बदलता पर्यावरण और ग्रामीण अंचल का स्त्री जीवन (लेख का शेष भाग …..)

श्वेता उपाध्याय

ये संघर्षरत स्त्रियाँ प्रकृति की संवेदनशील पाठशाला से निकली हुई वे साधारण-सी दिखने वाली पर असाधारण स्त्रियाँ हैं, जो मौसम के बदलाव को किसी वैज्ञानिक रिपोर्ट से पहले महसूस कर लेती हैं। जब कुएँ सूखने लगते हैं, पानी की लाइनें लंबी हो जाती हैं, जंगलों का रास्ता थोड़ा और कठिन हो जाता है, तब सबसे पहले उसकी चाल भारी होती है।

वो स्त्रियाँ जिनकी पीठ पर लकड़ी का भार हो और दिल में परिवार की फिक्र उन्हें मौसम की मार बहुत तकलीफ देती है।

इस वर्ष मैं अपना  उपन्यास “धरा के अंक में” लिखते समय बार-बार उन्हीं स्त्रियों के पास लौटती रही—जिन्होंने मुझे सिखाया कि धरती की पीड़ा सिर्फ मिट्टी में नहीं, स्त्री की आँखों में भी दिखाई देती है। मैंने उस मौन संवाद को पकड़ने की कोशिश की है जो धरती और स्त्री के बीच प्रतिदिन घटता है। धरती सहती है, स्त्री भी सहती है। धरती को चोट लगती है, तो उसकी गूँज स्त्री के जीवन में उतर आती है। धरती जब मुस्कुराती है, तो स्त्री के चेहरे पर भी वही शांति तैर जाती है।

मुझे यह बाते हुए गर्व होता है कि मैं जिस कंपनी में निदेशक के रूप में कार्यरत हूँ उसका उद्देश्य पर्यावरण प्रबंधन है . पर्यावरण को मजबूत करना तभी संभव है जब उस स्त्री को मजबूत किया जाए जो जल, जंगल और ज़मीन के सबसे करीब रहती है। चाहे वह जल संरक्षण के छोटे-छोटे प्रयास हों, जंगल आधारित आजीविका के अवसर, या गाँवों में हरित कौशल का प्रशिक्षण—हर कदम पर स्त्रियों की भागीदारी ही परिवर्तन का आधार बनती है।

समुदायों में स्त्रियों को आगे लाया जाए, उनकी आवाज़ सुनी जाए, उनकी पारंपरिक समझ के पीछे छुपे विज्ञान को समझा जाए । क्योंकि वह समझ समाधान का रास्ता भी खोलती है।

भारत का अमूमन हर राज्य जलवायु परिवर्तन की कई चुनौतियों से गुजर रहे हैं—पानी की कमी, जंगलों पर दबाव, बढ़ती गर्मी और अस्थिर मौसम। ऐसे समय में इन प्रदेशों की स्त्रियाँ सिर्फ अपने हिस्से का श्रम नहीं कर रहीं, बल्कि धरती का भविष्य भी सँभाल रही हैं।

मैं यह मानकर चलती हूँ कि यदि किसी प्रदेश का पर्यावरण पुनर्जीवित होना है, तो वह घर की दहलीज़ से शुरू होगा—वहीं से जहाँ स्त्री खड़ी है। उसके हाथ मजबूत होंगे, तो धरती भी मजबूत होगी।

धरती का हृदय और स्त्री का हृदय—दोनों एक ही लय में धड़कते हैंऔर जिन्हें यह लय समझ आ जाए, वे प्रकृति को बचाने की दिशा में पहला और सबसे महत्वपूर्ण कदम उठा लेते हैं।

अंत में मेरी यही प्रार्थना है—कि हम इन स्त्रियों की आवाज़ सुनें, उनके संघर्ष को समझें, उनके ज्ञान को मान दें। क्योंकि धरती तभी सुरक्षित रहेगी जब उसकी पहली संरक्षक—स्त्री—सुरक्षित, सशक्त और सम्मानित होगी।

भारत में बदलते पर्यावरणीय हालातों के बीच कई सकारात्मक पहलें उभरकर सामने आई हैं, जिनसे महिलाएँ न केवल अपने जीवन को सुरक्षित और स्थिर बना रही हैं, बल्कि पर्यावरण संरक्षण में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभा रही हैं। सबसे पहले उल्लेखनीय हैस्वयं सहायता समूहों (SHG)की भूमिका। देश के कई ग्रामीण क्षेत्रों में महिलाएँ SHG के माध्यम से जल संरक्षण के उपाय सीख रही हैं—जैसे तालाबों का पुनर्जीवन, वर्षा जल संग्रहण, नालों की सफाई और समुदाय को जल–संकट के प्रति जागरूक बनाना। इन प्रयासों ने न केवल जल–स्तर बढ़ाने में मदद की है, बल्कि महिलाओं को नेतृत्व और निर्णय–सक्षमता भी प्रदान की है।

