Editor-in-Chief सुभाष मिश्र की कलम से – पत्रकारिता: जोखिम और मजबूरी

Editor-in-Chief

– सुभाष मिश्र

From the pen of Editor-in-Chief Subhash Mishra – Journalism: Risk and Compul्ोsion

1993 में यूनेस्को की सिफारिश के बाद संयुक्त राष्ट्र की महासभा ने पहली बार इस दिन वल्र्ड प्रेस फ्रीडम डे के तौर पर मनाने का निर्णय लिया था। स्वतंत्रता शब्द काफी व्यापक है, ऐसे में आज के दौर में मीडिया कितनी स्वतंत्र स्थिति में है कहना बहुत मुश्किल है। स्वतंत्रता को अगर हम कुछ मापदंडों पर तौलें तो एक हद तक इसका आंकलन हो सकता है। इसमें पहला है कि आज मीडिया अपना मूल काम कितना कर पा रहा है। क्या मीडियाकर्मी किसी दबाव के बिना हर तरह की खबर प्रसारित कर पाते हैं। क्या उसे अपने काम को करने के दौरान होने वाले जोखिम से बचाने के लिए कोई कानून है। इस तरह के कई बिंदु हैं जो बताते हैं कि मीडिया कितना आजाद है।
अगर ईमानदारी से आंकलन करें तो आपको निराशा हाथ लगेगी, ये वह दौर है जब मीडिया या पत्रकारिता को गोदी मीडिया जैसे अपमानजनक शब्द से नवाजा गया और लोग इसे स्वीकार भी कर रहे हैं। सरकार का मुखपत्र बन चुके मीडिया के लिए शायद ये शब्द अपमान होने के बजाए पुरस्कार बन गया है। हाल ही में अतीक अहमद को गुजरात की जेल से उत्तरप्रदेश लाए जाने की खबर को जिस तरह से नेशनल मीडिया ने कवर किया ये बताता है कि टीआरपी के आंकड़ों या कहें प्रत्यक्ष रूप से बाजार के दबाव के सामने मीडिया कितना मजबूर हो चुका है। इस बारे में भी आज मीडिया हाउस को विचार करने की जरूरत है। इसी मजबूरी के चलते दिल्ली और मुंबई के अलावा कुछ मेट्रो सिटी तक नेशनल मीडिया का दायरा सिमटा हुआ है। ये प्रेस की स्वतंत्रता के लिए अलग तरह का खतरा है।
संयुक्त राष्ट्र महासचिव अंटोनियो गुटेरेश ने चेताया है कि दुनियाभर में मीडिया पर हमले हो रहे हैं। उन्होंने सभी देशों की सरकारों से आग्रह किया है कि वे सच्चाई और उसके बारे में खबरें छापने वालों को निशाना बनाना बंद करें। वल्र्ड प्रेस फ्रीडम डे के मौके पर अंटोनियो गुटेरेश ने कहा कि 2022 में पत्रकारों की हत्याओं में 50 फीसदी की वृद्धि हुई है, जो अविश्वसनीय है। उन्होंने कहा कि मीडिया की आजादी लोकतंत्र और न्याय की आधारशिला है और वो अब खतरे में है।
गुटेरेश ने कहा कि सच्चाई पर गलत सूचनाओं का खतरा मंडरा रहा है. इसके अलावा भी गुटरेश एक महत्वपूर्ण चिंता व्यक्त करते हैं उनका मानना है कि पत्रकारिता कुछ हाथों में सिमट गई है जो अभिव्यक्ति की आजादी के लिए खतरनाक है। इसके अलावा दुनियाभर में विभिन्न सरकारों द्वारा खतरनाक कानून पास किये जा रहे हैं, इसके लिए उन्होंने रूस जैसे देशों का उदाहरण भी दिया। इसी तरह इंटरनेशनल संस्था रिपोर्टर्स विदाउट बॉर्डर ने एक लिस्ट जारी की है जिसमें दुनियाभर के उन नेताओं का नाम शामिल है जो मीडिया पर किसी न किसी रूप में हमला करते हैं। दुर्भाग्यजनक रूप से हमारे प्रधानमंत्री मोदी का नाम भी उसमें शामिल है, उन पर मीडिया हाउस के मालिकों से मिलकर मीडिया का इस्तेमाल अपने प्रचार प्रसार के लिए करने का आरोप लगा है। इस लिस्ट में अल खमोनी, पुतिन, जिनपिंग जैसे नाम शामिल हैं। इस सूची में दो महिला नेताओं का नाम भी शामिल है। नेता अब पत्रकारवार्ता बुलाने की बजाय ट्वीट करके अपनी बात कहने लगे हैं। सोशल मीडिया पर अपना वीडियो वायरल करने लगे हैं। धीरे-धीरे समाज में पत्रकारों का महत्व और विश्वसनीयता कम हुई है।
