालय में बैठकर डीएमएफ (डिस्ट्रिक्ट मिनरल फंड) पर चर्चा कर रहे थे। छत्तीसगढ़ देश में खनिज न्यास से धन एकत्रित करने के मामले में देश में दूसरे नंबर पर है। 2016 से इसकी अधिसूचना जारी होने के बाद से लगभग 11362 करोड़ रुपए इस मद में अलग-अलग जिलों से प्राप्त हुए हैं। इस राशि को इन्हीं इलाकों के पेयजल, शिक्षा, सड़क, स्वास्थ्य को बेहतर बनाने के लिए करना है। छत्तीसगढ़ में ज्यादातर खनिज वहां स्थित है जहां आदिवासी समाज का निवास है। जाहिर है यहां हो रही अंधाधूंध माइनिंग से सर्वाधिक प्रभावित भी आदिवासी समाज ही हुआ है। दंतेवाड़ा से लेकर कोरबा और सरगुजा तक जंगलों में कोयला, बाक्साइट और लोहा निकाला जा रहा है। अगर ये राशि ईमानदारी से इन इलाकों में खर्च हुई होती तो आज आदिवासियों के जीवन में बहुत बड़ा बदलाव आ जाता। प्रदेश में 11 हजार 717 ग्राम पंचायतें हैं। अगर देखा जाए तो डीएमएफ फंड से ही हर गांव को लगभग एक करोड़ रुपए की राशि मिल जाती, इससे पूरी तस्वीर बदली जा सकती थी, लेकिन इस राशि का बंदरबांट से कई अफसरों और नेताओं के जीवन में हरियाली आई और वो आदिवासी जिन्होंने अपना सबकुछ न्योछावर कर दिया वो आज भी हाशिए पर ही पड़े हैं।
डॉ रमन सिंह की सरकार ने अपने 15 साल के कार्यकाल के दौरान आदिवासियों से जुड़ा एक बेहद अजीब प्रयोग इस प्रदेश में किया था। आज भी इस पर सोचो तो लगता है कि 21 वां सदी में भी क्या इस तरह का प्रयोग हमारे देश में संभव था। जी हां हम बात कर रहे हैं सलवाजुडूम अभियान की जिसके तहत नक्सलियों से लडऩे के लिए आम आदिवासियों को हथियार थमा दिया गया। आदिवासी आदिवासी को लड़ा दिया गया बहुत बड़े पैमाने पर रक्तपात हुआ। लोग घर बार छोड़कर शिविरों में रहने लगे। सैकड़ों गांव उजड़ गए जो आज भी दोबारा बस नहीं पाए हैं। 50 हजार से ज्यादा आदिवासी पड़ोसी राज्य में दर दर की ठोकरें खा रहे हैं। जो कभी खेत और मवेशियों के मालिक थे आज जैसे-तैसे कठिन हालत में मजदूरी कर अपना जीवन डर के साए में जी रहे हैं। इस तरह के हालात कुछ समय पहले ही बनाए गए थे, कोई बहुत पुरानी बात नहीं है। ऐसे में विनोद जी की एक और कविता की कुछ पंक्तियां याद आती हैं-

आदिवासी! पेड़ तुम्हें छोड़कर नहीं गए
और तुम भी जंगल छोड़कर ख़ुद नहीं गए
शहर के फुटपाथों पर अधनंगे बच्चे-परिवार
के साथ जाते दिखे इस साल
कहीं यही कारण तो नहीं है।
इस साल का भी अंत हो गया
परन्तु परिवार के झुंड में अबकी बार
छोटे-छोटे बच्चे नहीं दिखे
कहीं यह आदिवासियों के अंत होने का
सिलसिला तो नहीं।

छत्तीसगढ़ की भूपेश सरकार ने आदिवासी जीवन को कुछ समझने और सम्मान देने की कोशिश की। इसमें दो पहल जिसका जिक्र जरूर होना चाहिए उनमें वनोपज की खरीदी प्रमुख है। छत्तीसगढ़ में वर्तमान में समर्थन मूल्य पर 65 लघु वनोपजों की खरीदी की जा रही है। राज्य सरकार का यह फैसला वनाचंल के आदिवासियों के हित में अहम् साबित हो रहा है। लघु वनोपजों की संख्या में वृद्धि होने से उनकी आय में भी बढ़ोतरी हुई है। छत्तीसगढ़ में देश का 74 प्रतिशत लघु वनोपज संग्रहित होता है। इसी तरह बस्तर में उद्योग नहीं लगने के बाद भी सैकड़ों आदिवासियों की जमीन पर जो कब्जा था, उसे भूपेश सरकार ने मुक्त कराते हुए उन परिवारों को वापस कर दिया। ये अपने आप में बड़ी घटना थी। इससे आदिवासी समाज में सत्ता के प्रति एक विश्वास भी पैदा हुआ। आज आरक्षण, डिलिस्टिंग, विस्थापन जैसे कई मुद्दे आदिवासी समाज के सामने है। प्रदेश और देश में चुनाव होने वाले हैं। कई तरहों के वादों और सपनों का जाल भी इनका पीछा कर रहा है। ऐसे में आदिवासी समाज को बहुत सतर्क और समझदारी से काम लेना होगा। अपने जल-जंगल-जमीन के प्रति आदिवासी बहुत संवेदनशील होता है, उन्हें प्रकृति से जुड़े रहकर मुख्यधारा में अपनी छाप छोडऩी होगी। प्रसंगवश जसिंता केरकेट्टा की कविता –

एक दिन जब सारी नदियाँ
मर जाएँगी, ऑक्सीजन की कमी से
तब मरी हुई नदियों में तैरती मिलेंगी
सभ्यताओं की लाशें भी
नदियाँ ही जानती हैं
उनके मरने के बाद आती है
सभ्यताओं के मरने की बारी।

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