Editor-in-Chief सुभाष मिश्र की कलम से – चुनाव में निजीकरण का मुद्दा

Editor-in-Chief सुभाष मिश्र

– सुभाष मिश्र

छत्तीसगढ़ में हो रहे चुनाव में वैसे तो स्थानीय मुद्दे हावी हैं, लेकिन इन प्रादेशिक मुद्दों के साथ ही बस्तर में एक मुद्दा ऐसा है जिस पर बात हो रही है वो राष्ट्रीय महत्व का है। हम बात कर रहे हैं नगरनार स्टील प्लांट के संबंध में जहां कांग्रेस का आरोप है कि इस प्लांट को केन्द्र सरकार निजी हाथों में सौंप देगी। वहीं प्रधानमंत्री मोदी से लेकर तमाम भाजपा के बड़े नेताओं ने इससे इंकार किया है। बस्तर में सभा को संबोधित करते हुए पीएम मोदी ने कहा था कि इस प्लांट पर पहला हक बस्तर का है। हालांकि, कांग्रेस अभी भी इसकी आशंका जता रही है।

निजीकरण को अगर सरल भाषा में समझा जाए तो आर्थिक सुधारों के संदर्भ में निजीकरण का अर्थ है, सार्वजनिक क्षेत्र के लिए सुरक्षित उद्योगों में से अधिक-से-अधिक उद्योगों को निजी क्षेत्र के लिए खोलना। इसके अंतर्गत वर्तमान सार्वजनिक क्षेत्र के उद्यमों को पूरी तरह या उनके एक हिस्से को निजी क्षेत्र को बेच दिया जाता है। जैसे हाल ही में घाटों से जूझ रहे एयर इंडिया के मामले में हुआ। लगातार घाटों से जूझ रहे इस उपक्रम को टाटा ने एक बार फिर टेकओवर कर लिया। इसी तरह बीएसएनएल भी लगातार घाटे में है, गाहे बगाहे इसके भी निजीकरण की बात होती रहती है। विपक्ष अक्सर ये सवाल उठाता है कि केन्द्र सरकार ने देश के तमाम हवाई अड्डे समेत कई महत्वपूर्ण स्थानों को निजी हाथों में सौप रही है। अब सवाल ये उठता है कि निजीकरण से देश को क्या नुकसान होता है या फिर किस फायदे के चलते इसे बढ़ावा दिया जा रहा है। क्या दूरगामी नजरिए से निजीकरण फायदेमंद है?

सामान्यत: यह माना जाता है कि व्यापार राज्य का व्यवसाय नहीं है। इसलिये व्यापार/अर्थव्यवस्था में सरकार का अत्यंत सीमित हस्तक्षेप होना चाहिये। पूंजीवादी अर्थव्यवस्था का संचालन बाज़ार कारकों के माध्यम से होता है। भूमंडलीकरण के पश्चात् इस प्रकार की अवधारण का और तेज़ी से विकास हो रहा है। निजीकृत कंपनियों में बाज़ार अनुशासन के परिणामस्वरूप वे और अधिक दक्ष बनने के लिये बाध्य होंगे और अपने ही वित्तीय एवं आर्थिक कार्यबल के निष्पादन पर अधिक ध्यान केंद्रित कर सकेंगे। वे बाज़ार को प्रभावित करने वाले कारकों का अधिक सक्रियता से मुकाबला कर सकेंगे तथा अपनी वाणिज्यिक आवश्यकताओं की पूर्ति अधिक व्यावसायिक तरीके से कर सकेंगे। निजीकरण से सरकारी क्षेत्र के उद्यमों की सरकारी नियंत्रण भी सीमित होगा और इससे निजीकृत कंपनियों को अपेक्षित निगमित शासन की प्राप्ति हो सकेगी।

दरअसल, हमारे यहां सरकारी नौकरी को लेकर जो नजरिया है वो कई बार घातक साबित होता है। जब संचालन सरकारी हाथों में होता है तब हम यूनियन बाजी कर्मचारियों की मनमानी रवैया अक्सर देखते हैं। लाला फीताशाही से लेकर तमाम तरह की बुराईयां किसी भी उपक्रम के लिए दीमक की तरह है। वहीं प्राइवेटाइजेशन के बाद अनुशासन में कामकाज होता है। परफॉर्म नहीं करने पर कार्रवाई की तलवार लटकी होती है, जिसके कारण जो कंपनी सरकारी क्षेत्र में खोखली साबित हो रही थी वो निजी हाथों में जाकर कमाउ ईकाई बन जाती है। भले ही निजीकरण के पक्ष में ये तर्क रखे जाते हैं लेकिन कहीं न कहीं ये हमारे सिस्टम की चूक है। अगर निजी हाथों में जब कोई कम लोगों में बेहतर ढंग से हो सकता है तो सरकारी क्षेत्र में क्यों नहीं? आखिर जिम्मेदार अधिकारियों की लापरवाही और कमीशनखोरी इसके लिए जिम्मेदार नहीं है।

