Editor-in-Chief सुभाष मिश्र की कलम से – अब वोटों का निर्धारण धर्म या जाति से होगा?

Editor-in-Chief सुभाष मिश्र
– सुभाष मिश्र
जातिगत जनगणना जंजाल या समाधान ?

बिहार में जातिगत जनगणना के आंकड़े जारी होने के बाद पूरे देश में एक नई तरह की बहस छिड़ गई है। आने वाले चुनाव में अब वोटों का निर्धारण धर्म या जाति से होगा? जो ओबीसी वर्ग अभी तक बहुत बड़े आरक्षण से वंचित था, क्या वह अपनी जाति के आधार पर अपने लिए चुनाव में टिकिट सहित आरक्षण और बाकी सुविधाओं की मांग करेगा? देश के मौजूदा हालात को देखते हुए मुझे अदम गोंडवी साहब का ये शेर याद आता है-
हिन्दू या मुस्लिम के अहसासात को मत छेडिय़े
अपनी कुरसी के लिए जज्बात को मत छेडिय़े।
छेडिय़े इक जंग, मिल-जुलकर गरीबी के $िखला$फ
दोस्त, मेरे मजहबी नग्मात को मत छेडिय़े।।
नितिश कुमार प्रदेश की राजनीति करते-करते अक्सर कोई न कोई बड़ा दांव चलकर देश की राजनीति के केन्द्र में आ जाते हैं। उन्हें ये हुनर बखूबी आता है। विपक्षी दलों को एकजुट कर ‘इंडियाÓ गठबंधन बनाकर उन्होंने ऐसा हाल ही में किया। इसी तरह सोमवार को उन्होंने बिहार में जातिगत जनगणना के आंकड़े सामने रखकर खलबली मचा दी। बिहार में जातिगत जनगणना के नतीजों से नीतीश को अत्यंत पिछड़ा वर्ग जिसे ईबीसी कहा जा रहा है, गैर-यादव अन्य पिछड़ा वर्ग और महादलित वोट बैंक पर अपनी स्थिति मजबूत करने में मदद मिलने की उम्मीद है। इसे कोई भी पार्टी या गठबंधन अगले साल के लोकसभा चुनाव में नजरअंदाज नहीं कर सकता।
बिहार की जाति जनगणना के आंकड़ों के मुताबिक, 36.01 फीसदी आबादी के साथ ईबीसी सबसे बड़ा वोट बैंक है। इसके बाद 27.12 फीसदी ओबीसी है, जिनमें से 14.26 फीसदी यादव हैं जो सबसे बड़ा सामाजिक समूह है। जाति जनगणना के आंकड़ों के मुताबिक दलित बिहार की आबादी का 19.65 फीसदी से ज्यादा है जबकि 2011 की जनगणना में यह 15 फीसदी दर्ज किया गया था। ईबीसी और ओबीसी के डेटा में पसमांदा मुसलमान भी शामिल हैं। विशेष रूप से यह नीतीश की ही पहल थी, जिन्होंने अपनी जाति कुर्मियों की कम संख्या की भरपाई के लिए ईबीसी और महादलितों को राजनीतिक तौर पर महत्वपूर्ण बनाया। इधर, बस्तर दौरे पर आए प्रधानमंत्री मोदी ने जातिगत जनगणना के बाद कांग्रेस के बयान को लेकर निशाना साधा है। पीएम मोदी ने कहा कि कल से कांग्रेस ने एक अलग राग अलापना शुरू कर दिया है। ये कहते हैं जितनी आबादी, उतना हक। मैं कहता हूं इस देश में अगर सबसे बड़ी कोई आबादी है तो वह गरीब है। इसलिए गरीब कल्याण ही मेरा मकसद है। पीएम ने कहा कि मैं सोच रहा था कि पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह क्या सोच रहे होंगे। वे कहते थे कि देश के संसाधनों पर पहला अधिकार अल्पसंख्यकों का है। उसमे भी मुसलमान का है। लेकिन अब कांग्रेस कह रही है कि आबादी तय करेगी कि देश के संसाधनों पर पहला अधिकार किसका होगा तो अब क्या वो अल्पसंख्यकों के अधिकारों को कम करना चाहती है? अगर आबादी के हिसाब से ही होने वाला है तो पहला हक किसका होना चाहिए? जरा कांग्रेस वाले स्पष्टता करें। गौरतलब है कि कुछ दिन पहले बिलासपुर में राहुल गांधी ने कहा था कि जातिगत जनगणना यानी कास्ट सेंसस हिंदुस्तान का एक्स-रे है। इससे पता लग जाएगा कि देश में ओबीसी, आदिवासी और सामान्य वर्ग के कितने लोग हैं। एक बार आंकड़ा आ जाएगा तो देश सबको लेकर आगे चल पाएगा। सबको भागीदारी देनी है तो जातिगत जनगणना करानी होगी। राहुल गांधी ने केन्द्र सरकार सचिवों में महज 3 फीसदी ओबीसी वर्ग के अधिकारी होने की बात कही थी। इस तरह जातिगत जनगणना की वकालत करते हुए इसके फायदे उन्होंने गिनाए थे। बिहार सरकार ने जातिगत गणना की रिपोर्ट जारी कर दी है और इसमें आये आंकड़े ने एक बार फिर से राजनीतिक क्षेत्र में तूफ़ान खड़ा कर दिया है। मंडल कमीश्न के बाद जाति को लेकर यह एक बड़ी घटना है। बिहार जातिगत जनगणना के आंकड़े जारी करने वाला पहला राज्य बन गया है। इससे पहले देश में 1931 में जातिगत जनगणना के आंकड़े जारी हुए थे।
