
श्वेता उपाध्याय
धरती जिसे हम धरा और अवनि कहते है संज्ञा भी है और एक गृह भी . यह एक मात्र ऐसा गृह जहाँ मनुष्य जीवित रह रह सकता है. पानी, अनुकूल तापमान, प्राण-वायु, वनस्पति,पेड़-पौधे सब इसी धरती की कोख में आँखे खोलते है और सहजीवन की परिपाटी पर मनुष्य का जीवन चलता है. स्त्री-पुरुष भी इसी सहजीवन का पोषण करते है. एक जननी है तो दूसरा जनक. भारत की प्राचीनतम सभ्यताओं के विकास के साथ हमने एक ऐसी सामाजिक व्यवस्था की नीव रखी जहाँ प्रकृति के हर घटक का जीवन सुरक्षित था. फिर विकास के रथ का पहिया ऐसी गति से घूमा कि प्रस्तरों के घर्षण से अग्नि उत्पन्न करते-करते एक ऐसे युग में आ पहुंचे जहाँ विकास मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ती कर विलासता की राह पर अग्रसर हो उठा.

औद्योगिक क्रांति के बाद एक मशीनी युग का नवारम्भ हुआ. भारत की बात करें तो वैज्ञानिक खोजों, तकनीकों के इजाद होते ही समाज में सामाजिक–आर्थिक बदलाव आने लगे। बदलते जीवन और नव-गठित सामाजिक संरचना में स्त्री की भूमिका अहम् हो गयी. यूं तो वो इस क्रांति के पहले भी खेतिहर जीवन की बाग़-डोर थामी थी पर अब वो अन्न उगाने से लेकर उसकी बिक्री तक के कामों में अपने साथी और परिवार का हाथ बटाने लगी. ये दूसरी बात है कि इस पूरी प्रक्रिया ने उसे स्वामित्व कभी नहीं दिया. उसके हिस्से का श्रम वो लगातार करती रही जिसके एवज में उसे कर्त्तव्य-बोध की संतुष्टि के सिवा कुछ नहीं मिला. शिक्षा ने निःसंदेह रूप से महिलाओं का जीवन बदला पर स्त्री-समाज का एक वर्ग हमेशा वंचित रहा. ये लिखते हुए मुझे याद आती है राजस्थान में पानी की किल्लत झेलती वो महिलाएं जो एक परात में नहाती थी फिर उसी पानी में कपडे फींचती थी और उसके बाद बचा हुआ पानी पौधों या मवेशियों को देती थी.
जल–जमीन और जलवायु ग्रामीण स्त्री के जीवन को सर्वाधिक प्रभावित करते आये है.
महिलाएं हमेशा से प्रकृति की प्रथम संरक्षक रही. भारतीय सनातन-संस्कृति की आस्था का मूल ही प्रकृति उपासना है. इस परिपाटी को सशक्त करने में महिलाओं का बड़ा योगदान रहा. बरगद -पीपल- तुलसी – नदियाँ – कुएं प्राचीन काल से ही धार्मिक आस्था से जुड़े थे, इन्हें पूजते हुए महिलाओं ने प्रकृति को पूजनीय बना दिया. भारत का वनवासी समाज और उनकी स्त्रियाँ वन प्रहरी रही है.