निजीकरण के पक्ष में एक बात और कही जाती है कि इसके परिणामस्वरूप निजीकृत कंपनियों के शेयरों की पेशकश छोटे निवेशकों और कर्मचारियों को किये जाने से शक्ति और प्रबंधन को विकेंद्रित किया जा सकेगा। सार्वजनिक उपक्रमों के अनेक लाभ हैं। इस तथ्य को नकारा नहीं जा सकता कि निजी क्षेत्र की अपेक्षा सार्वजनिक क्षेत्र के अधिक आर्थिक, सामाजिक लाभ हैं और भारत जैसे लोकतांत्रिक देश में निजीकरण की कई कठिनाइयाँ हैं। भारतीय संविधान की प्रस्तावना में सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय की संकल्पना की गई है, सैद्धांतिक तौर इन विचारों का निजीकरण की प्रक्रिया से मतभेद होता है। निजीकरण की प्रक्रिया की सबसे बड़ी कठिनाई यूनियन के माध्यम से श्रमिकों की ओर से होने वाला विरोध है। निजीकरण के बाद कंपनियों की विशुद्ध परिसंपत्ति का प्रयोग सार्वजनिक कार्यों और जनसामान्य के लिये नहीं किया जा सकेगा। हालांकि सीएसआर का प्रावधान है। इसका मतलब होता है कॉरपोरेट सोशल रिस्पॉन्सिबिलिटी, यानी कारपोरेट जगत का सामाजिक उत्तरदायित्व. यह एक ऐसी अवधारणा है जिसमें व्यवसायों को अपने लाभ के अलावा समाज के लिए भी कुछ करना होता है। यह समाज के साथ एक समझौता है, जिसमें व्यवसायों को अपने कर्मचारियों, ग्राहकों, समुदाय और पर्यावरण के प्रति जिम्मेदारी निभाने का वादा करना होता है लेकिन इस राशि को भी बेहद चालाकी से खर्च कर दी जाती है।

अक्सर रेलवे के संदर्भ में भी विपक्ष निजीकरण का आरोप लगाते रहा है। जबकि आधुनिक सुविधाओं के हिमायती प्रधानमंत्री मोदी का कहना है कि 21वीं सदी के भारत की आवश्यकताओं को 20वीं सदी के तरीक़ों से पूरा नहीं किया जा सकता, इसलिए रेलवे में सुधार की ज़रूरत है।

मोदी सरकार ने विश्व स्तरीय यात्री सुविधाएं प्रदान करने और उन्हें आर्थिक विकास का केंद्र बनाने के उद्देश्य से रेलवे स्टेशनों के पुनर्विकास परियोजना की शुरुआत की है। आने वाले समय में रेलवे स्टेशनों के ऊपर और अंदर होटल, मॉल, कैफ़े और रेस्टोरेंट्स होंगे, इसके तहत देशभर में 400 स्टेशनों को चिन्हित किया गया है। इसके साथ कुछ ट्रेनों को तमाम तरह की सुविधाओं से लैस कर उन्हें निजी ग्रुप द्वारा संचालित कराया जा सकता है।

हालांकि तमाम सुविधाओं और सेवाओं का निजीकरण होने से इनका महंगा होने का बड़ा खतरा है। खासतौर पर अगर स्वास्थ्य और शिक्षा जैसी सेवाओं की बात कें तो वहां सरकार को अपनी भूमिका तमाम घाटों को सहते हुए भी बनाए रखना होगा साथ ही निजी क्षेत्र को भी काबू में रखना होगा। निजीकरण के पक्ष में ये भी दलील दी जाती है कि सरकार का काम क़ानून व्यवस्था को लागू करना है, निजी कंपनियों की मनमानी को रोकना और बाज़ार में स्वस्थ प्रतिस्पर्धा को बढ़ावा देना है। छत्तीसगढ़ में इसका उदाहरण भूपेश सरकार ने दिया था जब बस्तर में टाटा द्वारा जमीन अधिग्रहण के बाद भी प्लांट नहीं खोला गया तो उस जमीन को वापस आदिवासियों को लौटाने का काम किया था। इस तरह निजीकरण के अपने गुण-दोष हैं और ये सभी सरकारों ने किया है।

प्रसंगवश दुष्यंत कुमार की कविता की लाइनें-

आपके कालीन देखेंगे किसी दिन
इस समय तो पांव कीचड़ में सने हैं।

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