-सुभाष मिश्र
देश की राजधानी दिल्ली की दहलीज पर अपना विरोध प्रदर्शन खत्म करने के करीब दो साल से कुछ अधिक समय बाद हजारों किसान फिर दिल्ली में दस्तक देने पहुँच गया है। ‘दिल्ली चलो’ मार्च रोकने के लिए चंडीगढ़ में सोमवार रात किसान नेताओं की केंद्रीय मंत्रियों के साथ पांच घंटे से अधिक समय तक बैठक हुई। मगर, बैठक बेनतीजा रही। इस बार का किसान आंदोलन पिछली बार के आंदोलन से काफी अलग है। साल 2020-21 के आंदोलन की तुलना में इस बार किसानों की मांगें और नेतृत्व दोनों अलग हैं। पिछली बार का किसान आंदोलन कृषि कानूनों के खिलाफ था, जिसके दौरान किसान केंद्र सरकार को अपने कृषि सुधार एजेंडे को वापस लेने के लिए मजबूर करने के अपने मुख्य लक्ष्य में सफल रहे थे।
पिछली बार जहां कृषि कानूनों के खिलाफ किसानों का आंदोलन था तो इस बार फसलों के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य की गारंटी देने वाले कानून को बनाने की मांग है। किसान चाहते हैं कि सरकार की ओर से न्यूनतम समर्थन मूल्य की कानूनी गारंटी दी जाए। किसानों के 12-सूत्रीय एजेंडे में मुख्य मांग सभी फसलों के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य यानी एमएसपी की गारंटी के लिए एक कानून बनाना और डॉ. एम.एस. स्वामीनाथन आयोग की रिपोर्ट के अनुसार फसल की कीमतों का निर्धारण करना है।
इस बार किसान मजदूर मोर्चा यानी केएमएम के बैनर तले 250 से अधिक किसान संघ और 150 यूनियनों का एक मंच संयुक्त किसान मोर्चा ने आह्वान किया है। यह विरोध प्रदर्शन पंजाब से कॉर्डिनेट किया जा रहा है।
‘दिल्ली चलो’ मार्च रोकने के लिए सोमवार रात किसान नेताओं की केंद्रीय मंत्रियों के साथ पांच घंटे से अधिक समय तक चली बैठक बेनतीजा रही। किसान नेता सरवन सिंह पंढेर ने कहा कि हमें नहीं लगता कि सरकार हमारी किसी भी मांग पर गंभीर है।
इस बार किसानों की प्रमुख मांगें इस तरह है.
-किसानों और मजदूरों की पूर्ण कर्ज माफी
-भूमि अधिग्रहण अधिनियम 2013 का कार्यान्वयन में अधिग्रहण से पहले किसानों से लिखित सहमति और कलेक्टर दर से चार गुना मुआवजा देने का प्रावधान
-अक्टूबर 2021 में लखीमपुर खीरी हत्याकांड के अपराधियों को सजा
-भारत को विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यूटीओ) से हट जाना चाहिए और सभी मुक्त व्यापार समझौतों पर रोक लगा देनी चाहिए
-किसानों और खेतिहर मजदूरों के लिए पेंशन
-दिल्ली विरोध प्रदर्शन के दौरान मरने वाले किसानों के लिए मुआवजा, जिसमें परिवार के एक सदस्य के लिए नौकरी शामिल है
-बिजली संशोधन विधेयक 2020 को रद्द किया जाए.
-मनरेगा के तहत प्रति वर्ष 200 दिनों का रोजगार, 700 रुपये की दैनिक मजदूरी और योजना को खेती से जोड़ा जाना चाहिए.
-नकली बीज, कीटनाशक, उर्वरक बनाने वाली कंपनियों पर सख्त दंड और जुर्माना; बीज की गुणवत्ता में सुधार.
-मिर्च और हल्दी जैसे मसालों के लिए राष्ट्रीय आयोग का गठन.
अब इस पूरे आंदोलन को राजनीति से जोड़कर देखा जाए तो एक अलग ही तरह की तस्वीर सामने आती है. दरअसल राम मंदिर निर्माण के जोश से लबरेज भाजपा अपने पूरी रफ्तार से आगे बढ़ रही थी. इस बदले हुए माहौल के बीच प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी 400 से ज्यादा सीटें जीतने का दावा कर दिया, इसी बीच किसान रास्ता रोक कर खड़े हो गए हैं। यह माना जा रहा है कि यदि यह मामला नहीं सुलझा, तो भाजपा को इससे नुकसान हो सकता है। तीन-तीन बड़े केंद्रीय मंत्री जिस तरह इस मामले को सुलझाने के लिए लगातार प्रयास कर रहे हैं, उससे भी यह समझ आ रहा है कि भाजपा को भी इससे नुकसान होने की आशंका है. किसानों के प्रदर्शन के बीच राहुल गांधी ने अपनी यात्रा स्थगित कर दिल्ली लौट गए हैं. हालांकि इससे पहले भी किसानों ने भाजपा के विरोध की अपील की थी लेकिन ये बेअशर साबित हुआ था. 2022 में पांच राज्यों (उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, गोवा, मणिपुर और पंजाब) की विधानसभाओं के चुनाव हुए थे। किसानों ने इन चुनावों में भाजपा के बहिष्कार की घोषणा की थी। लेकिन किसानों की इस अपील का जनता पर कोई असर नहीं हुआ था। भाजपा ने इनमें से चार राज्यों (उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, मणिपुर और गोवा) में सफलता प्राप्त की थी, जबकि पंजाब में आम आदमी पार्टी बड़ी जीत हासिल करने में सफल रही थी। इस बार किसानों की तादाद पहले से कम है इसके बाद भी भाजपा कोई जोखिम नहीं उठाना चाहती है. कुछ लोगों का मानना है कि अपनी खोई सियासी जमीन दोबारा हासिल करने के लिए अकाली दल पंजाब के किसान संगठनों को पैसा और संसाधन देकर इस आंदोलन को हवा दे रही है। यानी किसानों की आड़ में राजनीति ज्यादा हो रही है और किसानों का हित करने का इरादा कम है। इधर, उधर कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे ने भी भारत जोड़ो न्याय यात्रा के एक कार्यक्रम में छत्तीसगढ़ में एलान कर दिया है कि यदि कांग्रेस सत्ता में आती है, तो किसानों को एमएसपी की कानूनी गारंटी दी जाएगी। राहुल गांधी ने इसे कांग्रेस की पहली गारंटी करार दे दिया है। लेकिन यदि इस मामले पर राजनीति होती है, तो किसानों के आंदोलन में नैतिक बल कमजोर पड़ सकता है। इससे आंदोलन का जनता पर असर कम हो सकता है। बहरहाल चुनाव दहलीज पर है और किसान सड़क पर. अब ये टाइमिंग और प्रदर्शन क्या रंग दिखाएगा देखने वाली बात होगी.