Editor-in-Chief सुभाष मिश्र की कलम से – श्रीकांत वर्मा का साहित्य संसार और उसकी प्रासंगिकता

Editor-in-Chief सुभाष मिश्र

-सुभाष मिश्र

श्रीकांत वर्मा को याद करते हुए उनके साहित्य संसार और उसकी प्रासंगिकता पर बात करते हैं। श्रीकांत वर्मा आजादी के बाद के अग्रगण्य कवि थे। वे बहुमुखी प्रतिभा संपन्न थे। कवि के रूप में ख्याति प्राप्त करने के अलावा वे कथाकार तथा समीक्षक के रूप में भी जाने गये। पत्रकारिता में उनकी प्रतिभा का विस्तार हुआ। दिनमान जैसी प्रखर वैचारिक पत्रिका के विशेष संवाददाता के रूप में उन्होंने उल्लेखनीय कार्य किया। पत्रकार के रूप में यूरोप प्रवास के जो अनूठे वृत्तांत उन्होंने लिखे, वे साहित्य की अमूल्य निधि हैं।
श्रीकांत वर्मा की बौद्धिक ऊर्जा राजनीति के क्षेत्र में भी प्रकट हुई। वे कांग्रेस से जुड़े थे तथा राज्यसभा के सदस्य रहे। वे सत्तर के दशक के उत्तरार्ध से अस्सी के दशक के पूर्वार्ध तक पार्टी के प्रवक्ता रहे। 1980 में इंदिरा गांधी के राष्ट्रीय चुनाव अभियान के प्रमुख प्रबंधक रहे और 1984 में राजीव गांधी के सलाहकार तथा राजनीतिक विश्लेषक के रूप में कार्य करते किया।
1970 के दशक का बहुचर्चित नारा ‘गऱीबी हटाओÓ श्रीकांत वर्मा के दिमाग़ की ही उपज थी। राजीव गांधी के दौर में वे कॉंग्रेस के महासचिव भी रहे। इस हैसियत तक पहुँचने के लिए श्रीकांत वर्मा ने कठिन संघर्ष किया। बिलासपुर में शिक्षक के रूप में अपना जीवन आरंभ करने वाले इस प्रतिभावान कवि ने अभावों से लड़ते हुए नागपुर विश्वविद्यालय से 1955 में हिंदी में एमए किया। उसी दौरान वे मूर्धन्य कवि मुक्तिबोध, व्यंग्यकार हरिशंकर परसाई के संपर्क में आए।
1960 के दशक में श्रीकांत वर्मा ने नई कविता के भीतर विद्रोही कवि के रूप में पहचान बनाई। उनकी कविता में स्थापित राजनीतिक-सामाजिक व्यवस्था को लेकर तीव्र आक्रोश था। एक चुस्त, आक्रामक, अतिसंवेदनशील और क्षोभ से भरा मुहावरा हिंदी कविता को श्रीकांत वर्मा के माध्यम से मिला। वे मुक्तिबोध के बाद उस दौर के सर्वाधिक सशक्त राजनीतिक कवि थे। समाज और राजनीति में विसंगतियों और अंतर्विरोधों के प्रति उन्होंने बेहद तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त की। उन्हें विसंगतियों की अचूक पहचान थी। उसे व्यक्त करने के लिए तेजतर्रार आक्रामक भाषा थी। 1984 में प्रकाशित ‘मगधÓ कविता संग्रह उनकी कविता की शिखर उपलब्धि है। इसमें वे सत्ता के अंतर्द्वंद्व में मनुष्य की नियति के संकेतों को समझने की कोशिश कर रहे थे।
उन्होंने अपनी कविता के जरिए न केवल अपने समय का सीधा सामना किया और अन्दर तक तिलमिला देने वाली भाषा ईजाद की, बल्कि अमानवीय ताकतों के विरुद्ध एक निर्मम और नंगी भिड़ंत की। इसीलिए उनकी कविता में नाराजग़ी, असहमति और विरोध का स्वर मुखर है। मगध अंतिम पड़ाव है जहाँ वह सत्ता के सत्य का साक्षात्कार करते हैं-
महाराज बधाई हो
महाराज की जय हो !
युद्ध नहीं हुआ
लौट गये शत्रु ।
वैसे हमारी तैयारी पूरी थी !
चार अक्षौहिणी थीं सेनाएं
दस सहस्र अश्व
लगभग इतने ही हाथी ।
कोई कसर न थी ।
युद्ध होता भी तो
नतीजा यही होता ।
न उनके पास अस्त्र थे
न अश्व न हाथी
युद्ध हो भी कैसे सकता था !
निहत्थे थे वे ।
उनमें से हरेक अकेला था
और हरेक यह कहता था
प्रत्येक अकेला होता है !
जो भी हो
जय यह आपकी है ।
बधाई हो !
राजसूय पूरा हुआ
आप चक्रवर्ती हुए
वे सिफऱ् कुछ प्रश्न छोड़ गये हैं
जैसे कि यह
कोसल अधिक दिन नहीं टिक सकता
कोसल में विचारों की कमी है।।
आज के विचारहीन समय में यह कविता सत्ता और सत्य दोनों की नियति के साफ संकेत देती है। आज का हाफ ट्रुथ इस कविता में नग्न रूप में खुला पड़ा है। ‘मगध की कविताएँ वर्तमान सभ्यता की दारुण नियति का रूपक बन जाती हैं। सत्ता का अहंकार एक दिन चूर-चूर हो जाता है। मिटटी में मिल जाता है।
मगध के लोग
मृतकों की हड्डियां चुन रहे हैं
कौन-सी अशोक की हैं?
और चन्द्रगुप्त की?
नहीं, नहीं
ये बिम्बिसार की नहीं हो सकतीं
अजातशत्रु की हैं।।
1984 में लिखी ये पंक्तियाँ उस समय का सत्य थीं, और कौन कह सकता है कि यह आज का सत्य नहीं है। एक कवि ही देख सकता है कि आज मगध में शोर है कि मगध में शासक नहीं रहे जो थे।
वे मदिरा, प्रमाद और आलस्य के कारण
इस लायक नहीं रहे कि उन्हें हम
मगध का शासक कह सकें।।
आज दुनियाभर में देखने को मिल रहा है कि सत्ता पर काबिज शख्स अपने खिलाफ किसी भी तरह की आवाज को दबाने के लिए किसी भी हद तक जा सकता है। आज मीडिया की स्थिति जिस तरह हां में हां मिलने वाली होती जा रही है, उस दौर में श्रीकांत वर्मा की ये कविता हमेशा सत्ता के सामने प्रश्नवाचक की तरह खड़े नजर आएगी।
कोई छींकता तक नहीं
इस डर से
कि मगध की शांति
भंग न हो जाए,
मगध को बनाए रखना है, तो,
मगध में शांति
रहनी ही चाहिए
मगध है, तो शांति है
कोई चीखता तक नहीं
इस डर से
कि मगध की व्यवस्था में
दखल न पड़ जाए
मगध में व्यवस्था रहनी ही चाहिए
मगध में न रही
तो कहाँ रहेगी?
क्या कहेंगे लोग?
लोगों का क्या?
लोग तो यह भी कहते हैं
मगध अब कहने को मगध है,
रहने को नहीं
कोई टोकता तक नहीं
इस डर से
कि मगध में
टोकने का रिवाज न बन जाए
एक बार शुरू होने पर
कहीं नहीं रूकता हस्तक्षेप-
वैसे तो मगध निवासिओं
कितना भी कतराओ
तुम बच नहीं सकते हस्तक्षेप से-
जब कोई नहीं करता
तब नगर के बीच से गुजऱता हुआ
मुर्दा
यह प्रश्न कर हस्तक्षेप करता है-
मनुष्य क्यों मरता है?

