मनीषा तिवारी
सुखी हमारे घर कुछ दिनों से रसोई बनाने के लिए आ रही थी. हालांकि मुझे उसकी बेतरतीबी देख कर बड़ा अजीब सा लगता था खासकर कामकाजी वो भी घरेलू महिला की चाल से विपरीत उसकी बेपरवाह, बेखौफ चाल. अनमनी और लापरवाह | लेकिन बर्तन भाड़े अपने हाथों में ऐसे उठाती जैसे वो बेजरुरत उसके हाथों मे चोपके हों. बाहर बाग बगीचे टहलती घूमती, पके फलों को निहारती अपने पैरों लगभग खींचती हुई वो किचेन में ऐसे जाती जैसे खुद को किसी जोखिम के लिए तैयार कर रही हो. वह अस्त व्यस्त भी नहीं थी लेकिन सुनियोजित भी नहीं. अक्सर छोटे बर्तनों को बड़े ढक्कन से ढाप देती. दूसरी औरतों की तरह उसे काम ख़त्म करने की ज़ल्दी नही होती, ऐसा लगता वो अपने वर्तमान मे जीती जाती थी, न भूत की चिंता न भविष्य की. कभी-कभी तो वो अपने आस पास की हर सजीव और निर्जीव वस्तु के सापेक्ष ऐसी प्रतीत होती जैसे कि वो वस्तु उसकी है भी और नही भी. ज़मीन पर भी मानो ऐसे खड़ी होती जैसे अभी कहो तो ज़मीन छोड़ अलग हो जाए.
जब वह पूछती, खाना क्या बनाऊ मैडम…? तो दोनों हाथों को अपने पेट पर बांधे, कंधे को थोड़ा उचकाए आँखे नीची कर मुस्कुराती रहती. जब कुछ बताओ या कहो या पूछो तो शर्माती हुई हंसकर अपने सिर को ऊपर उठाने की कोशिश में इधर उधर देखकर जवाब देती. ना जाने क्यों वो नजर नही मिलाती. इस तरह अपने पूरे अस्तित्व के साथ अस्तित्वहीन सी सुखी हमारे घर रोज़ आने लगी थीऔर मैं, उसे पूरे मे देखने की कोशिश के साथ उसकी ओर देखने से भी कतराने लगी थी.
उस रात थोड़ी ठंढ थी. सर्दियों के दिन आने-आने को थे. शाम ज़ल्दी हो रही थी और रातें लम्बी. वो रात लगभग साढ़े आठ बजे हमारे घर काम पर पहुंची. हमारे कोलोनी के दूसरे घरों में वो कई सालों से काम कर रही थी, लेकिन मेरे घर पर आते हुए उसे लगभग दो सप्ताह ही हुआ था. मैंने अब तक उसे गौर से देखा भी नही था और ना हीं उससे कोई ख़ास बातचीत की थी . लेकिन उस रात मुझे उसकी हठात उद्दण्डता से बड़ी हैरानी हुई जब वो कमरे में घुसते हीं अपनी शाल को अपने दोनों हाथों से अपनी छाती से दूर फैला टेबल पर रखे रूम हीटर के सामने थोड़ा झुक कर खड़ी हो गयी और हीटर की गर्माहट समेट लेने की कोशिश में ज़ोर से सांस लेने लगी. ऐसा लग रहा था मानो इस गर्माहट से वो अपना रोम रोम तर कर लेना चाहती हो. अभी मैं कुछ कह पाती वो अचानक उठी और किचन में चली गयी. मैं उसे देखती रह गयी. पहली बार मैंने देखा कि वो खूबसूरत, भरे पुरे बदन और सामान्य से अच्छी कद काठी वाली तीस पार की औरत थी, जिसके माथे पर एक औसत आकार की गोल कत्थयी बिंदी थी और हाथ रंग-बिरंगी चमकादार लाह की चूड़ियों से भरा पुरा था.

थोड़ी देर बाद वो चाय और नमकीन लाकर मेरी कुर्सी के चौड़े हत्थे पर रखी और मुस्कुराती हुई वापस किचेन में चली गयी. उल्टे पैर वो वापस अपने लिए भी चाय नमकीन लिए मेरे तिरछे नीचे दरी पर बैठ गयी. मैं अपनी बेटी को पढ़ा रही थी और उसकी चाय की चुस्कीयां मेरे कानो में लगातार पड़ रहीं थी. थोड़ी देर मैंने उसकी चुस्कीयों को अनसुना किया लेकिन अब मुझे खीज होने लगी थी. मैंने सोचा उसे दूसरे कमरे में जाने को कहूं तभी मेरे कान बज उठे “औरतें ही औरतों के सुख चैन की अव्वल दुश्मन हैँ” मैंने शांत रहना और उसकी चाय की चुस्की और नमकीन की कीटीर-कीटीर को बर्दाश्त करना मुनासिब समझा. मगर ये क्या, चुस्कीयाँ चलती रही और नमकीन की कीटीर कीटीर भी. मैं मन ही मन बोल पड़ी “ये निहायत हीं बेपरवाह महिला है. कुछ नही तो इसे कम से कम अपनी मालकिन की तो इज़्ज़त रख लेनी चाहिये. हालांकि मैंने सुना था कि बिना दरवाजे और खिड़कियों वाले छोटे घरों में रहने वाली ऐसी औरतों के पति दिन ख़त्म होते ही अपनी कमाऊं पत्नियों से हिसाब बराबर करते है,मैंने सोचा जरूर अपने घर की किचिर किचिर के मारे यहाँ बैठी अपना टाइम पास कर रही है” मैंने इसपर दया खायी और अपने कमरे को निहारने लगी. पलंग के साइड टेबल पर रखा गुलदान पिछले साल ही पेरिस से मंगवाया था और ये झूमर… जैसे ही मेरी नज़र मेरे कमरे की छत से लटक रहे झुमर पर पड़ी, मेरी सांस जोर जोर से चलने लगी और झूमर की रंग बिरंगी बत्तीयों में जगमगता मेरा छत बंदूक की गोलियों सा छलनी दिखने लगा. मुझे अपने मलिकानेपन पर हंसी आ गयी. मैं हल्की सांस अपने सीने में भरी. मुझे लगा सुखी ने अच्छा किया जो मेरे सीध में नही बैठी नही तो वो मुझे अचानक हँसती हुई देख कर क्या सोचती?
शेष अगले परिशिष्ट मे