अगर दो पड़ोंसी राज्य छत्तीसगढ़ और मध्यप्रदेश की बात करें तो ये राज्य वनवासी समुदायों का गढ़ है. बैगा,गौड़, हलवा, मुरिया, बिसन,आबुझ-मारिया इन सब का जीवन वन और वन से मिलने वाला संसाधनों पर आधारित है. यहाँ की स्त्रियाँ आज भी एक परंपरागत जीवन जी रही है. किन्तु यहाँ उनकी दिनचर्या अब लकड़ी बटोरने से लेकर कोदो पकाने तक सीमित नहीं है. वो अब जीविका-अर्जन करना सीख रही है. एक ग्रामीण और वनवासी स्त्री के हाथों में पानी का घड़ा भी है, और साप्ताहिक हाट में बेचने को हाथ से बनी टोकरी भी वह प्रकृति को किताबों से नहीं, अपनी दिनचर्या के हर छोटे काम में पढ़ती है, इसलिए प्रकृति की जरा सी करवट भी उसके जीवन को बदल डालती है। बदलते पर्यावरण ने उसका जीवन बदला है क्योंकि धरती का मिजाज समझ पाना उसके बस का नहीं रहा. हवा में गर्मी पहले से अधिक भारी है, नदियों का स्वर धीमा पड़ गया है, जंगलों का घनत्व भी कम हो गया है. मौसम का मिजाज़ बदलता जा रहा है. बरसात कभी अचानक टूट पड़ती है, कभी महीनों रूठी रहती है. सूर्य की तपन में एक बेचैनी है, और मिट्टी में एक थकावट. इस सबके बीच सबसे ज़्यादा प्रभावित होती है—“हमारी स्त्री”.
देश में बदलते पर्यावरण ने भारतीय स्त्रियों का जावन कई स्तरों पर प्रभावित किया है. जैसे;
जल संकट– जल जो जीवन है , महिलाओं का जीवन कठिन बना रहा है. भूमिगत जल का घटता स्तर महिलाओं को पानी की समस्या से झूझने के लिए मजबूर कर रहा है. घर का प्रबंधन क्योंकि आज ही मुख्य रूप से महिलाओं के पास है इसीलिए वो इस समस्या से अकेले झूझती हैं. टैंकर मंगवाना गाँव-देहात में शहरों जितना आसान नहीं. इसीलिए महिलाएं पानी लाने के लिए दूर- दूर तक जाती है.
प्राकृतिक आपदाएं- असमय बारिश, बाढ़ ,सूखा, महामारी स्त्रियों को भावनात्मक और आर्थिक रूप से तोड़ते है. आय घटने से कर्ज बढ़ता है और इसका असर पूरे परिवार पर पड़ता है.
स्वास्थ सम्बन्धी चुनौतियां– बदलते मौसम के साथ महामारियां और नयी बीमारियाँ दस्तक दे रही है. प्रदूषण के बढ़ने से हमारी इम्युनिटी (रोग प्रतिरोधक क्षमता )प्रभावित हो रही है.
शिक्षा पर प्रभाव– हमारी सामाजिक व्यवस्था ऐसी है जहाँ आज भी घरेलू कामों में लड़कियों को आगे आना पड़ता है. दूर-दराज के इलाकों से पानी लाने के चलते लडकियां विद्यालय नहीं जा पाती.
असुरक्षा– जहाँ जीवन की मूल-भूत सुविधायें जुटाने का संघर्ष होगा वहां असुरक्षा की भावना स्वतः ही पनपने लगेगी.
इन सभी बिन्दुओं पर गौर करे तो हम यह समझ पाते है कि बदलता पर्यावरण भारतीय स्त्रियों कोन सिर्फ शारीरिक, सामाजिक,आर्थिक और मानसिक रूप से प्रभावित कर रहे है बल्कि उन्हें आर्थिक रूप से सशक्त होने से भी रोक रहे है. हाँ इस स्याह सच का एक उजला पक्ष यह भी है कि सरकार और स्व- सहायता समूह महिलाओं की समस्याओं का समाधान देते नज़र आते है पर कुछ स्थानों की स्थिति अभी भी यथावत है ………………..
लेख का शेष भाग अगले परिशिष्ट मे
छत्तीसगढ़ भिलाईं में निवासरत श्वेता उपाध्याय एक संवेदनशील लेखक होने के साथ पर्यावरण विषयों की विशेषज्ञ है . इनके हिस्से की रचनाओं मे कथा– संग्रह “मेरे मन में बसता तुम्हारा मन” एवं कविता संग्रह “कविता सी लड़की निबंध सा लड़का” मुख्य हैं । “धरा के अंक में” श्वेता का प्रथम हिन्दी उपन्यास हैं।