रायपुर: मुक्तिबोध राष्ट्रीय नाट्य समारोह में कलाकार अपनी दमदार प्रस्तुति से दर्शकों को कभी हंसा रहे हैं तो कभी पात्र की पीड़ा का भी आभास करा रहे हैं. नाट्य प्रस्तुतियों में दर्शक मंत्रमुग्ध होकर आखिरी समय तक अपनी कुर्सी से चिपके रहे. नाट्य समारोह के तीसरे दिन फ्रांसीसी नाटककार मौलियर की कृति मिजर का भारतीय परिवेश का अद्भुत समावेश देखने को मिला.

आप को बता दे कि प्रसिद्ध अभिनेता विजय कुमार द्वारा अभिनीत ‘कंजूस’ नाटक एक मनोरंजक हास्य प्रस्तुति है, जिसने दर्शकों को हंसी के फव्वारों से सराबोर कर दिया.

नाटक में कलाकारों ने अपने दमदार अभिनय, सधे संवादों और शारीरिक हास्य से दर्शकों को ठहाकों से भर दिया. इसमें मिर्जा शेखावत बेग का किरदार विजय कुमार, फारुख-आशु, नब्बू-संत रंजन, अल्फु-दिगंत क़साहा, फरजीना-जेबा हुसैन, नासिर-सचिन कुमार, खैरा-अभिनव डागा , असलम- शिवा, मरियम के किरदार में प्रिया अग्रवाल ने जान डाल दिया.
वहीं विवेक हरबोला ने म्यूजिक से सराबोर कर दिया, स्टेज मैनेजर- सौरभ बंसल, लाइट में सागर पीएस खैरागढ़ ने रंग भर दिया.
कंजूस नाटक की पहली प्रस्तुति 1992 में नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा (NSD) में हुई थी, जहां स्वर्गीय बीएम शाह जी ने इसका कुशल निर्देशन किया। बीएम शाह जी की स्मृति में इस नाटक को पुनर्जीवित किया गया है, और अब तक इसके 8 शो सफलतापूर्वक आयोजित हो चुके हैं, जबकि रायपुर में इसकी 9वीं प्रस्तुति का मंचन किया जाएगा।
मूल रूप से 1965 के एक फ्रेंच नाटक का यह उर्दु रूपांतरण है, जो कंजूसी की थीम पर तीखा व्यंग्य करता हुआ दर्शकों के दिलों में जगह बना लेता है।

कंजूस के बाद हरिशंकर परसाई की प्रसिद्द व्यंग्य रचना हम बिहार से चुनाव लड़ रहे हैं पर आधारित, रंगमंच व फ़िल्म अभिनेता विजय कुमार अभिनीत भारतीय रंगमंच की बेहतरीन एकल नाट्य नाट्य की प्रस्तुति हुई.

विजय कुमार ने अपनी इस सोलो प्रस्तुति में मौजूदा राजनीतिक विद्रूपताओं को बखूबी उजागर किया है। परसाई की यह रचना दरअसल बिहार में अचानक चुनाव लड़ने पहुंचे भगवान श्रीकृष्ण के सामने आती चुनौतियों पर करारा व्यंग्य है। इस व्यंग्य को रंगमंच पर उकेरना और उतारना आसान नहीं। सिर्फ एकल अभिनय के लिए तो यह चुनौती और भी बढ़ जाती है। लेकिन विजय कुमार इसके नाट्य रूप से साथ न्याय करते हुए इस व्यंग्य को दर्शकों तक बखूबी पहुंचा पाने में कामयाब हैं।

आज के दौर की लगभग समूची भारतीय राजनीति इस बुराई की चपेट में है। ऐसे में हरिशंकर परसाई का व्यंग्य मौजूदा राजनीतिक तंत्र पर एक रूपक की तरह व्यंग्य करता है। चूंकि विजय कुमार खुद पटना के रहने वाले हैं, उन्हें भोजपुरी और बिहारी लोक नाट्य शैलियों और लोकरंग की जानकारी है, लिहाजा उनकी इस एकल प्रस्तुति में लोकरंग के ये नजारे बार-बार सामने आते हैं।
खासतौर पर कृष्ण को लेकर गीतों की प्रस्तुति में भोजपुरी लोकरंग के बार-बार दर्शन होते हैं। एक हद तक लोकनाट्य रंग इस एकल प्रस्तुति की जरूरत भी बन गए हैं। इनके जरिए दर्शकों से विजय सीधा संवाद बनाए रखते हैं। इस तरह हरिशंकर परसाई का व्यंग्य, जो नाट्य रूप में आते-बढ़ते विजय कुमार का नाट्य रंग बन गया है, को दर्शकों तक सही संदर्भों में पहुंच पाता है। नाटक के आखिर में दर्शकों पता चल ही जाता है कि आखिर बिहार का राजनीतिक यथार्थ क्या है, जिसमें आम आदमी से लेकर बुद्धिजीवी तक उस राजनीतिक व्यवस्था के सड़ांध का हिस्सा बन गया है। विजय कुमार कहते हैं कि इस नाटक में मौजूदा सवालों से भटकाकर जो राजनीति की जा रही है, उसे दिखाने का प्रयास किया गया है। विजय कुमार का कहना है कि हमने जो दिखाया, वह किसी के लिए नया नहीं है। लेकिन यह लोगों के प्रतिरोध का स्वर है, जिसे उन्होंने रंगकर्म के माध्यम से व्यक्त किया है।
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