Editor-in-Chief सुभाष मिश्र की कलम से – सियासी नूरा-कुश्ती में उलझते जनता के मुद्दे

Editor-in-Chief सुभाष मिश्र

-सुभाष मिश्र

लोकसभा चुनाव अपने तीसरे चरण में पहुंच चुका है। जनता के मुद्दे तो अपनी जगह पर है ही लेकिन चुनाव में चरण बद्ध तरीके अलग-अलग मुद्दे नजर आ रहे हैं। इस बार 19 अप्रैल से एक जून के बीच सात चरण में मतदान हो रहा है, 7 मई को इसके तहत तीसरे चरण का मतदान होना है।
राजनीतिक दलों के साथ ही उनके तमाम नेता और कार्यकर्ता ज़ोर-शोर से प्रचार अभियान में जुटे हैं। अपने-अपने हिसाब से चुनावी विमर्श तय कर रहे हैं और उनके आधार पर जनता से समर्थन मांग रहे हैं। लोकतांत्रिक ढाँचे के तहत संसदीय व्यवस्था में आम चुनाव का सिफऱ् राजनीतिक महत्व नहीं होता है। इसका नागरिक महत्व कहीं अधिक मायने रखता है। आम चुनाव की प्रासंगिकता नागरिकों के लिहाज़ से अधिक महत्वपूर्ण है। इसी चुनाव से देश के साथ ही संपूर्ण देशवासियों का भविष्य तय होता है। चुनाव के पहले भाजपा ने एक नैरेटिव 400 पार का गढ़ा जिसमें विपक्ष के नेता फंसते नजर आए। मोदी की गारंटी केंद्रीय एजेंसियों के दुरुपयोग से शुरू हुआ चुनावी अभियान अब आरक्षण, मंगलसूत्र से होते हुए फेक वीडियो तक आ पहुंचा है। चुनावी समर में कच्छत्तीवु और पश्चिम बंगाल का संदेशखाली मुद्दा भी खूब उठा। मुख्यधारा की मीडिया से लेकर तमाम मंचों से आम जनता गायब है। आम जनता के सवाल और मुद्दे नदारद है। आम जनता का न तो चेहरा दिखाया जा रहा है और ही उस जनता की आवाज़ कहीं सुनाई दे रही है। भारत में अभी भी तकऱीबन सत्तर फ़ीसदी आबादी गाँव-देहात में रहती है।
बेरोजगारी महंगाई आदि पर तो उस तरह बात हुई नहीं थी, अब मामला हिंदू- मुस्लिम का ज्यादा नजर आ रहा है। जनता विकास और सुविधाओं की बात करना चाहती है, लेकिन नेता गोधरा, गुजरात, औरंगजेब और मुगलों पर ज्यादा बात हो रही है। पूरा राजनीतिक तंत्र जाति और धर्म के इर्द-गिर्द सिमट गया है। चाहे अलग-अलग राज्यों में राजनीतिक समीकरणों को साधने की बात हो या फिर अधिकांश सीट पर उम्मीदवारों को तय करने की कसौटी हो, व्यवहार में जाति-धर्म ही वो दो प्रमुख पहलू है, जो सबसे ज्यादाहावी नजर आ रहे हैं। एससी, एसटी और ओबीसी आरक्षण को खत्म करने और बचाए रखने के दावे के साथ भाजपा और कांग्रेस एक-दूसरे पर हमलावर हैं। प्रचार के दौरान भाजपा और कांग्रेस के सभी नेताओं के भाषणों को देखें तो इन्ही मुद्दों के इर्द-गिर्द रहे हैं। जाहिर है आगे के अन्य चार चरणों में चुनावी प्रचार में नए-नए मुद्दों की इंट्री हो सकती है। पहले चरण का चुनाव खत्म होने के बाद राहुल गांधी ने तेलंगाना में प्रेस कॉन्फ्रेंस करते हुए जाति आधारित गणना के साथ ही राष्ट्रव्यापी सर्वे और संपत्ति के बंटवारे का नया मुद्दा छेड़ दिया। इसे विस्तार से स्पष्ट करते हुए ओवरसीज कांग्रेस के अध्यक्ष सैम पित्रोदा ने संसाधनों के समान वितरण के लिए विरासत कर जैसी नीतियों की वकालत की। इसे सत्ता पक्ष ने जमकर घेरा। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने इसे तत्काल मध्यमवर्ग का बड़ा मुद्दा बनाते हुए महिलाओं के मंगलसूत्र छिनने और चार कमरे के फ्लैट में दो कमरे लेकर दूसरे को दिये जाने से जोड़ दिया। दूसरे चरण का मतदान होने तक भाजपा और विपक्षी दलों के नेताओं के बीच इसी को लेकर तकरार होती रही और प्रियंका गांधी ने राजीव गांधी के शहीद होने का हवाला देते हुए सोनिया गांधी द्वारा देश के लिए अपने मंगलसूत्र के बलिदान से इसका जवाब दिया। दूसरे चरण के पहले इस मुद्दे पर अखबारों के लेख, टीवी चैनल के डिबेट और सोशल मीडिया पर चल रहे तर्क-वितर्क को देखकर ऐसा लगा कि कहीं पूरा चुनाव इसी मुद्दे पर न निकल जाए, लेकिन दूसरे चरण का चुनाव समाप्त होते ही नए मुद्दे की इंट्री हो गई।
चुनाव में कभी विश्वगुरू तो कभी विरासत टैक्स का मुद्दा उठता है और लोग उस पर जमकर बहस करते हैं। कई बार विपक्ष ऐसे मुद्दों पर फंसते नजर आता है, जिस पर सत्ता पक्ष बहस कराना चाहता है। वो जनता के मुद्दों पर सत्ता पक्ष को ला नहीं पाती। सोशल मीडिया के दौर में जनता के मुद्दों से नेताओं की दूरी चिंता का विषय है। अगर इस तरह मुद्दों पर पर्देदारी चलते रहेगी तो आने वाले समय में लोग खुद को ठगा हुआ महसूस करेंगे। ऐसे में सत्ता पक्ष को सतर्क रहना होगा, साथ ही विपक्ष को जनता के साथ जुडऩा होगा। इसके इतर मीडिया को भी अपनी भूमिका होशियारी से निभानी होगी।

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