Editor-in-Chief सुभाष मिश्र की कलम से – चुनावी घोषणाओं की तय हो जिम्मेदारी

Editor-in-Chief सुभाष मिश्र

– सुभाष मिश्र

चुनाव के मौसम में वादों और घोषणाओं की झड़ी लगना आम बात है। मतदाताओं को लुभाने के लिए आमतौर पर वादों की चासनी और घोषणाओं की रेवड़ी बांटी जाती है। चुनावों के पहले प्रमुख राजनीतिक दल अपना घोषणा पत्र लेकर आते हैं, पिछले दिनों इसे संकल्प पत्र, जन-घोषणापत्र जैसे कई अन्य नाम भी दिए गए। इन घोषणाओं का मतदाताओं के मन पर कितना असर होता है, ये भी एक रिसर्च की विषय है। इसके अलावा एक बड़ा सवाल ये भी है कि घोषणा पत्र के माध्यम से किसी राजनीतिक दल द्वारा कही गई बात को पूरा करना उसकी नैतिक जिम्मेदारी है, लेकिन क्या इसे पूरा कराने के लिए मतदाताओं के पास क्या कोई कानूनी अधिकार है या फिर मान्यता प्राप्त राजनीतिक दल की कोई कानूनी जिम्मेदारी होती है कि वो जो वादा चुनाव के दौरान कर रहा है उसे वो निर्धारित समय में पूरा कर दें।

हाउस ऑफ लार्ड के जाने-माने विद्वान सदस्य लार्ड डेनिंग ने कहा था कि किसी राजनीतिक पार्टी का चुनावी घोषणापत्र ईश्वरीय वाणी नहीं है, न ही कोई हस्ताक्षरित बांड। ऐसी ही बात पूर्व में भारत के एक मुख्य न्यायाधीश ने भी कही थी। चुनावी घोषणापत्र कागज का एक टुकड़ा भर बनकर रह गए हैं और राजनीतिक दलों को इसके लिए उत्तरदायी बनाया जाना चाहिए। इन दिनों छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश, राजस्थान, तेलंगाना, मिजोरम में चुनाव कई बड़े-बड़े वादे हो रहे हैं। कई घोषणा और वादे तो इस तरह के होते हैं जिसे पूरा करने में कई तरह के वैधानिक अड़चन और आर्थिक चुनौती होती है, लेकिन चुनाव के पहले इसकी परवाह न तो नेता करते और न ही राजनीतिक दल।
मिजोरम में भाजपा ने महिलाओं को 33 प्रतिशत आरक्षण का वादा किया है। भाजपा ने 70 पृष्ठों के ‘दृष्टि पत्र Ó में महिला मतदाताओं को आकर्षित करने के लिए बड़े वादे किए हैं। इसके साथ ही प्रत्येक लड़की को 1.5 लाख रुपये की संचयी वित्तीय सहायता प्रदान करने का वादा किया गया है। जबकि कांग्रेस ने 750 रुपये में एलपीजी सिलेंडर, 2 हजार रुपये प्रतिमाह की वृद्धा पेंशन, 15 लाख तक स्वास्थ्य बीमा कवरेज समेत कई कल्याणकारी योजनाओं का जिक्र किया गया।

छत्तीसगढ़ में कांग्रेस ने घोषणा पत्र तो अभी जारी नहीं किया है, लेकिन अलग-अलग मंचों से कई बड़े वादे पार्टी ने कर दिए है, जैसे किसानों का कर्ज माफ करने का बड़ा वादा। फिर पीजी तक की शिक्षा मुफ्त करने का वादा, प्रति एकड़ 20 क्विंटल धान खरीदी का वादा, आवास देने का वादा, जातिगत जनगणना कराने जैसे कई वादे कर दिए हैं। खास बात ये भी है कि इन पर पूरे प्रदेश में चर्चा भी हो रही है। दरअसल 2018 में कांग्रेस ने दो बड़े वादे किए थे पहला कृषि कर्ज माफी का था, वहीं दूसरा 2500 की दर पर धान खरीदी का वादा था। इन दोनों घोषणाओं का पिछली बार जमकर जादू चला था, सरकार बनने के तुरंत बाद किसानों से किया वादा भूपेश बघेल की सरकार ने पूरा कर दिया था। इसीलिए किसानों में इसको लेकर उत्साह है वे इसका इंतजार भी कर रहे हैं कि कौन सी पार्टी के पिटारे से उनके लिए क्या निकलता है।

भारतीय लोकतंत्र के दो रास्ते हैं-एक उस दिशा में जाता है, जहां हर राजनीतिक दल नीति और तरीके में मामूली बदलाव के साथ एक ही किस्म के वायदे कर रहा है। चुनाव को अमीरों के लिए निवेश बना दिया जाए, जिसमें हर एक की क्रय-शक्ति से उसकी भूमिका तय होती है। दूसरा रास्ता है-आसमान से तारे तोड़ लाने वाले वायदों की सिविल सोसाइटी द्वारा निगरानी की जाए, कानूनी पकड़ हो और राजनीतिक दलों में खुद भी जवाबदेही हो। अगर लोकतंत्र निर्वाचित प्रतिनिधियों और आम जनता के बीच एक सामाजिक संविदा है, तो चुनावी घोषणापत्र को विधिक संविदा बनाना चाहिए।

भारत निर्वाचन आयोग द्वारा वर्ष 2015 में चुनाव घोषणा-पत्र संबंधी एक विशेष दिशा-निर्देश जारी किए गए थे। इस दिशा-निर्देश में चुनाव घोषणा-पत्र से संबंधित विषयों के संदर्भ में राजनीतिक दलों को निर्देश दिए गए थे, ताकि उनके द्वारा कोई अनुचित लाभ न लिया जाए। ऐसे कई उदाहरण गिनाए जा सकते हैं, जहां कई राजनीतिक दलों ने अपने घोषणा-पत्रों में वादे किए हैं और चुनाव के बाद उन्हें पूरा करने में विफल रहे हैं।

निश्चित रूप से चुनावी घोषणा-पत्र मतदाताओं के लिए निर्णय लेते समय राजनीतिक दलों के शासन के एजेंडे को उनके विचारों को मापने का एक सशक्त माध्यम है। ऐसे में राजनीतिक दलों को जिम्मेदारी पूर्वक इसमें घोषणाओं का समावेश करना चाहिए। साथ ही यूरोपीय और उत्तरी अमेरिकी देशों के मुकाबले भारत में चुनावी घोषणा-पत्रों को काफी कम तवज्जो दिया गया। मसलन, कम्पेरिटिव मैनिफेस्टो प्रोजेक्ट (सीएमपी) या घोषणा-पत्रों का तुलनात्मक अध्ययन परियोजना एक वैश्विक साझा कार्यक्रम है। इसके तहत दुनिया के विभिन्न देशों के विरोधी पार्टियों द्वारा किए गए वादों को गणना लायक संख्या और तुलनात्मक मापदंडों में बदला जाता है। दुर्भाग्य से, इस अध्ययन से एशियाई और अफ्रीकी देश मोटे तौर पर नदारद हैं। 2019 लोकसभा चुनाव में भाजपा ने कौन-कौन से वादे किए थे और उनमें से कितने पूरे हुए हैं, इस पर बहुत कम चर्चा हो रही है। इस तरह भले कुछ जगहों पर घोषणा पत्र पर चर्चा और उसका इंतजार हो रहा है, लेकिन अगर समग्र में देखा जाए तो हमारे देश में इसको लेकर जनता बहुत गंभीर नहीं है और आम जन के याददाश्त में ये घोषणा स्टोर भी नहीं रहती।

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