लोक आस्था का महापर्व छठ: भक्ति और श्रद्धा का संगम

खरना के बाद, 38 घंटे के निर्जला उपवास पर रही व्रती महिलाओं और पुरुषों ने सोमवार शाम को डूबते सूर्य को पहला अर्घ्य दिया। यह क्षण भक्ति और समर्पण से ओत-प्रोत था, जब बड़ी संख्या में परिवारों के लोग घाट पर एकत्रित हुए। मंगलवार सुबह उदयमान सूर्य को दूसरा अर्घ्य देकर पर्व का विधिवत समापन किया गया। इन दो दिनों में सोनहत का छठ घाट ढोल-नगाड़ों और पटाखों की गूंज से जीवंत हो उठा था, जिसने पूरे क्षेत्र को उत्सवमय बना दिया। घाटों को दीपों और रंग-बिरंगे गुब्बारों से सजाया गया था, जिसने एक मनोहारी और दिव्य दृश्य प्रस्तुत किया। यह आयोजन न केवल आध्यात्मिक शुद्धि का प्रतीक है, बल्कि सामुदायिक सौहार्द और प्रकृति के प्रति कृतज्ञता की भावना को भी दर्शाता है।

छठ महापर्व, जिसे मुख्य रूप से सूर्य देव और छठी मैया को समर्पित किया जाता है, भारतीय संस्कृति में एक अत्यंत प्राचीन और पवित्र स्थान रखता है। वेदों में सूर्य को जीवन का दाता, ऊर्जा का स्रोत और आरोग्य का कारक माना गया है। यह पर्व उसी वैदिक परंपरा का निर्वहन करता है, जहाँ भक्त सूर्य की उपासना कर उनसे संतान की लंबी आयु, परिवार की सुख-समृद्धि और मनोकामनाओं की पूर्ति का आशीर्वाद मांगते हैं। नहाय-खाय से शुरू होकर खरना, अस्ताचलगामी सूर्य को अर्घ्य और फिर उदयमान सूर्य को अर्घ्य के साथ यह पर्व संपन्न होता है। इसकी सबसे बड़ी विशेषता इसका निर्जला व्रत और बिना किसी पुजारी के सीधे सूर्य को अर्घ्य देने की परंपरा है, जो इसे अत्यंत लोकतांत्रिक और जनोन्मुखी बनाती है। यह सिर्फ एक धार्मिक अनुष्ठान नहीं, बल्कि शुद्धता, संयम और अटूट विश्वास का प्रतीक है।

प्रवासी संस्कृति से स्थानीय पहचान तक का सफर

कोरिया जिले के सोनहत जैसे क्षेत्रों में छठ पर्व का इतिहास प्रवासी समुदायों से जुड़ा है। एक समय था जब यह पर्व मुख्य रूप से बिहार, झारखंड और पूर्वी उत्तर प्रदेश जैसे मूल राज्यों से आए उन परिवारों द्वारा ही मनाया जाता था,

हालांकि, पिछले कुछ दशकों में इस पर्व ने सोनहत की स्थानीय संस्कृति में गहरी जड़ें जमा ली हैं। प्रवासी समुदायों के साथ-साथ स्थानीय निवासियों ने भी छठ की महिमा और इसके पीछे की आस्था को समझा और इसे अपनाना शुरू कर दिया। धीरे-धीरे, यह एक सामुदायिक पर्व का रूप ले चुका है, जिसमें विभिन्न पृष्ठभूमि और समुदायों के लोग न केवल सक्रिय रूप से भाग लेते हैं, बल्कि इसे उत्साहपूर्वक मनाते भी हैं। सोनहत में इस वर्ष दिखी भीड़ और जनभागीदारी इस बात का ज्वलंत प्रमाण है कि छठ अब केवल एक क्षेत्रीय या प्रवासी त्योहार नहीं, बल्कि यहां की स्थानीय पहचान और सामाजिक ताने-बाने का एक महत्वपूर्ण हिस्सा बन चुका है। यह पर्व अब केवल कुछ घरों तक सीमित न रहकर पूरे समाज के लिए एकजुटता और सांस्कृतिक आदान-प्रदान का प्रतीक बन गया है।

छठ घाट के नवीनीकरण की मांग

छठ पर्व की बढ़ती लोकप्रियता और जनभागीदारी ने सोनहत स्थित छठ घाट पर सुविधाओं के विस्तार की आवश्यकता को उजागर किया है। इस वर्ष अत्यधिक संख्या में श्रद्धालुओं के पहुंचने के कारण वर्तमान घाट अब छोटा पड़ने लगा है, जिससे असुविधा और भीड़भाड़ की स्थिति उत्पन्न हुई। स्थानीय जनता की ओर से लगातार यह मांग उठ रही है कि घाट का स्थायी रूप से नवीनीकरण किया जाए और उसे और बड़ा बनाया जाए।

यह मांग केवल तात्कालिक सुविधा के लिए नहीं है, बल्कि इस बढ़ते हुए सांस्कृतिक आयोजन को भविष्य में और भी भव्यता, सुरक्षा और सुचारुता के साथ मनाने की आकांक्षा का प्रतीक है। एक बड़ा और सुसज्जित घाट न केवल अधिक व्रतियों और श्रद्धालुओं को समायोजित कर पाएगा, बल्कि पर्व की गरिमा को भी बढ़ाएगा, जिससे आने वाले वर्षों में सोनहत में छठ महापर्व और भी अधिक उत्साह और व्यवस्था के साथ मनाया जा सकेगा। यह स्थानीय समुदाय की उस सामूहिक भावना को दर्शाता है, जो अपनी सांस्कृतिक विरासत को संजोना और उसे आने वाली पीढ़ियों के लिए और भी बेहतर बनाना चाहती है।

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