हमारे समय का महत्वपूर्ण दस्तावेज है अजित राय की ‘दृश्यांतर’

हमारे समय का महत्वपूर्ण दस्तावेज है अजित राय की 'दृश्यांतर'

Ajit Rai’s ‘Drishyaantar’ is an important document of our times.

मुंबई। वरिष्ठ पत्रकार और लेखक अजित राय की नई किताब दृश्यांतर का मुंबई में विमोचन हुआ। इस अवसर पर फि़ल्म निर्देशक तिग्मांशु धूलिया, दूरदर्शन के पूर्व महानिदेशक त्रिपुरारी शरण, छत्तीसगढ़ फिल्म एंड विजुअल आर्ट सोसायटी के प्रमुख सुभाष मिश्र, फि़ल्म अभिनेत्री हिमानी शिवपुरी, फि़ल्म अभिनेता राजेन्द्र गुप्ता, पवन मल्होत्रा, अखिलेन्द्र मिश्रा, फिल्म डायरेक्टर अमित राय, नाट्य निदेशक ओम कटारे, पुस्तक के लेखक अजित राय, असगऱ वजाहत, वामन केन्द्रे, आबिद सुरती, अमित राय सहित सिनेमा पत्रकारिता साहित्य और रंगमंच की बहुत सी हस्तियां मौजूद थीं। कार्यक्रम का संचालन देवेन्द्र नाथ ओझा ने किया। अजित राय की किताब दृश्यांतर पर बहुत से वक्ताओं ने अपने विचार रखे।
इस दौरान पहला सत्र रंगकर्म को लेकर हुआ। जिसमें मुम्बई, हरियाणा, राजस्थान, उत्तरप्रदेश, बिहार, मध्यप्रदेश से आये हुए रंगकर्मियों ने अपनी बात रखी। दूसरे सत्र में अजित राय की नई पुस्तक वाणी प्रकाशन द्वारा प्रकाशित दृश्यांतर का विमोचन हुआ और पुस्तक पर चर्चा हुई।

