Editor-in-chief सुभाष मिश्र की कलम से – मुक्तिबोध को नमन, स्मृति को नमन

Editor-in-chief सुभाष मिश्र की कलम से - मुक्तिबोध को नमन, स्मृति को नमन

-सुभाष मिश्र

कवि गजानंद माधव मुक्तिबोध की 60वीं पूण्यतिथि

प्रसिद्ध कवि गजानंद माधव मुक्तिबोध की 60वीं पूण्यतिथि है, 11 सितंबर 1964 में उनका निधन हुआ था, जबकि उनका जन्म 13 नवंबर 1917 को हुआ था। उन्होंने अपने अल्प जीवनकाल में ऐसी रचना की कि वह साहित्यजगत में अनमोल हो गए। वे कवि भी थे, समीक्षक भी थे। उन्होंने कहानियाँ भी लिखी, उन्होंने पत्रकारिता भी की। पर उनको कविता के लिए ज्यादा जाना जाता है। उनकी एक कविता है- अँधेरे में. इसी कविता का एक अंश है –
वो मेरे आदर्शवादी मन,
वो मेरे सिद्धांतवादी मन
अब तक क्या किया, जीवन क्या जिया
उधर गमभरी बनकर अनाथ बन गए
भूतों की शादी में कनात से तन गए
किसी व्यभिचारी के बन गए बिस्तर
दुखों के दागों को तगमो सा पहना
अपने ही ख्यालों में दिन-रात रहना
असंग बुद्धी और अकेले में रहना
जिन्दगी निस्त्री बन गई
तलघर अब तक क्या किया
जीवन क्या जीया, बताओ तो
किस-किस के लिए तुम दौड़ गए
करुणा के द्रश्यों से हाय, मुंह मोड़ गए
बन गए पत्थर बहुत-बहुत ज्यादा लिया
दिया बहुत कम-कम
मर गया देश अरे जीवित रह गए तुम
लोकहीत पिता को घर से निकाल दिया
जन मन करुणा सी मां को हकाल दिया
स्वार्थों के कुत्तों को पाल लिया
भावना के कर्तव्य त्याग दिए
दृश्य के मनतब मार डाले
बुद्द्धि का भाल भी फोड़ दिया
तडकों के हाथ उखाड़ दिए
जम गए जाम हुए फंस गए
अपने ही कीचड़ में धंस गए
विवेक बहा डाला स्वार्थों के तेल में
आदर्श खा गए अब तक क्या किया
जीवन क्या जीया, ज्यादा लिया
और दिया बहुत कम
मर गया देश अरे जीवित रह गए तुम।।

हम मुक्तिबोध को याद कर रहे हैं तो उनकी कविताओं का जिक्र कर रहे हैं। उनकी एक कविता है-
‘जैसी है दुनिया अगर उससे बेहतर चाहिए
तो सारा कचरा साफ़ करने को मेहतर चाहिएÓ।।
मुक्तिबोध बार-बार अपनी कविताओं और लेख के माध्यम से कला के तीन विषयों की बात कहते हैं और यह बताते है कि आदमी इन्हीं तीन चीजों को रचता है। मुक्तिबोध की कविताएँ हमें अँधेरे में भी रौशनी दिखाती हैं। कई बार हम अपने से सवाल करते हैं कि ‘मेरे आदर्शवादी मन, मेरे सिद्धांतवादी मन, अब तक क्या किया, जीवन क्या जियाÓ। मुक्तिबोध एक विचार के कवि हैं। वो ऐसे कवि हैं जो हमें प्रतीक के रूप बताते हैं। उनकी एक कविता है-
‘विचार आते हैं लिखते समय नहीं
बोझ ढोते वक्त पीठ पर
सिर पर उठते समय भार
परिश्रम करते समय चाँद उग ता है
और पानी में झलमलाने लगता है
ह्रदय के पानी में विचार आते हैं
लिखते समय नहीं, पत्थर ढोते वक्त
पीठ पर उठते वक्त बोझ
सांप मारते समय पिछवाड़े
बच्चों की निक्कर खसिटते वक्त
पत्थर पहाड़ बन जाते हैं
नक्से बन जाते हैं भगौलिक
पीठ कच्छप बन जाती है
समय पृथ्वी बन जाता हैÓ।।

मुक्तिबोध हमारे समय के बड़े कवि थे। उनको हम 11 सितंबर को याद करते हैं। मुक्तिबोध विचारों के रूप में याद आते हैं। उनकी किताबे उनके जीते-जी प्रकाशित नहीं हो सकी। उनकी किताबें मृत्यु के बाद प्रकाशित हुई। मुक्तिबोध की प्रासंगिता का सहज अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि उनकी मृत्यु के 60 साल बाद भी हम उन्हें याद कर रहे हैं। उनको नमन उनकी स्मृति को नमन।

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