बड़ी पूंजी और संसाधनों के चलते मीडिया हाउस अब धीरे-धीरे कारपोरेट पूंजी के अधीन हो गये हैं। जो अखबार, वेब पोर्टल बचे हैं, वे भी आगे कितने साल तक संघर्ष कर पायेंगे, यह कहना मुश्किल है। बकौल गजानन माधव मुक्तिबोध-अब अभिव्यक्ति के सारे खतरे उठाने ही होंगे। तोडऩे ही होंगे मठ और गढ़ सब। हम छत्तीसगढ़ की बात करें तो यहां भी पत्रकारिता की अपनी चुनौती है। हालांकि, छत्तीसगढ़ महाराष्ट्र के बाद दूसरा राज्य बन गया है जहां पत्रकार सुरक्षा कानून पारित किया गया है। मीडियाकर्मियों की प्रताडऩा और उनके साथ हो रही हिंसा को रोकने के लिए छत्तीसगढ़ विधानसभा में विधेयक पारित किया गया। यह कानून छत्तीसगढ़ मीडियाकर्मी सुरक्षा विधेयक- 2023 कहलाएगा। विधेयक को बनाने के लिए रिटायर्ड जस्टिस आफताब आलम की अध्यक्षता में बनी कमेटी ने सभी पहलुओं पर राय ली है। रायपुर, अंबिकापुर और दिल्ली में पत्रकारों से चर्चा के बाद कानून लाया गया है।
राष्ट्रीय स्तर पर पत्रकारिता जगत के कई बड़े नामों को गोदी मीडिया का हिस्सा नहीं बनने की कीमत चुकानी पड़ी है। कुछ महीने पहले देश के प्रतिष्ठित चैनल के मालिकान बदलने और उसके देश के बड़े औद्योगिक घराने के हाथ में आने की घटना को भी आप स्वतंत्र मीडिया के सामने खड़ी चुनौती के तौर पर देख सकते हैं. ऐसे में रवीश कुमार, पुण्य प्रसून वाजपेयी जैसे कई नाम अब सोशल मीडिया में सिमट कर रह गए हैं। अगर आप मीडिया को लोकतंत्र का चौथा स्तंभ मानते हो तो विरोध को भी जगह देनी होगी अगर विरोध का स्वर इस तरह दबाया जाएगा तो मीडिया की स्वतंत्रता के इस दिवस की बधाई भी बेमानी है, ऐसे हालात में श्रीकांत वर्मा की ये कविता याद आती है-
महाराज बधाई हो कोई नहीं रहा
श्रावस्ती की कोख उजड़ चुकी
कौशाम्बी विधवा की तरह सिर मुंडाये खड़ी है
कपिलवस्तु फटी फटी आंखों से सिफऱ् देख रहा है
अवंती निर्वसन है और मगध में?
मगध में सन्नाटा है!
क्षमा करें महाराज आप नहीं समझेंगे यह कैसा सन्नाटा है
वाकई स्वतंत्र पत्रकारिता की राह में आए दिन दीवार खड़े कर रहीं ताकतें नहीं समझ पाएंगी कि ये किस तरह का सन्नाटा है ऐसे आत्ममुग्ध हुक्मरान या ताकतों के खिलाफ ही श्रीकांत वर्मा लिखते हैं-
महाराज बधाई हो! महाराज की जय हो।
युद्ध नहीं हुआ—
लौट गए शत्रु।
जो भी हो,
जय यह आपकी है!
बधाई हो!
राजसूय पूरा हुआ,
आप चक्रवर्ती हुए—
वे सिफऱ् कुछ प्रश्न छोड़ गए हैं
जैसे कि यह—
कोसल अधिक दिन नहीं टिक सकता,
कोसल में विचारों की कमी है!
ये विचारों की कमी लोकतंत्र के स्तंभ को ध्वस्त करने वाला कोसल अधिक दिन नहीं टिक सकता। इन तमाम बातों के साथ ही बड़ा दुर्भाग्य ये भी है कि पत्रकारिता के सामने पैदा हुए खतरे के लिए बड़ी संख्या में पत्रकार भी शामिल हैं इसलिए इस हालात पर चिंतन के साथ ही आत्मवलोकन भी जरूरी है।

Leave a Comment

Your email address will not be published. Required fields are marked *

MENU