दृश्यांतर पर मेरी समीक्षा
अजित राय जैसे पत्रकार, लेखक और संस्कृति कर्मी जिनके विमर्श में अगर मैं ये कहूं की पूरी दुनिया का सांस्कृतिक विमर्श है तो अतिश्योक्ति नहीं होगी। आप छत्तीसगढ़ से लेकर कान तक और गोवा से लेकर बर्लिन और ओस्लो तक पहुंचते हैं और सिर्फ पहुंचते ही नहीं बल्कि उसे जीते भी हैं। जब ये कलादूत अपनी सांस्कृतिक यात्रा में तीन दशक से ज्यादा वक्त गुजार चुका हो तो उसके पास लिखने के लिए बहुत कुछ होता है। मुझे लगता है कि अजित राय जी ने जो जिया है, जो देखा है उसका एक बड़ा कैनवास इस किताब के माध्यम से तो पाठकों के सामने उतरता है। लेकिन मुझे अभी ये भी लगता है कि अजित के अभी पूरे रंग और उनसे बनने वाली रेखाचित्र फलक पर उतरनी बाकी है।
‘दृश्यांतर की भूमिका में त्रिपुरारि शरण जी बिलकुल सही कहते हैं कि यह हमारे समय का एक अत्यंत महत्वपूर्ण दस्तावेज होगा। वाकई जब आप इस किताब को पढ़ते हैं तो आप महसूस करने लगते हैं परदे के पीछे छूपे दृश्यांतर को। ये बदलते दृश्य आप को एक जगह, एक किताब पर मिलना दुर्लभ है। अजित के साथ जब आप लाहौर पहुंचते हैं तो उसी सौंधी महक आप भी महसूस करते हैं, लेकिन जिस तरह से साहस के साथ अजित ने इंडो-पाक बॉर्डर पर दृश्यांतर करते हैं वो बेहद रोचक लगता है। जिस पाकिस्तान को हम धार्मिक कट्टरता, गरीबी और अन्य नकारात्मक कारणों से जानते हैं, वहां कलाकारों और संस्कृतिकर्मी की इस तरह पूछ परख होगी ये जानकर आम पाठक अवश्य अचरज में पड़ता है। जैसे इंटरनेट पर आम लोगों की पहुंच बढ़ती जा रही है, वैसे-वैसे पत्र-पत्रिकाओं की तरह ही टीवी का जादू भी कमजोर पडऩे लगा है। इसके इतर एक और दृश्यांतर आया है सोशल मीडिया के साथ। इस मीडिया ने आम आदमी को कई मायनों में शक्ति संपन्न किया है। इसके अपने लाभ-हानी हैं, लेकिन आज उस पर चर्चा नहीं करते। तो मैं अजित के लाहौर पहुंचने और वहां के अनुभव से आम पाठक के मन में उभरे अचरज की बात कह रहा था। कुछ इसी तरह का अचरज तब होता है जब आप पाकिस्तान के सोशल मीडिया में वहां के ब्लॉगर्स के द्वारा जो वीडियो पोस्ट होते हैं उसे देखकर महसूस कर सकते हैं। वहां आम लोगों के बीच में भारत की बिलकुल अलग ही तरह की इमेज है। तब ऐहसास होता है कि अगर एलओसी के दोनों तरफ रहने वालों के बीच कोई वैमनस्यता नहीं है। ये जहर का बहाव कहीं और से होता है, इसका लाभ कोई और उठाता है।
अजित ने एक और महत्वपूर्ण बात इस किताब के माध्यम से कही है, जिसे मैं शिद्दत से महसूस करते आया हूं। अजित लाहौर वाले प्रसंग में कहते हैं कि ‘संस्कृति केवल सरकारी पहलकदमी से नहीं जनता की भागीदारी से आगे बढ़ती है।वाकई कब तक हम सिर्फ सरकार के भरोसे रहेंगे और महज सरकारी आयोजनों को ही संस्कृतिक झलकी मानते रहेंगे। इसे बढ़ाने दूसरे संस्कृति के साथ समागित कराने की जिम्मेवारी सब की है, इसके लिए जनभागीदारी जरूरी है।
पेरिस की गलियों में घूमते हुए अजित राय सार्त्र से जुड़ी जगह को ढूंढते हैं और वहां पहुंचते हैं। वहां पहुंचकर एक खुशी तो मिलती है, साथ ही ये कशक भी उभरती है कि हम इस मामले अभी बहुत पिछड़े हैं। हमारे साहित्यकार, चित्रकार को इस तरह का सम्मान नहीं मिल पाया है। वैसे तो हम सब के जीवन में स्त्रियों की अहम भूमिका है, लेकिन अजित राय उन लोगों में से हैं जिनकी यात्रा में अलग-अलग पड़ाव पर अलग-अलग भूमिका में स्त्रियां आती हैं। उन्हें देखने का समझने का अजित राय का अलहदा अंदाज रहा है। अजित की इस किताब में उनके जीवन में आईं कई स्त्रियों से जुड़े फ्रैंच अभिनेत्री मारियन बर्गो से लेकर पाकिस्तान की सामाजिक सांस्कृतिक कार्यकर्ता मदीहा गौहर या फिर शर्मिला हो जो बार-बार पुरुषों के हाथों ठगी गई। बकौल मदीला गौहर-जो सुंदर है उसे ढंक लेना और जो भयानक है उसे छिपाना इसके बड़े राजनीतिक मायने हैं। हमारे समय के महत्वपूर्ण रंगकर्मी स्वर्गीय बंसी कौल का पाकिस्तान में मंच से यह कहना कि ‘आम आदमी के पास एक ही असलहा बचा है वह सकी हंसी है। आज हंसी के खिलाफ साजिश हो रही है इसे बचाने की जरूरत है।
इस किताब में हिंदी को लेकर भी बहुत जरूरी विमर्श है। हिंदी के विषय में ये कहना कि मार्केट, मीडिया और टेक्नोलॉजी ने सचमुच में हिंदी को विश्व भाषा बना दिया है। अब इसी हिंदी पट्टे के बहाने भारत विश्व गुरू बनने के ख्वाब देख रहा है। इस तरह इस किताब में कई दृश्यांतर आते हैं जो पाठक को बांधे रखने में कामयाब रहते हैं। इस तरह बदलते समाज उसके जरूरत सोच, संस्कृति, फिल्म जैसे कई विषयों पर जानकारी को ये किताब समृद्ध करती है। इस किताब को पढऩे के बाद मुझे लगता है कि अजित राय को उनके संपर्क में आई स्त्रियों पर एक किताब लिखनी चाहिए।

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