प्रधान संपादक सुभाष मिश्र की कलम से – आरक्षण का बढ़ता दायरा और नोटबंदी की याद

– सुभाष मिश्र

देश में आरक्षण की शुरुआत तकरीबन 139 साल पहले 1882 में हुई थी. इसके लिए हंटर आयोग का गठन , उस वक्त समाज सुधारक महात्मा ज्योतिराव फुले ने सभी के लिए निःशुल्क और अनिवार्य शिक्षा, साथ ही अंग्रेज सरकार की नौकरियों में आनुपातिक आरक्षण की मांग की थी। 1908 में अंग्रेजों ने पहली बार आरक्षण लागू करते हुए प्रशासन में हिस्सेदारी निभाने वाली जातियों और समुदायों की हिस्सेदारी तय की। इस तरह पिछले 139 सालों से आरक्षण पर कई तरह की बहस हो चुकी है.

वैसे आज के दौर में देखा जाए तो आरक्षण किसी समाज या समुदाय के उत्थान से ज्यादा राजनीति महत्व का शब्द या व्यवस्था ज्यादा बन गया है. संविधान निर्माण के वक्त डॉ आंबेडकर ने इसमें आरक्षण की स्थाई व्यवस्था नहीं दी थी. उन्होंने कहा था ’10 साल में यह समीक्षा हो कि जिन्हें आक्षण दिया गया, क्या उनकी स्थिति में कोई सुधार हुआ या नहीं’? उन्होंने यह भी कहा था कि यदि आरक्षण से किसी वर्गा का विकास हो जाता है तो उसके आगे की पीढ़ी को आरक्षण का लाभ नहीं देना चाहिए। इसके पीछे उन्होंने वजह बताई थी कि आरक्षण का मतलब बैसाखी नहीं है, जिसके सहारे पूरी जिंदगी काट दी जाए।

लेकिन बाद में इसे लगातार बढ़ाया गया. 2019 में केन्द्र की मोदी सरकार ने आर्थिक आधार पर सवर्णों को भी आरक्षण देने की घोषणा कर इसका और विस्तार कर दिया था.

सुप्रीम कोर्ट ने EWS आरक्षण पर अहम फैसला सुनाते हुए । 10 फीसदी आरक्षण पर मोदी सरकार के फैसले को वैध करार दिया । पीठ ने कहा कि यह आरक्षण संविधान के मूलभूत सिद्धांतों और भावना का उल्लंघन नहीं करता है।
महात्मा गांधी ने भी इस बारे में राय रखते हुए कहा था कि आरक्षण जाति धर्म पर नहीं, आर्थिक आधार पर हो. ‘हरिजन’ 12 दिसंबर 1936 के अंक में उन्होंने इस पर विस्तार से लिखा था. देश के पहले प्रधानमंत्री पंडित नेहरू भी आरक्षण के खिलाफ थे उन्होंने 26 मई 1949 को असेंबली में भाषण में जोर देते हुए कहा था कि आरक्षण से समाज का संतुलन बिगड़ेगा.
वर्तमान में आरक्षण को इस तरह वर्गीकृत कर सकते हैं-
EWS – 10 %
OBC- 27 %
SC- 15 %
ST – 7.5%
अब ईडब्ल्यूएस आरक्षण का लाभ किसे मिलेगा इस पर नजर डाल लेते हैं. आर्थिक आधार पर मिलने वाला इस आरक्षण का लाभ उन परिवारों को मिलेगा जिनकी सालाना आय 8 लाख रुपए से कम है. कृषि योग्य जमीन 5 एकड़ से कम है।

सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर देश में कई तरह के बयान समाने आए हैं
कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे ने EWS आरक्षण बरकरार रखने के सुप्रीम कोर्ट के फैसले का स्वागत किया है। उन्होंने कहा कि यह एक संशोधन था जिसे संसद में सर्वसम्मति से पारित किया गया था।

बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने आरक्षण पर 50 प्रतिशत की सीमा को हटाने की मांग करते हुए देशव्यापी जातिगत जनगणना के लिए नए सिरे से अपनी मांग को रखा।

इधर तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एमके स्टालिन ने फैसले पर कहा कि आर्थिक रूप से पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षण मामले में आज का फैसला सामाजिक न्याय के लिए सदी के लंबे संघर्ष को बड़ा झटका है।

कांग्रेस नेता और कर्नाटक के पूर्व मुख्यमंत्री सिद्धारमैया ने कहा कि सुप्रीम कोर्ट द्वारा पारित 3-2 के अनुपात का फैसला सर्वसम्मति निर्णय पर आधारित नहीं था। उन्होंने कहा कि भारतीय संविधान के अनुच्छेद 15 और 16 में आर्थिक पिछड़ेपन को आरक्षण के मानदंड के रूप में नहीं बताया गया है।

इधर आरक्षण पर चल रही बहस के बीच जम्मू और कश्मीर में मेडिकल एडमिशन को लेकर केंद्र सरकार ने बड़ा ऐलान किया है. अब यहा एमबीबीएस और बीडीएस कोर्सेस में दाखिले में आरक्षण के नियम में एक और कोटा जोड़ दिया गया है. ये कोटा है आतंक पीड़ितों का. इसी शैक्षणिक सत्र से टेरर विक्टिम रिजर्वेशन कोटा लागू किया जा रहा है
आरक्षण के बारे में इतना जरूर कहा जा सकता है कि ये किसी समस्या का स्थाई हल नहीं है. इसे बिना राजनैतिक चस्में के देखने की जरूरत है जिससे वाकई ऐसी व्यवस्था बनाई जा सके जिससे वाकई पिछड़े हुए समाज को आगे लाया जा सके. अन्यथा ये अपने मकसद से भटकता रहेगा.

6 साल बाद नोटबंदी की याद-
नोटबंदी को 6 साल पूरे हो चुके हैं. मोदी सरकार द्वारा लिए गए इस फैसले की चर्चा अभी भी होती है. सरकार जहां इसे सफल मानती है, वहीं विपक्ष इसे नाकामी के तौर पर गिनाते आया है. वित्त विशेषज्ञों की भी इस पर राय बंटी हुई है. 8 नवंबर 2016 को रात 8 बजे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अचानक 500 और 1000 के नोटों को बंद करने की घोषणा की थी. इस ऐलान के बाद देश में हहाकार की स्थिति बन गई थी. एटीएम सेंटर और बैंकों में लंबी लंबी लाइनें लगी हुई थी. नकदी के बिना कई बनते काम बिगड़ गए. कई लोगों को इलाज शिक्षा,शादी को टालना पड़ गया था. इस घोषणा का देश के व्यापार पर बहुत बुरा असर पड़ा था. हालांकि आंकड़ों की बात करें तो बीते साल नोट के सर्कुलेशन में करीब 64 फीसदी की बढ़त हुई थी, जो छठे साल में बढ़कर करीब 72 फीसदी तक पहुंच गई है. कालाधन को बाहर लाने के मकसद से लिया ये इसलिए भी सफल नहीं कहा जा सकता क्योंकि 99 फीसदी से ज्यादा राशि बैंकों में जमा करा दी गई थी. आज आंकड़ें जो भी बयां करे लेकिन उस दौरान सरकार के इस फैसले से आम जनता को जिस तरह की परेशानियों का सामना करना पड़ा था वो इतनी जल्दी लोगों के जेहन से नहीं मिटने वाला.

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