श्रीकांत वर्मा जीवन में सच्चे यायावर थे वैसे तो अपनी यात्राओं पर उन्होंने संस्मरण भी लिखा है। इन यात्राओं के समानांतर वो अपनी कविताओं में भी निरंतर यात्रा में नजर आते हैं। वे मगध और कौशल तक पहुंचते हैं। अधिनायकता और बेबस जनता की तस्वीर वो हस्तिनापुर में देखते हैं। विचारों पर हावी होती चापलूसी वो मगध और कौशल में देखते हैं। मजबूरी और प्रायश्चित के बीच जीत कर हारा हुआ शख्स खोजने के लिए दो हजार साल पीछ लौटते हैं।
इस पर उनकी कविता कलिंग को पढ़ लेते हैं-

केवल अशोक लौट रहा है
और सब
कलिंग का पता पूछ रहे हैं
केवल अशोक सिर झुकाए हुए है
और सब
विजेता की तरह चल रहे हैं
केवल अशोक के कानों में चीख़
गूँज रही है
और सब
हँसते-हँसते दोहरे हो रहे हैं
केवल अशोक ने शस्त्र रख दिए हैं
केवल अशोक
लड़ रहा था।।

इस तरह श्रीकांत वर्मा साहित्य का वो संसार रचते हैं जहां मगध है, हस्तिनापुर है, कौशल है और आज की दिल्ली भी। वे इतिहास के जरिए वर्तमान को सचेत करते हैं। वे इस विधा में बेहद असरदार नजर आते हैं और राजनीतिक व्यवस्था को समझने के लिए उसकी चालाकी से सचेत करने के नजरिए से उनकी प्रासंगिकता लगातार बढ़ती जा रही है।

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