Editor-in-Chief सुभाष मिश्र की कलम से – घोषणा पत्र और चुनावी रेवड़िया

Editor-in-Chief

From the pen of Editor-in-Chief Subhash Mishra – Manifesto and election rally

– सुभाष मिश्र

छत्तीसगढ़ में चुनावी बादल मंडरा रहे हैं, भले ही मेघराज कई जिलों में अब तक उतना नहीं बरसे हैं लेकिन वादों और आरोपों की झड़ी हर तरफ लग चुकी है। हाल ही में प्रधानमंत्री मोदी रायपुर आए थे, उन्होंने यहां कांग्रेस सरकार पर अपने चुनावी वादे जो कि उनके घोषणा पत्र में शामिल थे, उन्हें पूरा नहीं करने का आरोप लगाया। इनमें उन्होंने शराबबंदी का जिक्र प्रमुखता से किया। गौरतलब है कि माना जाता है कि 2018 में छत्तीसगढ़ में कांग्रेस की जीत के लिए उस वक्त तैयार किए गए जन घोषणा पत्र को भी एक प्रमुख कारक के तौर पर देखा जाता रहा है। ऐसे में घोषणा पत्र के बारे में जानना जरूरी है, हमारे यहां ये कब से चलन में है निर्वाचन आयोग इसे किस तरह देखता है, साथ ही दूसरे देशों में भी क्या इसकी मौजूदगी है। ऑक्सफोर्ड शब्द कोष में घोषणा पत्र को किसी समूह तथा राजनैतिक दल की नीति एवं उद्देश्यों की सार्वजनिक घोषणा के रूप में परिभाषित किया गया है। इस प्रकार निर्वाचन घोषणा पत्र एक प्रकाशित दस्तावेज है जिसमें किसी राजनैतिक दल की विचारधारा, आशयों, दृष्टिकोणों, नीतियों एवं कार्यक्रमों की घोषणा अंतर्विष्ट होती है। निर्वाचन घोषणा पत्रों को साधारणतया आगामी निर्वाचनों को ध्यान में रखते हुए राजनैतिक दलों द्वारा तैयार किया जाता है। इन बातों के अलावा आजकल ज्यादातर पार्टियां अपने घोषणा पत्रों में ऐसी वस्तुओं का वादा करते हैं जिन्हें सामान्य बोलचाल की भाषा में ”फ्रीबीज कहा जाता है। ”फ्रीबीज को वेब्सनटर शब्दलकोष में ऐसी वस्तुओं के रूप में परिभाषित किया जाता है जो बिना प्रभार के दिया जाता है। इन वचनों में निर्वाचकों के लक्षित समूहों, यथा गरीबी रेखा से नीचे जीवन-यापन करने वाले परिवारों, समाज के कमजोर वर्ग के लोगों, महिलाओं, विकलांग व्यक्तियों आदि तथा समग्र रूप में निर्वाचक मंडल को ध्यान में रखा जाता है। आज बकायदा चुनाव के करीब 6 माह पहले घोषणा पत्र तैयार करने वाली समिति गठित हो जाती है। छत्तीसगढ़ में इस बार बीजेपी के घोषणा पत्र टीम में 31 लोग हैं। 1 संयोजक और 3 सह संयोजक के रूप में काम करेंगे। इसके अलावा 27 नेता घोषणा पत्र टीम के सदस्य बनाए गए हैं। संयोजक दुर्ग सांसद विजय बघेल, सह संयोजक के रूप में पूर्व सांसद रामविचार नेताम, पूर्व मंत्री अमर अग्रवाल, विधायक शिवरतन शर्मा को जिम्मेदारी सौंपी गई है। इसके अलावा अलग-अलग जिलों के 27 नेताओं को घोषणा पत्र टीम का सदस्य बनाया गया है। विजय बघेल ने दावा किया है कि वो सत्य पर आधारित और प्रधानमंत्री मोदी के संकल्पों को ध्यान में रखते हुए घोषणा पत्र तैयार करेंगे। हालांकि कांग्रेस ने अभी समिति गठित नहीं की है, पिछली बार इस समिति के अध्यक्ष रहे टीएस सिंहदेव ने इस बार घोषणा पत्र समिति की जिम्मेदारी लेने से इनकार किया है। उन्होंने 2018 में घोषणा समिति बनाने के लिए पूरे प्रदेश का दौरा किया था। लोगों से मुलाकात कर उनकी राय जानी थी। उसी के आधार पर वादों का ये दस्तावेज तैयार हुआ था जिसमें सबसे प्रमुख किसानों का कर्ज माफ करना, लोहंडीगुड़ा में आदिवासियों की जमीन वापसी कराना, प्रति क्विंटल धान का 2500 रुपए देना और शराबबंदी जैसे वादे शामिल थे। इस घोषणा पत्र का जादू सिर चढ़कर बोला था। भूपेश सरकार ने भी कई बड़े वादे पूरे कर दिए तो कुछ रह गए हैं। हाल में हुए कर्नाटक चुनाव में कांग्रेस के घोषणा पत्र जिसे संकल्प पत्र नाम दिया गया था उस पर काफी चर्चा हुई थी। बजरंग दल पर प्रतिबंध वाले बिंदु पर देशभर में प्रतिक्रिया देखी गई। प्रधानमंत्री मोदी तक ने अपने चुनावी सभाओं में इस मुद्दे को जमकर उठाया था। इससे समझा जा सकता है कि चुनावों में घोषणा पत्रों की भूमिका कितनी बढ़ गई है।