80 के दशक में जातियों पर आधारित कई क्षेत्रीय पार्टियों का उभार हुआ। इन पार्टियों ने सरकारी शिक्षण संस्थानों और नौकरियों में आरक्षण दिए जाने को लेकर अभियान चलाया। इसी दौरान जातियों की संख्या के आधार पर आरक्षण की मांग सबसे पहले यूपी में बसपा नेता कांशीराम ने की। भारत सरकार ने साल 1979 में सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़ी जातियों को आरक्षण देने के मसले पर मंडल कमीशन का गठन किया। मंडल कमीशन ने ओबीसी को आरक्षण देने की सिफारिश की। इस सिफारिश को 1990 में उस वक्त के प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह ने लागू किया। इसके बाद देशभर में सामान्य श्रेणी के छात्रों ने उग्र विरोध प्रदर्शन किया। साल 2010 में लालू प्रसाद यादव और मुलायम सिंह यादव जैसे ओबीसी नेताओं ने मनमोहन सरकार पर जातिगत जनगणना कराने का दबाव बनाया। इसके साथ ही पिछड़ी जाति के कांग्रेस नेता भी ऐसा चाहते थे। मनमोहन सरकार ने 2011 में सामाजिक आर्थिक जाति जनगणना यानी एसईसीसी कराने का फैसला किया। इसके लिए 4 हजार 389 करोड़ रुपए का बजट पास हुआ। 2013 में ये जनगणना पूरी हुई, लेकिन इसमें जातियों का डेटा आज तक सार्वजनिक नहीं किया गया है। एसईसीसी का डेटा 2013 तक जुटाया गया। इसे प्रोसेस करके फाइनल रिपोर्ट तैयार होती, तब तक सत्ता बदल गई और 2014 में केंद्र में मोदी सरकार आ गई। 2016 में जातियों को छोड़कर एसईसीसी का बाकी डेटा मोदी सरकार ने जारी कर दिया। राष्ट्रीय स्तर पर 1931 की अंतिम जातिगत जनगणना में जातियों की कुल संख्या 4,147 थी, एसईसीसी-2011 में 46 लाख विभिन्न जातियां दर्ज हुई हैं। चूंकि, देश में इतनी जातियां होना नामुमकिन हैं। सरकार ने कहा है कि संपूर्ण डेटा सेट खामियों से भरा हुआ है। इस वजह से रिजर्वेशन और पॉलिसी डिसीजन में इस डेटा का इस्तेमाल नहीं किया जा सकता। पिछले कुछ चुनावों से ओबीसी वोटरों में बीजेपी की लोकप्रियता बढ़ी है। ओबीसी की संख्या उन्हें केंद्र की नौकरियों में मिल रहे मौजूदा आरक्षण से कहीं अधिक हो सकती है। यह मंडल-2 जैसी स्थिति उत्पन्न कर सकती है और बीजेपी को चुनौती देने का एजेंडा तलाश रहीं क्षेत्रीय पार्टियों को नया जीवन भी। 2009 के आम चुनाव में बीजेपी को 22फीसदी ओबीसी वोट मिले थे, जो 10 साल में दोगुने हो गए। पिछले लोकसभा चुनाव में बीजेपी को 44 फीसदी वोट मिले। वहीं क्षेत्रीय पार्टियों का हिस्सा 2009 के 42 फीसदी वोटों से घटकर 27 फीसदी रह गया। इस तरह विपक्ष सामाजिक न्याय के नाम पर साल 2024 के चुनावों में जातिगत जनगणना का मुद्दा उठाकर बीजेपी पर दबाव बनाने और पिछड़े वोट को अपने पक्ष में करने की कोशिश कर रहा है। कर्नाटक के तत्कालीन मुख्यमंत्री सिद्धारमैया ने 2014-15 में जाति आधारित जनगणना कराने का फैसला किया। इसे असंवैधानिक बताया गया तो नाम बदलकर ‘सामाजिक एवं आर्थिक सर्वे कर दिया। इस पर 150 करोड़ रुपए खर्च हुए। 2017 के अंत में कंठराज समिति ने रिपोर्ट सरकार को सौंपी। सर्वे की रिपोर्ट को सिद्धारमैया सरकार ने सार्वजनिक नहीं किया। ऐसे में देखने वाली बात होगी कि जातिगत आरक्षण केवल राजनीति दलों के नफा-नुकसान तक सीमित रहेगा या फिर इससे किसी समाज का भला हो सकेगा।

प्रसंगवश दो महापुरुषों की अमर वाणी-
जनम जात मत पूछिए, का जात अरु पात।
रैदास पूत सब प्रभु के, कोए नहिं जात कुजात।।
संत रैदास
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कबीरा कुआं एक है, पानी भरैं अनेक।
बर्तन में ही भेद है, पानी सबमें एक।।
संत कबीरदास

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