0 आशुतोष द्विवेदी ने जनमंच पर किया पहला मंचन
रायपुर। आज का यह दौर कॉम्पिटिशन का है, हर फील्ड में कॉम्पिटिशन देखने को मिलता है पर इसका सबसे बड़ा और गहरा प्रभाव पड़ता है यंगस्टर और उनके पैरेंट्स पर। इस कॉम्पिटिशन का इनके जीवन में कितना गहरा असर होता है, क्या कुछ बीतता है एक परिवार पर इन्ही सब ताना बाना को बुनती है ‘मेरे माक्र्स मत पूछो?
आज के परिदृश्य की वास्तविकता को बड़े ही मार्मिक और भावनात्मक अंदाज में आशुतोष द्विवेदी ने लिखा है। इस कहानी का मुख्य किरदार 14-15 साल का विशु है, जो एक मीडिल क्लास परिवार से है और उसके माता-पिता गांव की पृष्ठभूमि से आते हैं। जो खुद भी शहर की जीवनशैली के साथ सामंजस्य बिठाने की कोशिश कर रहे हैं और उनका बच्चा भी इससे जुडऩे की कोशिश में लगा है।
आशुतोष द्विवेदी ने आज की जनधारा से चर्चा करते हुए बताया कि बड़े होते बच्चों को माता-पिता पहले के मुकाबले अब अधिक सुविधा दे रहे हैं। मगर अनजाने में ही वे उनका बचपन भी छीन रहे हैं, कैरियर-नौकरी की भागदौड़ और दबाव में वे अपने सपने बच्चों पर लाद रहे हैंं।
आज का समाज ऐसा हो गया है कि अपने आस-पड़ोस के बच्चों की पढ़ाई और उनकी जीवनशैली पर जासूसी नजर बनाए रखते हैं। किसी कारणवश बच्चा अगर असफल हो जाता है तो यही लोग उस पर पाश्विक दृष्टि रखने लग जाते हैं, उसे बुरा महसूस कराते हैं । अपेक्षाओं और आकांक्षाओं के बोझ से दबे बच्चे का कदम लडख़ड़ाने लग जाता है पर अपनी भावनाओं को किसी से कह नही पाते। आज की पीढ़ी के बच्चों की गुहार है ‘मेरे माक्र्स मत पूछो?Ó
मंचन के ठीक पहले पूरी की कहानी
यह नाटक कितने समय में पूरा किया गया जब यह सवाल आशुतोष द्विवेदी से पूछा गया तो हंसते हुए उन्होंने कहा- सच कहूं तो अभी हमारे प्ले का पहला मंचन है और 10 मिनट पहले ही मंैने इसे पूरा किया है।
48 साल से रंगमंच की दुनिया से जुड़े हैं
कहानी के लेखक-निर्देशक आशुतोष द्विवेदी ने बताया कि वे पिछले 48 साल से रंगमंच की दुनिया से जुड़े हैं और शिक्षक परिवार से आते हैं। पिछले कई साल से वे देशभर में मोटिवेशनल स्पीक भी देते आए हैं, स्कूल-कालेजों से लगातार जुड़े होने की वजह से वे हर दिन बच्चों के इसी मनोभाव से रूबरू होते रहते हैं। इसलिए उन्होंने बच्चों की भावना को कहानी के रूप में उतारा है।