आम आदमी पार्टी भी कई लोकलुभावन घोषणा पत्र जारी कर चुकी है, यूपी चुनाव में तो आप ने इसे गारंटी पत्र नाम दिया था। देखा गया है कि आप अपने घोषणा पत्र में फ्रीबीज को बहुत ज्यादा शामिल करती है।

चुनाव के दौरान जिस तरह से लोकलुभवन वादों के चक्कर में फ्रीबीज बढ़ रहा है उसे ही चुनावी रेवड़ी भी कहते हैं। प्रधानमंत्री मोदी से लेकर कई नेताओं ने इस कल्चर को खत्म करने की बात कही है लेकिन अब ये चुनावी रेवड़ी सियासतदानों की रणनीति का हिस्सा बन गई है। वे बेझिझक इसकी वकालत करने लगे हैं। अगर कुछ लोग इसका विरोध करते दिखते हैं तो वह विरोध भी जुबानी होता है। इसका उनके सियासी आचरण से दूर-दूर तक कोई लेना-देना नहीं होता।

तभी प्रधानमंत्री मोदी द्वारा सार्वजनिक मंचों से चुनावी रेवड़ी से परहेज की बात कहने के बाद भी हाल ही में हुए कर्नाटक चुनाव में भाजपा ने अपने घोषणा पत्र में रेवडिय़ों की झड़ी लगाते हुए अनुसूचित जाति और जनजाति के परिवारों को 5 साल के लिए दस हजार रुपये की एफडी करवाने, गरीब परिवारों को साल में तीन मुफ्त गैस सिलेंडर, रोज आधा लीटर नंदिनी दूध और हर महीने 5 किलो चावल और बाजरा मुफ्त देने का ऐलान किया था। चुनावी रेवड़ी कल्चर की शुरुआत तमिलनाडु से हुई जब 1967 में डीएमके ने कई लोकलुभावन वादे किए थे। फिर एआईडीएमके ने भी इसे आगे बढ़ाते हुए रेवड़ी बांटने का सिलसिला जारी रखा।

हालिया वर्षों में भारतीय जनता पार्टी के कई बड़े वादे जैसे किसानों की आय दोगुनी करना, अर्थव्यवस्था को और मजबूत करना, युवाओं को रोजगार जैसे वादे पूरे नहीं हो पाए हैं। इसी नाकामी को छुपाने पार्टी अपनी लोकलुभावनी योजनाओं पर जोर दे रही है। जैसे- किसानों को नकद भुगतान, मुफ्त खाद्यान्न, मुफ्त शौचालय, आवास सब्सिडी, मुफ्त चिकित्सा बीमा जैसी योजनाएं शामिल है। भले ही प्रधानमंत्री मोदी दूसरे दलों को इसके लिए तंज कसें लेकिन घर में बंट रही रेवड़ी को लेकर वो चुप्पी ही साधे रहे। हालांकि उन्होंने रेवड़ी कल्चर को लेकर जो सवाल उठाए थे वो काफी जायज नजर आता है। पीएम मोदी ने कहा था ‘कहीं ये रेवडिय़ां अर्थव्यवस्था के आधुनिकीकरण के लिए आवश्यक बुनियादी ढांचे में निवेश की कीमत पर तो नहीं बांटी जा रही हैं?। इसी तरह उन्होंने गुजरात और हिमाचल प्रदेश के चुनाव नतीजों के बाद कहा था ‘हमारे पूर्वजों ने एक कहावत कही है, ‘आमदनी अठन्नी, खर्चा रुपया। अगर यह हिसाब रहेगा तो क्या स्थिति होगी। यह हम अपने आस-पास के देशों में देख रहे हैं। आज इसलिए देश सतर्क है। देश के हर राजनीतिक दल को यह याद रखना होगा कि चुनावी हथकंडों से किसी का भला नहीं हो सकता। कहीं न कहीं सब्सिडी और मुफ्त बांटने के लिए राज्यों पर कर्ज का बोझ भी बढ़ते जा रहा है। ये कर्ज कहीं न कहीं विकास कार्यों के लिए जरूरी मद पर भी बाधक बनेंगे।

सुप्रीम कोर्ट में दिए एक हलफनामे में चुनाव आयोग ने कहा कि भारत में रेवड़ी कल्चर यानी फ्रीबीज की कोई स्पष्ट परिभाषा नहीं है। आयोग ने अपनी दलील में कहा कि प्राकृतिक आपदा या महामारी के दौरान जीवन रक्षक दवाएं, खाना या पैसा मुहैया कराने से लोगों की जान बच सकती है, लेकिन आम दिनों में अगर ये दिए जाएं तो इन्हें फ्रीबीज कहा जाएगा। सुप्रीम कोर्ट में चल रही रेवड़ी कल्चर पर सुनवाई में रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया को भी एक पक्ष बनाया गया है। आरबीआई के मुताबिक, वे योजनाएं जिनसे क्रेडिट कल्चर कमजोर होता है, सब्सिडी की वजह से कीमतें बिगड़ती हैं, प्राइवेट इंवेस्टमेंट में गिरावट आती है और लेबर फोर्स भागीदारी में गिरावट आती है, वे फ्रीबीज होती है।

घोषणा पत्र और फ्रीबीज पर बात रखने का हमारा मकसद चुनाव के दौरान होने वाले वादों के बीच हमें देखना होगा कि कौन सी घोषणा सिर्फ वोट के लिए हो रही है, और उसका असर देश और प्रदेश की अर्थव्यवस्था पर पड़ सकता है। हमें और जागरूक होने की जरूरत है।

 

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