जगदलपुर। बस्तर संभाग के मुख्य वन संरक्षक आलोक तिवारी का मानना है कि वनोपज के माध्यम से बस्तर में रोजगार सृजन की अनंत संभावनाएँ हैं।
वे “नक्सलवाद और नया बस्तर — बस्तर का अंतर्मुखी आदि-मन और बाह्य हस्तक्षेप” विषय पर आयोजित संगोष्ठी में बोल रहे थे। यह संगोष्ठी आज की जनधारा समाचार पत्र के बस्तर संस्करण के लोकार्पण अवसर पर आयोजित की गई थी।
आलोक तिवारी ने बस्तर की संस्कृति, जंगलों की विशेषताओं और संभावनाओं पर कई रोचक एवं महत्वपूर्ण जानकारियाँ साझा कीं। उन्होंने वनोपज आधारित उद्योगों और स्थानीय संसाधनों के जरिये रोजगार बढ़ाने के ठोस सुझाव भी दिए।

बस्तर की पुनः जागृत होती मूलधारा
मुख्य वन संरक्षक ने कहा, “किसी भी उत्थान का अपना एक रोडमैप होता है।” उन्होंने याद किया कि वर्ष 1994-95 से 2002 तक वे बस्तर में पदस्थ रहे। इस दौरान वे भोपालपटनम और कोंटा जैसे अंदरूनी इलाकों तक गए।
“उस समय बस्तर बारूद की गंध में डूबा हुआ था। लेकिन आज परिदृश्य बदल रहा है — हम फिर से अपनी मूल धारा और मूल समाज के साथ जुड़ने की तैयारी कर चुके हैं,” उन्होंने कहा।
तिवारी ने यह भी कहा कि शासन की प्रतिबद्धता में अब एक स्पष्ट सकारात्मकता दिख रही है। “किसी भी बाजार या समाज के उत्थान का आधार दो बातों पर निर्भर करता है — पहली, शासन की नीतिगत समर्थन, और दूसरी, बाजार की स्वीकार्यता। यदि शासन नीति के साथ है और बाजार उस उत्पाद को स्वीकार कर लेता है, तो वह कार्य स्थायी रूप से आगे बढ़ता है,” उन्होंने कहा।

बस्तर की विशिष्ट पहचान — प्रकृति से एकात्म जीवनशैली
तिवारी ने बताया कि बस्तर का अपना यूएसपी (Unique Selling Point) है — इसकी प्राकृतिक प्रामाणिकता। यहां की जीवनशैली में अब तक किसी प्रकार की कृत्रिमता या मिलावट नहीं आई है।
उन्होंने कहा, “बस्तर ने बाहरी हस्तक्षेपों से बहुत आघात झेला है। सांस्कृतिक विरासत और संसाधनों के दोहन से बस्तर की आत्मा को क्षति पहुँची है। लेकिन यह भूभाग अब भी अपनी मूल सहजता और संपन्नता को संजोए हुए है।”
उन्होंने उदाहरण दिया कि शासन द्वारा बनाए गए आवासों में कई बार ग्रामीण अपने मवेशी रखते हैं और स्वयं पुराने घरों में रहना पसंद करते हैं। “यह बस्तरवासियों की सहज प्रकृति है — वे प्रकृति से कटकर जीवन नहीं जी सकते,” तिवारी ने कहा।
प्राकृतिक संसाधनों में अपार संभावनाएँ
मुख्य वन संरक्षक ने बताया कि बस्तर के जंगल पुनर्चक्रणीय (Renewable) संसाधनों से भरपूर हैं। “आज हमारे पास 67 प्रकार की वनौषधि प्रजातियाँ हैं जिनका न्यूनतम समर्थन मूल्य तय है। लेकिन अत्यधिक दोहन से बचने के लिए इनका नियमन आवश्यक है, वरना भविष्य में इनकी प्रचुरता घट सकती है,” उन्होंने चेताया।
छत्तीसगढ़ को हर्बल स्टेट का दर्जा प्राप्त है। बस्तर में ‘लाख’ नामक एक बहुमूल्य उत्पाद की अपार संभावनाएँ हैं।
“हमारे चार वनमंडलों — बीजापुर, दंतेवाड़ा, सुकमा और बस्तर — में करीब साढ़े पाँच लाख कुसुम के वृक्ष हैं। यदि प्रत्येक वृक्ष से मात्र ₹25,000 की लाख प्राप्त होती है, तो इसकी कुल वार्षिक संभावित आय लगभग ₹1375 करोड़ तक हो सकती है,” तिवारी ने बताया।
इसी तरह, रैली कोसा यहां की अमूल्य धरोहर है। हर साल लगभग साढ़े चार से पाँच करोड़ कोसा का उत्पादन होता है, जिसकी न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) छह रुपये से अधिक है। इसके अलावा इमली, महुआ और काजू जैसे उत्पाद भी बस्तर की आर्थिक रीढ़ बन सकते हैं।
उन्होंने बताया कि बस्तर में 16 हजार हेक्टेयर क्षेत्र में काजू का वृक्षारोपण किया गया है। कई प्रसंस्करण केंद्र स्थापित किए गए हैं, हालांकि कुछ अब भी बंद हैं। “यदि इन पर पूरी क्षमता से काम किया जाए, तो बस्तर के युवाओं को रोजगार की कोई कमी नहीं रहेगी,” उन्होंने कहा।
इको-टूरिज्म और मछली पालन में भी अवसर
तिवारी ने बताया कि बस्तर में इको-टूरिज्म की अपार संभावनाएँ हैं, लेकिन इसकी योजनाओं में अभी भी सुधार की आवश्यकता है।
“पर्यटकों को आकर्षित करने के लिए एक्टिविटी बेस्ड मॉडल तैयार करने होंगे। कई जलसंरक्षण संरचनाएँ विकसित की गई हैं, जिनमें मछली पालन कर न केवल रोजगार बढ़ाया जा सकता है बल्कि बस्तर में पोषण संतुलन भी सुधारा जा सकता है,” उन्होंने कहा।
स्थानीय संसाधन ही स्थानीय समृद्धि का मार्ग
आलोक तिवारी ने कहा, “बस्तर के पास क्षमता असीमित है, बस इसके लिए व्यापक और दीर्घकालिक प्लानिंग की आवश्यकता है। अगर गांव का पानी और गांव की जवानी गांव में ही रुक जाए, तो गांव का कायाकल्प निश्चित है।”
अंत में उन्होंने आज की जनधारा से अपील की — “आपकी सकारात्मक पत्रकारिता बस्तर की वेदना को दूर कर, इसे विकास और समृद्धि की नई ऊँचाइयों तक पहुँचा सकती है।”