मनीषा तिवारी
शहर कुछ खाली सा हो गया है. गली जहां लगभग खत्म होती है, वहाँ कुछ दरक गया है, लेकिन फिर भी कोई हलचल नहीं है, चौंकाने वाली विचलन नहीं है. सबकुछ एक व्यक्ति के स्वभाव सा शांत और दृढ़ लेकिन बिना शोर के सरक रहा है, शाम भी, शाम के बाद रात भी और ये साल भी.
विनोद कुमार शुक्ल जी से कल पहली बार रूबरू हुई, कल उनके हाथ मे कलम नहीं देखा लेकिन उनके दरवाजे पर उनके कलम की परछाई देखी. परछायी स्पष्ट थी और मजबूत भी, तीव्र थीऔर संवेदनशील भी, उदार लेकिन अभिमानी भी और कुछ-कुछ सकुचायी सी धीरे-धीरे कहीं भीतर तक भेदती हुई, लेकिन नाजुक और अहिंसक.
एक व्यक्ति के तौर पर विनोद जी हमारे अग्रज थे. एक लेखक, कवि, साहित्यकार के रूप मे निः संदेह शीर्षस्थ. लेकिन इन सब पहचानो से परे, उनके व्यक्तित्व की सबसे बड़ी पहचान यही रही कि वे जीवन के हर दौर मे एक आम मनुष्य बने रहे. आम जनजीवन मे रचे बसे, साधारण पहनावे मे और व्यवहार मे इतने सहज कि किसी भी औपचारिकता को अनावश्यक कर दे.

उनके कलम की सटीकता और दृढ़ता ऐसी कि उसपर प्रतिक्रिया देने से पूर्व ही मन स्वयं को अयोग्य मान लेता है. इतना भर कह सकती हूँ कि उनकी रचनाओं मे जीवन घटित होता है, भाषा की सहजता के साथ वो हमारे भीतर तक पहुंचता है और समय बिना आवाज किए आगे बढ़ जाता है.
उनके पास जो कुछ था उन्होने बिना किसी गिनती के दे दिया, जो मिला उसे सिर उठा कर सहजता से ले लिया. न देने के पहले कोई अपेक्षा न पाने का असाधारण उल्लास. जो दिया उसमे संतुष्टि, जो पाया उससे लगभग उदासीन, मानो देना कुछ पाने की शर्त पर था ही नहीं और पाना भी किसी उपलब्धि का उत्सव कभी रहा नहीं.
उस शाम ने मुझे बहुत गहरे ये महसूस कराया कि अपनी संपूर्णता मे लेटा हुआ वह व्यक्ति, जीवन मे कुछ साबित करने नहीं आया था. वह बस अपना काम करता गया, बिना शोर, बिना घोषणा, बिना किसी आत्म प्रचार के. उनके लिए उनका लेखन एक साधारण पगडंडी थी, जिसपर वह चलता चला गया. उनकी लेखनी मे भी यही भाव उतरता दिखाई पड़ा; अनायास, बिना आग्रह, बिना शोर बहुत दूर तक चले जाना । वे शब्दों को थोपते नहीं थे, उसे बस रहने देते थे; जैसे जीवन को रहने दिया.
वो हर किसी मे मिलते और घुलते गये, आपके कहे बिना. जो उनके पास पहुंचा उसका उन्होने ऐसे स्वागत किया जैसे वह पहले से प्रतीक्षित था और जो नहीं पहुंचा, उसके पास वह स्वयं गए. हां, उन्होने किसी को रोका नहीं, टोका नहीं, लेकिन तितलियों सा एक फूल से दूसरे तक असीमित परागकनों को बिखेरते रहे, जो खिलना चाहते थे उन्हे पढ़ कर खिल गए, कुछ उनकी आसक्ति और विरक्ति पर बातें करते खुद को सँवारते खूबसूरत हो गए .
एक लेखक से व्यक्ति तक और एक व्यक्ति से मनुष्य तक की यात्रा विरल होती है. विनोद जी ने दिखाया कि महान होना किसी ऊंचाई पर खड़े होने का नाम नहीं है, बल्कि धरातल से जुड़े रहकर भी ऊंचा हो सकने का साहस है. एक इंसान और एक लेखक से इससे अधिक और क्या अपेक्षा की जा सकती है और इससे अधिक क्या सीखा जा सकता है?
विनोद जी के जीवन का अंतिम भौतिक दृश्य मुझे बार-बार यह सोचने पर मजबूर करता रहा कि उनका होना या जाना किसी आग्रह की तरह नहीं, बल्कि एक शांत स्वीकृती की तरह रहा. ऐसा लगता है उन्होने कुछ पाया नहीं, कुछ छोड़ा नहीं, बस जो था वहीं लिया और वहीं बाँट दिया, और उनके जाने के बाद भी बहुत कुछ हमारे भीतर ठहर गया.
आज शहर का खालीपन भरने के लिए, इस शांत सरकते समय को ऐसे ही पिघल जाने देने के लिए फिर दूसरा विनोद कुमार शुक्ल कब जन्म लेगा…. पता नहीं!