इसी तरह, महिला किसान प्रोड्यूसर कंपनियाँ (FPCs)ग्रामीण अर्थव्यवस्था में बड़ा बदलाव ला रही हैं। जलवायु परिवर्तन की वजह से कृषि में अनिश्चितता बढ़ी है, लेकिन FPCs के माध्यम से महिलाएँ सामूहिक खेती, जैविक कृषि, बीज संरक्षण और बाजार तक पहुँच जैसी क्षमताएँ विकसित कर रही हैं। इससे उनकी आय में वृद्धि होती है और वे अधिक जल–स्मार्ट और पर्यावरण–अनुकूल कृषि पद्धतियों को अपनाने में सक्षम होती हैं।

इसके अलावा, सौर ऊर्जा के माध्यम से महिलाओं को नए रोजगारमिल रहे हैं। कई राज्यों में महिलाएँ सौर पैनल तकनीशियन, सौर चूल्हा निर्मात्री, मिनी-ग्रिड ऑपरेटर जैसी भूमिकाओं में आगे आ रही हैं। सौर ऊर्जा केंद्र न केवल प्रदूषण घटाते हैं, बल्कि महिलाओं को ऐसे कार्य उपलब्ध कराते हैं जिनमें पारंपरिक ईंधन के जोखिम नहीं होते। इससे उनकी आय बढ़ती है, स्वास्थ्य सुरक्षित रहता है और ऊर्जा पर उनकी निर्भरता भी कम होती है।

पर्यावरण संरक्षण का एक और महत्वपूर्ण पहलू हैजल–स्तर बढ़ाने में महिलाओं की सक्रिय भागीदारी। राजस्थान, उत्तर प्रदेश और महाराष्ट्र जैसे राज्यों में महिलाएँ जल–स्रोतों के पुनर्जीवन, कुओं की खुदाई, नदी–नालों की मरम्मत और माइक्रो वाटरशेड विकास में अग्रणी भूमिका निभा रही हैं। उनके द्वारा संचालित ये अभियानों ने कई गाँवों में सूखे की समस्या कम की है और टिकाऊ जल–प्रबंधन के मॉडल तैयार किए हैं।

अंत में, स्वच्छ ऊर्जा (LPG, बायोगैस)के उपयोग ने महिलाओं की स्वास्थ्य और पर्यावरण दोनों को सुरक्षित किया है। पहले की तुलना में आज अधिक घरों में धुएँ रहित चूल्हों का इस्तेमाल हो रहा है, जिससे महिलाओं को लकड़ी इकट्ठा करने की मेहनत कम हुई है और सांस से जुड़ी बीमारियाँ भी घटी हैं। बायोगैस इकाइयों ने पशुधन वाले परिवारों में स्वावलंबन बढ़ाया है और रसोई को अधिक सुरक्षित बनाया है।

महिलाएँ केवल पर्यावरणीय संकटों की पीड़ित नहीं हैं, बल्कि समाधान की प्रमुख वाहक भी हैं। उनके प्रयासों से न केवल समुदाय मजबूत हो रहा है, बल्कि पर्यावरण भी अधिक सुरक्षित और संतुलित दिशा में आगे बढ़ता है।भारत की आज़ादी के बाद से लेकर आज तक इतने वर्षों में हमने कभी इस बात पर विचार नहीं किया कि धरती का बदलता तापमान , बदलता मौसम , सूखती नदियाँ और जलते जंगल स्त्री जीवन को किस तरह से प्रभावित कर रहे है ? पर अब हमारी पॉलिसीस और उनके क्रियान्वयन को इस दिशा में लगातार काम करने की आवश्यकता है .

आप भी सोचिये क्या महिलायें पर्यावरण की सजग प्रहरी नहीं?

छत्तीसगढ़ भिलाईं में निवासरत श्वेता उपाध्याय एक संवेदनशील लेखक होने के साथ पर्यावरण विषयों की विशेषज्ञ है . इनके हिस्से की रचनाओं मे कथा- संग्रह  “मेरे मन में बसता तुम्हारा मन” एवं कविता संग्रह  “कविता सी लड़की निबंध सा लड़का” मुख्य  हैं । “धरा के अंक में” श्वेता का प्रथम हिन्दी उपन्यास हैं।

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